डायरी | उपवास के फ़ायदे बेशुमार
रमज़ान और नवरात्रि शुरू हो चुके हैं. रमज़ान के मुक़द्दस महीने में बाक़ी चीज़ों के अलावा सबसे महत्वपूर्ण होती है – रोज़ेदारी. इसी तरह पवित्र नवरात्र में व्रत या उपवास रखकर देवी की उपासना ख़ासा अहम् माना जाता है. तीस दिनों तक चलने वाले रोज़ों की धार्मिक महत्ता से सभी वाक़िफ़ हैं लेकिन इसके उन बड़े वैज्ञानिक फ़ायदों के बारे कम लोगों को ही इल्म है, इस्लाम के प्रारंभिक प्रवर्तकों ने जिसके चलते इन्हें अपनी धार्मिक परम्पराओं के साथ जोड़ा था. इसी तरह नौ दिनों के नवरात्रि उपवास दीर्घ शारीरिक चिकित्सा की प्रक्रिया से गुज़रने का एक शानदार मौक़ा हो सकते हैं, उपासकों में बहुतेरे इस पर शायद ही ग़ौर करते हों.
दरअसल ज़्यादातर धर्मों के साथ रोज़े, व्रत या ‘फास्टिंग’ की, जो परंपरा जोड़ी गई है, उसका सम्बन्ध स्वास्थ्य और उससे जुड़े वैज्ञानिक कारणों से है. चूंकि लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति अक्सर लापरवाही बरतते हैं इसीलिए इन्हें धर्म, पुराण और मिथकीय परम्पराओं से सम्बद्ध कर दिया गया ताकि इस बहाने से ही लोग इसके पालन के लिए प्रतिबद्ध हों.
रोज़े और उपवास का चलन लगभग सभी धर्मों में है. नवरात्रि के नौ दिनों की ही बात क्या करें, वैदिक परंपरा में व्रत की महत्ता पूरे वर्ष किसी न किसी दिन और किसी न किसी रूप में बनी रहती है. यदि बौद्ध धर्म की बात करें तो दोपहर के बाद भोजन पर प्रतिबन्ध (18 घंटे प्रतिदिन) व्रत का ही रूप है. बुद्ध ने अपने शिष्यों से व्रत की महत्ता बताते हुए कहा था -“मैं व्रत का पालन करता हूँ इसीलिये स्वस्थ बना रहता हूँ. जैन धर्म में भी सूर्यास्त से पूर्व भोजन ग्रहण करने की परंपरा (रात्रि भोज त्याग) लम्बे व्रत का ही स्वरूप है.
मानसून में पड़ने वाले पर्यूषण पर्व के समय (आठ दिन श्वेताम्बर परंपरा में और दस दिन दिगंबर परंपरा में) तो यह अधिकांश जैनियों के लिए यह अवश्यम्भावी हो जाता है. इसके अलावा जन्मदिन, वर्षगाँठ और प्रत्येक त्योहार पर जैन धर्म में व्रत की परंपरा है. बाइबिल में समय-समय पर भोजन के पूर्ण या आंशिक त्याग को बड़े महत्व का बताया गया है. ईसा अपने मानने वालों से ‘फास्टिंग’ की अपेक्षा करते हैं. वह कहते हैं, “यदि फास्टिंग करोगे तो प्रभु तुम्हें इसका पुरस्कार देंगे.” यहूदियों का सबसे पवित्र पर्व ‘योम किपुर‘ है. इस दिन वे पूरे 25 घंटे तक न कुछ खाते हैं, न पीते हैं. पारसियों में यद्यपि व्रत की कोई परंपरा नहीं है, तब भी बह्मान पर्व के दौरान वे पूरे महीने मांसाहार का सख़्ती से परहेज़ करते हैं.
हर बार रमज़ान के मौक़े पर मुझे बरबस अपने 52 दिन के स्थायी उपवास की याद आ जाती है. सन् 2014 की बात है. मुझे प्रायः कोई न कोई संक्रमण घेर लेता था और फिर बुखार का चक्कर शुरू हो जाता. तब एक दिन मेरे प्राकृतिक चिकित्सक और गुरू डॉ.जेता सिंह ने मुझे लम्बा उपवास करने का सुझाव दिया. “कितने दिन?” मेरे पूछने पर उनका जवाब था कि सप्ताह भर का रख कर शुरू करें और तब देखें कितने दिन और बढ़ा सकते हैं. शिष्य ने हिम्मत बाँध कर व्रत राग छेड़ दिया और गुरु प्रोत्साहित करते चले गए. मामला 52 दिनों पर जाकर टूटा. शुरू के पाँच-छह दिन ही जब-तब खाने की इच्छा महसूस करवाते, बाद में भूख ‘नॉन एजेंडा’ बनती चली गई. दिन में पाँच बार तीन चम्मच शहद और एक नींबू के साथ गिलास भर कर पानी पीने के निर्देश थे.
उन्हीं दिनों संस्कृति मंत्रालय के ‘लोक नाट्य महोत्सव’ में लखनऊ जाने के लिए हमारी नई ‘भगत’ की ‘तालीम’ चल रही थी. दिन के 5-6 घंटे उसकी भागदौड़ में भी गुज़ारने पड़ते थे. तालीम और रिहर्सल बहुत थकाऊ होते हैं, जो लोग इसमें शामिल होते हैं या इसके बारे में जानते हैं, इसका और इसमें खपने वाले परिश्रम का मर्म समझते हैं. इस दौरान मेरा वज़न ज़रूर नौ किलो कम हुआ लेकिन कमज़ोरी बिलकुल नहीं महसूस हुई. दिन भर सक्रिय बना रहता और ऊर्जावान भी. शहद अपने आप में ऊर्जा और कैलोरी का महाभंडार है.
इतना ही नहीं, लम्बे व्रत या उपवास हमारी सूंघने की शक्ति को भी इस सीमा तक प्रबल कर देते हैं कि जब-तब पड़ोस की महिलाएं और लड़कियां हमारे यहाँ आतीं तो मैं झट से उनको यह बता कर ‘आतंकित’ कर देता कि आज उनके किचन में क्या पका है! इन उपवासों का मुझ पर अगले पाँच साल तक असर रहा और मैं निरोग बना रहा. मुझे न तो साधारण संक्रमण से बुखार हुआ और न कोई अन्य संक्रमण सम्बन्धी रोग. आख़िर उपवास के वैज्ञानिक लाभ हैं क्या और क्यों इनके तार हमारे शरीर और स्वास्थ्य से जुड़े हुए हैं? कहाँ से इन उपवासों में इतनी शक्ति और सामर्थ्य आ जाती है कि बिना किसी दवा-दारू के यह मनुष्य के तमाम साध्य और असाध्य रोगों को ठीक कर देते हैं?
मनुष्य भले ही प्रकृति प्रदत्त उपवासों की इस चिकित्सा पद्धति से अनभिज्ञ हो, पशु इसे अच्छी तरह जानते हैं. यही वजह है कि बीमार पड़ते ही जानवर कुछ भी खाना-पीना छोड़ देते हैं. ऐलोपैथी चिकित्सा में उपवासों के वैज्ञानिक वर्गीकरण की कोई फ़िक्र नहीं है अलबत्ता नेचुरोपैथी में उपवास चिकित्सा पद्धति को बहुत गंभीरता से लिया गया है.
कोशिका (सेल) और ऊतक (टिशूज़) निर्मित जीव-जंतुओं को, चाहे वे मनुष्य हों, पशु-पक्षी अथवा पेड़-पौधे, प्रकृति ने एक अनूठा उपहार दिया है. यह उपहार है उनके भीतर की किसी भी प्रकार की टूट-फूट या क्षरण की ख़ुद-बख़ुद ‘मरम्मत’ कर देने की क्षमता का उपहार. आप में से बहुत से लोगों को संभवतः न मालूम हो कि हड्डी टूट जाने पर प्लास्टर चढ़ाना कोई इलाज नहीं. यदि प्लास्टर न चढ़ाया जाए तो भी निर्धारित अवधि में हड्डी अपने आप जुड़ जाएगी. सभी प्राणियों में यह गुण होता है कि उनके शरीर के किसी भी बाहरी या भीतरी अंग की टूट-फूट के साथ तत्काल उनमें उसी स्थान से ऊतक या सेल का निर्माण होने लग जाता है. अब यह अंग चाहे सीधा जुड़े या कुछ अलग हटकर, वह जुड़ेगा ज़रूर.
डॉक्टर, वैद्य, हक़ीम या ज़र्रा दरअसल करते यह हैं कि वे एक्सरे में अक्स देख कर टूटी हड्डी या अंग को खींच कर (जिसे वे ‘सर्जरी’ या ‘ऑपरेशन’ कहते हैं) सही जगह पर रख देते है और फिर प्लास्टर या ‘बड़ी पट्टी’ से निर्धारित अवधि के लिए उस जगह को पैक कर देते हैं ताकि वह हिले-डुले नहीं और हड्डी (या अंग) ठीक से जुड़ जाए. प्लास्टिक सर्जरी में प्लास्टिक सर्जन इसी प्रकृति प्रदत्त प्रक्रिया की मदद लेते हैं और पौधों में ‘क़लम’ लगाने में माली की तकनीक भी प्रकृति का सहारा लेने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं.
क्रॉनिक किडनी रोग, लिवर सिरॉसिस या ऐसी ही दूसरी अनेक असाध्य बीमारियों में, जिनमें ‘नेफ्रॉन’, ‘सेल’ या टिश्यूज़’ नष्ट होने लगते हैं, उनमें आवश्यकता उनके पुनर्निर्माण की होती है जिसकी क्षमता शरीर में पहले से ही मौजूद है और वह वैसा ही करने का प्रयास करता भी है. किडनी और लिवर के ज़िम्मे दूसरे बहुत से महत्वपूर्ण काम भी होते हैं. मिसाल के तौर पर किडनी को रक्त के भीतर से भोजन से प्राप्त अनावश्यक मात्रा में कैल्शियम, सोडियम, फॉस्फोरस और पोटेशियम जैसे रसायनों और कचरों की सफाई करके शरीर में पानी, नमक और लवण का एक समुचित संतुलन बनाना होता है. उसे अतिरिक्त पानी और द्रव को भी शरीर से बाहर निकलना होता है. उसके ऊपर ‘सेल’ द्वारा पैदा किये जा रहे एसिड और टॉक्सीन को भी साफ़ करने की ज़िम्मेदारी होती है. लिवर हमारे शरीर के सबसे जरूरी अंगों में है. यह शरीर में भोजन पचाने से लेकर पित्त बनाने तक का काम करता है. लिवर शरीर को संक्रमण से लड़ने, भोजन से प्राप्त ब्लड शुगर को कंट्रोल करने, शरीर से विषैले पदार्थो को निकालने, ‘फैट’ को कम करने और कार्बोहाइड्रेट को ‘स्टोर’ करने से लेकर प्रोटीन के निर्माण तक में मदद करता है. लिवर पूरे शरीर को ‘डिटॉक्स’ करता है.
जब हम उपवास कर रहे होते हैं या भोजन का त्याग कर देते हैं तब किडनी और लिवर पर काम का बोझ कम हो जाता है. फुर्सत के इन क्षणों में वह इत्मीनान के साथ अपनी टूट-फूट, मरम्मत और दूसरी बीमारियों की ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ में जुट जाते हैं. इतना ही नहीं, जब इन दोनों अंगों पर भोजन से निकले अनावश्यक तत्वों और कचरे की सफाई का बोझ नहीं होता है तब वे शरीर पर आक्रमण करके रोगों को जन्म देने वाले किसी भी प्रकार के बैक्टीरिया और वायरस के साथ निर्द्वन्द्व होकर लड़ पाने और उन्हें हराने में सक्षम होते हैं.
प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों का इतिहास बहुत पुराना है. आयुर्वेद 800 ईसा पूर्व तक अच्छी-खासी विकसित दशा में पहुँच चुका था जबकि यूनानी चिकित्सा पद्धति का विकास 500 ईसा पूर्व से भी पहले का है. इसी तरह चीन में भी चिकित्सा पद्धतियों का इतिहास अत्यंत प्राचीन था. मज़ेदार बात यह है कि इन सभी चिकित्सा पद्धतियों में मनुष्य के शरीर की बनावट के अपने गुण-दोषों के साथ-साथ प्रकृति को भी स्वास्थ्य सुधारने का ज़िम्मेदार माना गया था. सैकड़ों-हज़ारों साल पहले धर्म की स्थापना का बीज बोने वाले या उसे परंपरा के रूप में ढालने वाले दार्शनिक, मौलवी, संत और महात्मा प्रकाण्ड विद्वान तो थे ही, दर्शन और धर्म के अलावा तत्कालीन विज्ञान और मानव विज्ञान की भी उनमे अच्छी ख़ासी चेतना थी. वे इन वैज्ञानिक तथ्यों को मोटे तौर पर जानते थे. उन्हें पता था कि टूट-फूट की मरम्मत करने के प्रकृति प्रदत्त गुण से शारीरक उपचार कैसे संभव है. यही वजह है कि बुद्ध अपने शिष्यों के बीच अपने स्वस्थ बने रहने का श्रेय व्रत को देते हैं और ईसा अपने भक्तो को ‘फास्टिंग’ रखकर ‘ईश्वर से पुरस्कार प्राप्ति’ की अभिलाषा का ज्ञान देते हैं.
रोज़े, व्रत या उपवास के दिन दरअसल धर्म की दृष्टि से कितने पवित्र हैं, इसका व्यापक विवरण दार्शनिक और संत ही दे सकते हैं लेकिन मनुष्य के शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज़ से भी ये सबसे पवित्र दिन यही होते हैं. 30 दिन के रोज़ों का मतलब है साल भर के तमाम व्यवधानों, अड़चनों और छोटे-बड़े रोगों से शरीर को मुक्ति, अगर उसे ठीक से संपन्न किया जाए. यही बात नौ दिन के व्रतों (या अन्य अवसरों पर किये जाने वाले व्रत अथवा व्रतों) के समापन पर भी लागू होती है.
रोज़े के ‘अफ़्तार’ के वक़्त पर फिर भी कुछ एहतियात बरती जाती है (हालांकि तेल में चखनते पकौड़े और घी में डूबी आलू की टिक्कियों की भरमार शाम की मेज़ों पर खूब सजती-संवरती है) लेकिन ‘सहरी’ के वक़्त तो तेज़ मसालों के साथ तेल या घी में डूबे तरह-तरह के सालन की तश्तरियों, चर्बी की रक़ाबें और तंदूरी रोटी की ऐसी भरमार होती है कि खाने वाले को होश ही नहीं होता है कि वह यह भी सोचे कि अभी आधी रात ही गुज़री है और वैज्ञानिक रूप से शरीर के लिए यह कोई ठीक वक़्त नहीं.
कुछ-कुछ ऐसा ही व्रत तोड़ने के समय भी होता है. घी में डूबे आलू, मावा और तली मिठाइयां और दूसरी चिकनाई वाली खाद्य सामग्रियों पर लोग इस भाव से टूट पड़ता है कि अब न खा सका तो भूखा ही रह जाएगा. रोज़े और व्रत को महज़ धार्मिक संस्कार मानने वाले ज़्यादातर लोगों की मुश्किल यह है कि और उनके शरीर और स्वास्थ्य के साथ उपवास के रिश्तों और इसकी वैज्ञानिक भूमिका का उन्हें बिलकुल ख़्याल नहीं रहता. परिणाम यह होता है कि उपवास के दौरान शरीर द्वारा किया गया अपनी मरम्मत का समूचा प्रयास ही निष्फल हो जाता है.
ऐसे उपवास की अवधि पूरी होने पर आपने लोगों को मोटाते हुए देखा होगा, घटे हुए वज़न शायद ही कोई मिला हो. क़ायदे से उन्हें करना यह चाहिए कि उपवास हलके-फुल्के फलाहार या जूस के साथ तोड़ना चाहिए और बाक़ी समय में भी फल और सलाद पर ही उनका ज़ोर रहना चाहिए. जिन लोगों के शरीर में ‘डीहाड्रेशन’ की प्रवृत्ति नहीं है, उनमें 30 दिन के रोज़ों या उपवास की बात तो दीगर है, यदि वे सिर्फ़ दो दिन का उपवास ही रख लें तो उनका वज़न और सूजन कम होंगे, ‘इन्सुलिन’ के प्रति उनकी शारीरिक संवेदनशीलता का विकास होगा और ‘सेल’ विनष्टि की रोकथाम स्थगित होने से उनकी आयु कुछ प्रतिशत लंबी हो जाएगी.
(सुझाव: लंबे और अनवरत उपवास पर जाने से पूर्व छोटे-छोटे उपवास के जरिये तैयारी करनी चाहिए. उपवास का एक अर्थ कचरा शरीर से निकल जाना भी है. कचरा निकलेगा तो कुछ न कुछ ‘उपद्रव’ करेगा ही. ऐसे में किसी अनुभवी प्राकृतिक चिकित्सक का परामर्श और उनकी देखरेख श्रेयस्कर है.)
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