अँगूर | क़ुदरती ख़ूबियों का ख़ज़ाना और कारगर दवाई भी!
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
नैचुरोपैथी में एक बड़ी मुफ़ीद दवाई है अँगूर! अँगूरों के दमदार दवा होने की बाबत कई साल पहले ही मेरे नैचुरोपैथ चिकित्सक और गुरु डॉ.जेता सिंह ने बताया था लेकिन इनकी अलग-अलग मात्रा अलग-अलग बीमारियों में इनकी सफलता की कहानियों का कैसे निर्माण करती हैं, यह मैंने हाल ही में जाना. यह दिलचस्प कहानी मगर कष्ट की मेरी दास्ताँ से कैसे जुड़ी है, पहले यह जान लीजिए.
हुआ यूं कि बीता हफ़्ता दर्द के गहरे सैलाब में डूबते-उतराते गुज़रा. मेरी हर भोर दर्द के दरिया में डूबकर ही आती और सारा दिन और आने वाली रात टीस के सैलाब में डूबते-उतराते अगली सुबह उस पार दर्द के दरिया से जा मिलती.
यों बीच में सब कुछ दुरुस्त चल रहा था. चीज़ें तेज़ी से सुधार की तरफ थीं. किडनी का मरीज़ होने और नैचुरोपैथी की मदद से कई सालों तक इस पर क़ाबू पाने की बाबत विस्तार से पहले ही लिख चुका हूँ और साथ में यह भी कि कैसे पिछले साल नवम्बर में बीमारी के एकदम से बिगड़ जाने के बाद, कुछ महीनों के लिए डायलिसिस और नैचुरोपैथी का एक संयुक्त अभियान एक साथ शुरू किया गया. यह अभियान अपनी सफलता की तरफ आगे बढ़ रहा था, धीरे-धीरे डायलिसिस को कम करने की तरफ़ मैं अग्रसर था कि तभी ऐसी घटना हो गई, जिसने मुझे एक नए संकट में डाल दिया.
फ़िलहाल मेरी डायलिसिस ब्लड सप्लाई की सेंट्रल लाइन के गर्दन वाले हिस्से से चालू थी. बेशक़ यह एक अस्थायी इंतज़ाम होता है, 4-5 महीने ही इसकी ज़िंदगी के होते हैं फिर भी मेरे पास अभी दो-ढाई महीने बचे थे. डॉक्टर के दबाव के चलते डायलिसिस के लिए हाथ में ‘एवी फेशुला’ बनवाना पड़ा. एवी फेशुला में एक छोटी सी सर्जरी के जरिये बाएं हाथ की कलाई के ऊपर की मुख्य ‘आर्टरी’ (ए) और ‘वेन’ (वी) को काटकर बाँध दिया जाता है. माना जाता है कि 3-4 हफ़्ते में बंधन के टाँके ‘शरीर में डिजॉल्व’ हो जाते हैं और ‘एवी फेशुला’ तैयार हो जाने के साथ ही वहां डायलिसिस के लिए एक मज़बूत और लम्बा चलने वाला ‘स्ट्रक्चर’ बन हो जाता है.
फेशुला लेकिन एक बहुत ‘महीन कौशल’ है. यह एक बेहद महंगा और नाज़ुक क्राफ़्ट है. यही वजह है कि यह हर एक सर्जन के हाथ नहीं आती. इसकी सफलता का प्रतिशत कम होता है. मेरा फेशुला भी फेल हुआ. न सिर्फ़ नसों के इर्द-गिर्द गंभीर संक्रमण हो गया बल्कि यह संक्रमण बढ़ता ही चला गया. इसके बाद शुरू हुआ एंटीबायोटिक, इंट्राविनस इंजेक्शनों और ओरल एंटीबायोटिक दवाओं के ज़ोरदार सुरक्षा कवच में मेरे जिस्म को पूरे तौर पर लपेट दिए जाने का सिलसिला.
बैक्टीरिया और वायरस के हमलों से निबटने की गज़ब की क्षमता रखते हैं, ये एंटीबायोटिक, इसमें कोई संदेह नहीं. साथ ही लेकिन ये बड़े षड्यन्त्र ख़ोर भी होते हैं. साइड एफ़ेक्ट्स के बतौर अपने भीतर ज़हर बुझी छुरियों का एक बड़ा स्टॉक लेकर चलते हैं ये एंटीबायोटिक्स. साइड एफ़ेक्ट्स की इनकी ये छुरियां बड़ी ख़तरनाक हैं. हम इसकी कल्पना करें भी तो कैसे! मज़ेदार बात यह है कि जिस समय ये एंटीबायोटिक्स रोगी के शरीर के एक हिस्से में व्याप्त संक्रमण से जूझ कर हमें सुख देने की लीला रच रहे होते हैं, उसी समय साइड एफ़ेक्ट्स की अपनी विषाक्त छुरियों को शरीर के दूसरे तमाम हिस्सों का क़त्ल कर डालने में भी जुटे होते हैं.
मेरे साथ भी यही हुआ. मुझे दिए जाने वाले एंटीबायोटिक्स ने मेरे शरीर, किडनी और दूसरे अंगों का किस तरह क़त्लेआम किया होगा, नहीं जानता लेकिन इनके महसूसने के बतौर मेरी पूरी भूख चली गई, शौच रुक गया. दो दिन संकट में बिलबिलाने के बाद अपने नैचुरोपैथ डॉ.जेता सिंह की शरण में पहुंचा. डॉ.जेता सिंह ने बिना एक क्षण गंवाए आदेश किया-“पूरा दिन अंगूर और छाछ पर रहिये!” मैंने वही किया और राहत मिली. अगले दो दिन मैंने अँगूर का ही भोजन लिया. मेरा घर अँगूरों से भर गया.
फ़रवरी महीने के आख़िरी दिनों में जिस समय मैंने यह सब किया, बाज़ार अँगूरों की बहार से गुलज़ार थे. देश के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों के छोटे-बड़े शहरों के अंदरूनी और बाहरी हिस्सों में दूर तरफ पसर आईं मंडियों में जहाँ तक निगाहों की पहुँचती – डलिया, पेटियां और खोखे सब्ज़ (हरे) और काले अँगूरों के गुच्छों से अटे पड़े दीखते. दूर से बेशक ये अँगूर महकते न हों, आप अगर इनके नज़दीक जाएंगे तो ज़रूर एक ख़ास क़िस्म की ख़ुशबू में सराबोर हो जाएंगे. यह अँगूरों की महक है. सब्ज़ और काले अँगूरों की महक. इनके रंग भले ही जुदा-जुदा हों, इनकी ख़ुशबू एक ही है. इनका स्वाद एक ही है. अँगूरों का स्वाद और महक ही इनकी पहचान है.
अँगूर कैसे नैचुरोपैथी की इस चिकित्सा में मेरा हथियार बने और कैसे एंटीबायोटिक की ज़हर की छुरियों के हमलों से मैं निजात पा सका, उससे पहले ज़रा अँगूर का इतिहास भी जान लें. अँगूर का परंपरागत इतिहास उतना ही पुरातन है, जितना इंसान का. बाइबिल में नोआ द्वारा अँगूर का बग़ीचा लगाए जाने का ज़िक्र मिलता है. होमर के समय में अँगूरी शराब यूनानियों की रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ थी.अँगूर की पैदाइश काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय क्षेत्र से लेकर पश्चिमी भारतवर्ष तक थी. यहाँ से एशियामाइनर, यूनान तथा सिसिली की तरफ यह फैला. भारतवर्ष में इसकी खेती बंबई, मद्रास, मैसूर, सहारनपुर आदि में की जाती है. अँगूर की सबसे उत्तम खेती महाराष्ट्र में होती है. अँगूर उपजाने वाले मुख्य देश इटली, स्पेन, संयुक्त राज्य अमेरीका, तुर्की, ग्रीस ईरान तथा अफगानिस्तान है. 600 ईसा पूर्व में यह फ्रांस पहुँचा था. अपने वैज्ञानिक नाम वाइटिस विनिफेरा के बतौर जाना-जाने वाला अँगूर (प्रजाति:वाइटिस, जाति: विनिफेरा) लता रूप का फल है, जिसकी लगभग 200 प्रजातियाँ होती हैं. दुर्भाग्य से संसार में अंगूर की जितनी उपज होती है, उसका 80 प्रतिशत मदिरा बनाने में इस्तेमाल होता है.
जब अँगूर खाने चले ही हैं तो अँगूर के बारे में दो शब्द और भी जान लें. अँगूर वास्तव में बहुत स्वादिष्ट ताज़ा-ताज़ा खाया जाने वाला फल है. इसके अलावा सुखाकर किशमिश, मुनक्का की शक़्ल में और संरक्षित रस, शराब, सिरका तथा जेली के रूप में भी इसके बहुतायत इस्तेमाल से आप सभी वाक़िफ़ हैं. खीर-हलवा जैसे पकवान, चटनी और आयुर्वेदिक औषधियों आदि में भी इसका उपयोग होता है. इसमें विटामिन बहुत ज़्यादा है और लौह आदि खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं.
केमिकल गुणों की बात करें तो अँगूर में प्रोटीन का प्रतिशत 8 होता है. इसी प्रकार फैट का 1 प्रतिशत, कार्बोहाइडरेट का 10.2, कैल्सियम 0.2 और फॉस्फोरस 0.2 प्रतिशत होता है. अँगूर के प्रति 100 ग्राम में 1.3 से 1.5 मिलीग्राम आयरन होता है. इसके अलावा इसमें कई विटामिन भी होते हैं. प्रति 100 ग्राम अँगूर में इनकी मात्रा (विटामिन ए-15 यूनिट, विटामिन सी-10 मि.ग्रा) होती है. 100 ग्राम अँगूर खाने से शरीर में 45 कैलॉरी ऊर्जा पैदा होती है. अँगूर में मौलिक टारटैरिक तथा रेसीनिक अम्ल होते हैं. इसमें ग्लूकोज शुगर पर्याप्त मात्रा में होती है. विभिन्न किस्मों के अँगूरों में शुगर की मात्रा 11 से 22 प्रतिशत तक पाई जाती है. किन्हीं ख़ास प्रजातियों में तो यह प्रतिशत 50 तक पहुँच जाता है. अँगूर में जल तथा पोटैशियम लवण की समुचित मात्रा होती है. एलब्यूमिन तथा सोडियम क्लोराइड भी बहुत थोड़ी तादाद में होता है.
डॉ.जेता सिंह के आदेशों के अनुसार एंटीबायोटिक द्वारा छेड़े गए युद्ध से निबटने के लिए छाछ के साथ मैंने अँगूर का सेवन शुरु किया. 100 मिलीग्राम छाछ के साथ अँगूर की मात्रा 300 ग्राम से 500 ग्राम तक थी. ऐसा मैंने 24 घंटे में 4 बार किया. अगली सुबह बड़ी जादुई थी. पहले झटके में ही मेरा पेट साफ़ हो गया. हाजत रफ़ा होना इस बात का ऐलान था कि मेरा शरीर एंटीबायोटिक के विष से काफी हद तक ‘डीटॉक्सिफाई’ हुआ. इसके तत्काल बाद खाने की इच्छा जागृत हुई. मैं अगले दो दिनों तक अँगूरों पर रहा और फिर किडनी की अपनी पुरानी नैचुरोपैथी डाइट के चार्ट पर आ गया.
किडनी के कुछ रोगियों में सेप्टिक की हीलिंग मुश्किल टास्क हो जाता है. मैं उन्हीं दुर्भाग्यशाली रोगियों में एक था. मेरा सेप्टिक का मामला एंटीबायोटिक की पहले सात दिन की डोज़ में नियंत्रण से बाहर चला गया. मेरी कलाई के ऊपर, जहाँ लगे बाहरी टाँके काट दिए गए थे, सेप्टिक के पीले वालकानो (ज्वालामुखी) का एक पर्वत ऊचां उठता चला गया और सातवें दिन मेरे डॉक्टर के केबिन में, उनकी आँखों के सामने फूट पड़ा. इसके बाद हुई सर्जरी में मेरा फेशुला बंद कर दिया गया. मेरी कलाई में भीतर तक डेड़ इंच गहरा घाव गड़ गया था. अब 5 दिन तक चलने वाले एक नए एंटीबायोटिक इंट्राविनस इंजेक्शन की डबल डोज़ और उसके साथ के कॉम्बिनेशन वाले कैप्सूल से मेरा फिर से साबका पड़ा. इस बार अँगूर मेरे साथ थे, लिहाज़ा मैं सुरक्षित था. आपको शायद यक़ीन न हो पर सच्चाई यह है कि न तो मेरी रत्ती भर भूख कम हुई और न शौच में किसी तरह की कोई दिक़्क़त.
इसी दौरान मध्य प्रदेश के मेरे एक प्रशासनिक अधिकारी मित्र के कोविड संक्रमण में 15 दिन के लिए चले जाने की सूचना मिली. जिस समय मुझे ख़बर मिली, मित्र पोस्ट रिकवरी के दौर से गुज़र रहे थे. मैंने डॉ.जेता सिंह से फोन पर पूछा तो उन्होंने फिर अँगूर का ज़िक्र किया. “कोविड मरीज़ की पोस्ट रिकवरी के लिए अँगूर से बड़ा जादू कोई नहीं.” इसे मरीज़ को 500 ग्राम से लेकर डेड़ किलो तक खिलाना चाहिए. ऐसी उनकी सलाह थी.
भागलपुर के ‘तपोवर्द्धन प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र’ में अनेक साध्य और असाध्य बीमरियों के मरीज़ों को अँगूर के पूर्णकालिक आहार पर रखकर निरोगी बनाया जाता है. सिर्फ़ अँगूर के भोजन पर रहकर दुनिया की तमाम बीमारियों को ठीक किया जा सकता है. कैंसर, ब्रॉन्कल अस्थमा, लीवर की अनेक बीमारियां- फ़ैटी लीवर, लीवर सिरॉसिस आदि-आदि में इससे बहुत आराम मिलता है. इसी तरह त्वचा की कई तरह की बीमारियां जैसे एक्ज़िमा, सोराआइसिस, मोटापा, दुबलापन, किडनी की अनेक बीमारियां भी अँगूर के पूर्ण भोजन से ठीक की जाती हैं. सबसे मज़ेदार है- डायबिटीज़.
डॉ. जेता सिंह मुझे बताते हैं कि सुनने वालों को सुनकर अजीब सा लगेगा लेकिन यह एक सच्चाई है कि डायबिटीज़ के रोगी भी पूर्णकालिक अँगूर डाइट से बिलकुल दुरुस्त हो जाते हैं. इसमें कोई शक़ नहीं कि इसके पूर्णकालिक सेवन से शुरू में शुगर लेबल ऊपर की तरफ भागता है लेकिन बाद में नॉर्मल हो जाता है और पेन्क्रियाज़ नियंत्रण में आ जाते हैं. इस तरह ब्लड शुगर कण्ट्रोल हो जाता हैं.
इन उपचारों में पूर्णकालिक अँगूर खाने के कुछ दिन बाद जब मल का रंग काला हो जाए तो मान लेना चाहिए कि ख़ुराक़ अब पूरी हो चुकी है और इसे रोक देना चाहिए. कैंसर के मरीज़ को हर दिन 5-6 किलो तक अँगूर खाने के बाद ही आगे चलकर यह नौबत आती है लेकिन बाकी बीमारियों में डेढ़ किलो खाने के बाद से ही.
चिकित्साशास्त्र के प्राचीन आचार्य वाणभट्ट अँगूर के रस से रोगी की आँतों और गुर्दों की कार्यक्षमता बढ़ाते थे. यह रस उस समय से ही मृत हो चुके ‘नेफ्रॉन्स’ (किडनी के फिल्टर्स) का पुनरुद्धार करता आया है. सुश्रुत संहिता में अँगूर के रस को बहुत पुष्टिकर माना गया है. यह क्षय रोग (टीबी) की बीमारी से भी निजात दिलाने वाला बताया गया है. डायरिया (पेचिस) के रोगियों के लिए भी यह बहुत लाभदायक है. अधिकांश विटामिन और खनिज लवण इसके ऊपरी छिलके में होते हैं अत: इसे छिलके समेत खाने से आँतों में बल और सक्रियता आती है. यह कब्ज को दूर करने में भी मददगार है. रक्त निर्माण में अँगूर का रस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. कुछ साल पहले शिकागो के तीन डॉक्टरों ने बताया कि दस आउंस अंगूर के रस का सेवन किया जाए तो इससे एनीमिया (रक्ताल्पता) रोग कुछ दिनों में दूर हो जाता है. अँगूर के सेवन से चेहरे पर लालिमा, कांति और ओज आ जाता है. अंगूर की ग्लूकोज पचा-पचाया भोजन है, इसलिए इसको पचाने में शरीर को अपनी ताक़त ख़र्च नहीं करनी होती. होता यह है कि इसके सेवन के थोड़ी ही देर में शरीर को शक्ति, ताज़गी और स्फूर्ति मिलती है.
फिर क्या सोचते हैं? बाज़ारों में इन दिनों बहार है अंगूरों की. तो देर किस बात की? उठिए और अपने हिस्से के अँगूर जुटाइए.
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