इफ़्फ़ी डायरी : रश लाइनों की राजनीतिक चेतना और फ़िल्म प्रोजेक्टरों के नीचे दबी लारेंस विल्सन की टाई

एक
गोवा के हवाई अड्डे पर फ़िल्म फ़ेस्टिवल (इफ़्फ़ी) के लोगो वाले पोस्टर और उसमें एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया की सहभागिता के उल्लेख की बात देखकर एक उम्मीद जगी कि शायद हवाई अड्डे से इफ़्फ़ी के ठिकाने तक डेलीगेट्स को ले जाने के लिये कोई इंतज़ाम हो. एक काउंटर पर इफ़्फ़ी का लोगो और गले में लटके कार्ड देखकर इस उम्मीद को और बल मिला.
लेकिन, वहां जाने पर पता चला कि वे लोग सरकारी अफ़सरों और फ़ेस्टिवल में सरकारी तौर पर बुलाए गए मेहमानों का इंतज़ार कर रहे हैं. काफी देर से फ़ोन पर उलझे हुए एक सरदार जी आने वाले मेहमानों के बार-बार फ़्लाइट की ग़लत सूचना देने के लिए कठोर भाषा इस्तेमाल कर रहे थे, हालांकि मुझे ख़ासे नरम लहजे में सलाह दी कि गोवा टूरिज़्म का एप इस्तेमाल करके टैक्सी बुक कर लीजिए या फिर उनके काउंटर पर बात कर लीजिए. दिल्ली से आने की बात जानकर उन्होंने यह भी बता दिया कि यहां ओला-ऊबर नहीं चलती. टैक्सी एप वाले काउंटर पर खड़े सज्जन ने रेट बताए और फिर मशविरा दिया कि बाहर निकल कर टैक्सी वालों से बात कर लीजिए. कुछ सस्ता पड़ेगा. और अपने तजुर्बे से कह सकता हूं कि उनकी सलाह एकदम सही थी.
दो
टैक्सी चल पड़ी. ड्राइवर का नाम हनीफ़ था. उनका पुश्तैनी घर तो आगरा में था, लेकिन उनके अब्बा तीस साल पहले गोवा आ गए तो फिर यहां के ही हो गए. हनीफ़ भाई की बतकही से ऐसा लगा कि गोवा की टैक्सी ड्राइवरी में वह काफी पहुंचे हुए हैं. मेरा होटल ओल्ड गोवा में था. इस पर उन्होंने मेरी नासमझी पर हैरानी जताते हुए पूछा, ‘अरे, वहां कौन रुकता है? आठ बजे तो सो जाते हैं ओल्ड गोवा के लोग.’बक़ौल हनीफ़, मुझे अपने होटल की बुकिंग कैंसिल कराकर बाघा या कलंगुट में होटल बुक करा लेना चाहिए था. क्योंकि वहां रात भर रौनक रहती है और गोवा का मतलब ही कलंगुट या बाघा है. मैंनेउन्हें समझाया कि अब बुकिंग कैंसिल करने से मुझे नुकसान होगा.

बात चली तो मैंने उनसे पूछा कि एक समय में गोवा के लोगों को पुर्तगाल जाने का बड़ा चस्का था. ख़ासतौर पर इसाई समुदाय के लोगों में. (गोवा में 1961 के पहले पैदा हुए लोग और उनके बच्चे पुर्तगाल का पासपोर्ट या वहां की नागरिकता ले सकते हैं). इस पर हनीफ़ ने ज़ोर का ठहाका लगाया. फिर बोले, ‘अभी भी जाना चाहता है ये लोग, लेकिन अभी पुर्तगीज़ लोग कह रहा है कि उधर गोवा में ही रह. इधर गर्दी न मचा.’हनीफ़ ने थोड़ा इतिहास पर भी रोशनी डाली. बताया कि पुर्तगाल के लोग जब यहां थे तो बहुत सारे लोग पुर्तगीज़ पासपोर्ट के चक्कर में क्रिश्चियन बन गए. मैंने कहा कि अब जब वे क़ानूनन पुर्तगाल का पासपोर्ट ले सकते हैं तो गर्दी क्या मचाना? ऐसे तो गोवा में भी यूपी, बिहार और बंगाल के लोगों ने भी गर्दी ही मचा रखी है. हनीफ़ मियां का जवाब था, ‘गोवा का मामला दूसरा है. यहां का लोग काम नहीं करना चाहता. उनको अपना रिसोर्ट, होटल, टैक्सी का धंधा या नाइन टू फाइव का नौकरी मंगता. मेहनत का काम नहीं होता. तो वर्कर लोग को बाहर से आना ही पड़ेगा. अभी आप होटल में देखना. सब यूपी-बिहार का लोग ही मिलेगा.’हनीफ़ की बात सही थी. होटल में सबसे पहले ही मिले दो जनों में से एक बंगाल के थे और दूसरे असम के. मैनेजर से तो सुबह मुलाक़ात हुई. वह ज़रूर गोवा के थे. लेकिन, पड़ोस के ही सागर रत्ना में साउथ इंडियन परोस रहे वेटरों में हर तीसरा बिहार या बंगाल का ही था.

तीन

सवेरे फ़ेस्टिवल का डेलीगेट कार्ड लेने कला अकादमी पंहुचे. अतिशय विनम्रता के प्रशिक्षण के बावजूद वहां के माहौल में चिक-चिक, झिक-झिक और झांय-झांय पर्याप्त मात्रा में थी. मीडिया के काउंटर पर भीड़ कम थी, लेकिन फिर भी चिक-चिक, झिक-झिक में वह पर्याप्त योगदान कर रहा था. कला अकादमी परिसर में एक सज्जन ने इस बात पर ग़ौर फ़रमाया कि फ़ेस्टिवल की सिक्योरिटी सिर्फ़ गोवा पुलिस के हवाले है. मैंने उन्हें याद दिलाया कि कुछ साल तक तो फ़िल्म फ़ेस्टिवल की सिक्योरिटी में सीआईएसएफ तैनात रही थी. मेरी बात का सहारा पाकर उन्होंने अपनी बात को और ज़ोरदार बना लिया. बोले – हां, आर्टिस्ट, इंटेलेक्चुअल की चिंता कौन करता है?फिर सुरक्षा संबंधी उनकी चिंता खाद्य सुरक्षा तक पहुंची और उन्होंने कला अकादमी की कैंटीन को ख़राब और अन-हाइजेनिक घोषित कर डाला.

चार
खान-पान अपनी जगह था. लेकिन, फ़िल्म फ़ेस्टिवल में तो आप फ़िल्म देखने जाते हैं. टिकट हासिल करने का ऑनलाइन इंतज़ाम था. ऑनलाइन टिकट हासिल करने की कोशिश की लेकिन वहां उस दिन की किसी भी फ़िल्म के टिकट उपलब्ध नहीं थे. लाइन में भी टिकट नहीं मिला. हां, यह सलाह ज़रूर मिली कि आज रात को बैठकर तीन-चार दिन के शो बुक कर लीजिए. सो पहला दिन यूं ही गुजरा. नेशनल फ़िल्म आर्काइव ने इफ़्फ़ी के पचास साल पूरे होने पर एक प्रदर्शनी लगाई थी. इफ़्फ़ी और भारतीय सिनेमा का इतिहास बताने वाले कुछ पोस्टर सचमुच देखने लायक़ थे. मगर एलईडी की चकाचौंध ऐसी थी कि कुछ देर बाद मन ऊब गया. किसी स्कूल से बच्चे फ़िल्म फेस्टिवल में शरीक होने आए थे. कुछ बातचीत हुई. बच्चों के बीच जो चर्चा चल रही थी, उससे यह लगा कि वे उनकी दिलचस्पी दरअसल फ़िल्म या इतिहास में नहीं थी. वे सब तो किसी हीरो-हीरोइन से मुलाक़ात के तलबगार हैं. लेकिन, उन्हें भरोसा नहीं था कि जो टीचर उन्हें वहां लाए थे, वे किसी सेलीब्रेटी से उनकी मुलाकात करा पाएंगे.
रखरखाव और पानी के स्टाल पर खड़े कुछ लोगों की बातचीत का लहजा पूरब का लगा तो उनसे बतियाना शुरू किया. उनमें से भी ज्यादातर बिहार-बंगाल के थे. कुछ उड़िया भी. गोवा में रोजी-रोटी की तलाश में किसी न किसी काम में लगे थे. इफ़्फ़ी में रोज के 1200 रुपये मिले तो दस दिन के लिए यहां आ गए. कला, साहित्य के उत्सव भी अपने भीतर कितनी-कितनी कहानियां छुपाये रखते हैं. मुझे लगा कि गोवा के प्रवासियों में बिहार, बंगाल और उड़ीसा की तुलना में उत्तर प्रदेश का प्रतिशत काफी कम है. लेकिन, पंजिम बस स्टैंड पर बस से उतरे एक जत्थे को ठेठ प्रतापगढ़ी बोलते सुना तो यह भ्रम भी दूर हो गया.

पांच
घूमते-बतियाते उत्सव में लगे स्टॉल पर भी जाना ही था. प्रकाशन विभाग के स्टॉल पर प्रधानमंत्री की लिखी ‘एग्ज़ाम वॉरियर्स’ बिक रही थी. प्रसार भारती की ओर से ‘मन की बात’ के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे और सुझाव देने के लिए वहां एक पेटी भी रखी मिली. भारतीय संगीत के उस्तादों की डीवीडी हर बार ही फ़ेस्टिवल में दिखती हैं. लेकिन उन्हें बेचने के लिए बैठाए गए लोग हमेशा ही उकताए हुए लगते हैं. और क़द्रदान भी वहां कब दिखाई देते हैं? इन्हीं स्टॉलों पर घूमते हुए लारेंस विल्सन मिल गए. लारेंस विल्सन ने पुराने फ़िल्म प्रोजेक्टर, कैमरे और पोस्टरों की एक प्रदर्शनी लगा रखी थी. फ़िल्मों में इस्तेमाल होने वाले पुराने कैमरे, ग्रामोफ़ोन रिकार्ड जैसी तमाम चीजें उनके संग्रह में हैं. और सबसे अच्छा था कि वह पूछने पर हर चीज़ के बारे में मन से बताते थे. सरकारी स्टॉलों की ऊब यहां आकर टूटती है. शायद यही वजह थी कि वहीं पीछे बिरयानी के एक स्टॉल को छोड़ दिया जाए तो विल्सन का स्टॉल सबसे ज्यादा गुलज़ार था.
लारेंस विल्सन कभी गोवा की एक खनन कंपनी में मुलाज़िम थे. लेकिन फ़िल्म का शौक था. प्रोजेक्टर उन्हें हमेशा आकर्षित करते थे. शौकिया तौर पर उन्होंने प्रोजेक्टर वाले दौर में एक हाथ से घुमाने वाला प्रोजेक्टर खरीदा और घर में ही आइने में फ़िल्म रील देखने का जुगाड़ बनाया. बाद में माइनिंग कंपनी की नौकरी नहीं रही. ऐसे में प्रोजेक्टर का शौक मददगार बना. वे बताते हैं कि पहले क़स्बों और ग्रामीण इलाकों में सिनेमाहॉल नहीं थे. ऐसे में फिल्मों के वितरण से जुड़े लोग अस्थायी थिएटर बना ताज़ा रिलीज़ फ़िल्में दिखाते थे. मराठी, हिंदी, और तेलगू सिनेमा में ऐसा ख़ूब होता था. लारेंस ऐसी ही एक टीम से जुड़े और फिर यही लंबे समय तक उनका पेशा भी रहा. उन्होंने बताया कि 70 के दशक में गांव-कस्बों में एक फ़िल्म के तीन शो दिखाने पर 100 रुपये मिल जाते थे. बाद में यह आमदनी बढ़कर तीन सौ रुपये हो गई.
शौक के चलते ही उन्होंने रिजेक्टेड प्रोजेक्टर, कैमरे और फ़िल्म से जुड़ीं बहुत सी चीजें जुटा लीं. वितरकों से रिश्ते के चलते ये तमाम चीज़ें उन्हें सस्ते में मिल गईं, यह बात वह बड़े चाव से बताते हैं. लारेंस कहते हैं कि यह शौक के लिए ही था फिर उन्हें ख़्याल आया कि फ़िल्म तकनीक के इस गुज़रे ज़माने के बारे में नई पीढ़ी को भी कुछ बताया-दिखाया जाए. इसलिए इफ़्फ़ी आए. पहले भी कुछ मराठी और कोंकणी फ़ेस्टिवल में उनकी यह प्रदर्शनी लग चुकी है. एक डोनेशन बॉक्स भी रखा था, जिस पर ऐसी चीज़ों को संजोने के लिए आर्थिक मदद की अपील लिखी हुई थी. शम्मी कपूर, भगवान दादा से अपने परिचय को लारेंस उतने ही चाव से बताते हैं, जितना प्रोजेक्टर से फ़िल्म दिखाने के तरीकों को.
पैंट-शर्ट और स्लीपर पहने लारेंस हमें अपने संग्रह को बता और दिखा रहे थे. हमने कैमरे के सामने बात करने की गुज़ारिश की तो एक मिनट ठहरने को कहकर वह अंदर की तरफ़ गए. मेज पर सजे फ़िल्म प्रोजेक्टर के नीचे हाथ डालकर कहीं से टाई निकालकर बांधी, फिर कोने में टंगा कोट उतारकर पहना. पैरों में हवाई चप्पल अब भी थी. इसलिए उन्होंने अनूप को और मुझे भी ताक़ीद की कि वीडियो के फ़्रेम में चप्पल नहीं दिखनी चाहिए. शायद फ़िल्म वालों के साथ रहने की वजह इस क़िस्म की एहतियात सलीक़ा भी आ जाता है कि कैमरे के सामने कैसे जाया जाय? 75 बरस के हो रहे विल्सन से मिलना किसी सुंदर फ़िल्म देखने जैसा ही अनुभव था.

छह
फ़िल्मों के टिकट की ऑनलाइन बुकिंग में असफलता ही हाथ लगी. अगले दिनों के टिकट अंदाज़ से बुक कराने का आइडिया भी बहुत जंचा नहीं. तो अनूप सिंह ने इसका तरीका यह निकाला कि आइनॉक्स-वन के सामने फ़िल्म शुरू होने आधे-पौन घंटे पहले खड़े हो जाएं. वहां गोवा की लोकल मीडिया दर्शकों से जानना चाह रही थी कि जो फ़िल्म देखने जा रहे हैं, वह क्यों देखने जा रहे हैं? ऐसे ही एक सवाल पर अनूप ने हाथ खड़े कर दिए. बोले – आई हैव वेरी स्ट्रांग पॉइंट. कैमरे और माइक वाला लपक कर अनूप की तरफ़ आया. अनूप के अंग्रेज़ी जवाब का तर्जुमा कुछ यूं था – ‘देखिए, हमारे पास टिकट है नहीं. रश लाइन में खड़े हैं. आइनॉक्स वन में सबसे ज्यादा सीट्स हैं. इसलिए उम्मीद है कि कुछ सीट्स बचेंगी और यहां एंट्री मिल जाएगी. बाकी कुछ ख़ास वजह नहीं है.’लाइन में खड़े पसीज रहे लोगों के बीच ठहाके फूट पड़े और मीडिया वाले हिरन हो गए.

सात
फ़ेस्टिवल में चर्चा-परिचर्चा के लिए मुक़र्रर जगहों पर कितनी चर्चा हुई राम जाने. लेकिन रश लाइन में खड़े लोग चर्चा-परिचर्चा के सहारे इंतज़ार का वक़्त काट रहे थे. कोई महाराष्ट्र के राजनीतिक घमासान का अपडेट देता तो कभी फ़िल्म फ़ेस्टिवल की अव्यवस्था पर बात होने लगती. इन क़तारों में चुपचाप खड़े होकर सुनना एक क़िस्म का प्रबोधन था. मसलन, महाराष्ट्र की राजनीति से शुरू हुई बात शिवाजी तक पहुंची और फिर पेशवाई भी लपेटे में आ गई. और विषय मराठा बनाम पेशवा हो गया. जिसकी पृष्ठभूमि में फडणवीस बनाम शरद पवार का संगीत बज रहा था. ऐसे ही परवान चढ़ती किसी बहस में कोई पूछ बैठता- आपने ‘घासीराम कोतवाल’देखा है. फ़िल्मों में राजनीतिक चेतना का आधिक्य तलाशने वाले इन क़तारों को देख ज़रूर ख़ुश होते.
कई बार बहस आईनॉक्स थिएटर और एंट्री गेट्स के सामने खड़ी कुछ लड़कियों की पोशाक को लेकर भी हुई. दरअसल, कुछ टिकट चेकिंग या अन्य कामों में लगी कुछ लड़कियों ने सर पर स्कार्फ बांध रखे थे और उनके पहनावे के चलते ऐसा लग रहा था कि वे मुसलमान हैं. कइयों की आपत्ति इस बात पर थी कि फ़िल्म फ़ेस्टिवल जैसी जगह पर इस तरह की धार्मिक पहचान वाली पोशाक का क्या मतलब है? कुछ के सवाल यह थे कि यह अगर धार्मिक पोशाक भी है तो यह भारतीय पहनावा नहीं है. यह तो अरबी तरीके की पोशाक है. पहनने-ओढ़ने में स्वतंत्रता के हिमायती भी इस बहस में शरीक होते थे और मेरे को क्या फ़र्क पड़ता है, कोई कुछ भी पहने वाले भी.
फ़िल्म फ़ेस्टिवल में कई दफ़ा जाना हुआ है, लेकिन पहली बार मैं लाइनों में इतनी देर तक खड़ा रहा. कुछ मजूबरी के चलते और फिर कुछ दिलचस्पी के चलते भी. इन लाइनों में खड़े होने का अनुभव कुछ यूं रहा कि लाइन वहीं से शुरु नहीं होती है, जहां अमिताभ बच्चन खड़े होते हैं. बल्कि लाइन में खड़ा हर शख़्स अपने आप में पूरी क़तार होता है.

आठ
मीरामार बीच पर ओपन एयर स्क्रीनिंग के दौरान एक कोंकणी फिल्म दिखाई जा रही थी. समंदर किनारे बैठे गोवा के एक बाशिंदे से हमने पूछा कि आप फ़िल्म नहीं देख रहे. यह तो कोंकणी फ़िल्म भी है. इस पर उनका जवाब था, ‘सभी फ़िल्म का शूटिंग गोवा में होता है. मैं तो गोवा में रहता ही है. मैं क्यों देखेगा फ़िल्म. गोवा खुद ही अपने आप में फ़िल्म है.’ और फिर वे अंधियारे में लहलहाते समुद्र की ओर ताकने लगे.

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