सब कुछ कैसा टूटा-बिखरा लगता था..

• क्वारंटीन में काम करते करते तकरीबन एक महीना हो लिया. सैकड़ों लोगों से मिले, बातें कीं, उनके डर को जाना और दुःख को भी. ऐसा भी लगा कि कई मर्तबा बीमारी इतनी ख़तरनाक नहीं होती जितनी उसके होने का कलंक और इर्द-गिर्द पनपा दी गईं आशंकाएं. आज फिर एक और क्वारंटीन सेंटर जाना हुआ, वह भी पहली बार.

दिन का समय था और सूरज हमारे सर पर चढ़ कर बोल रहा था. हमको अस्पताल से लेने गाड़ी आ चुकी थी. लगभग दस मिनट बाद हम चल दिए उस नए क्वारंटीन सेंटर की ओर, जहाँ हम आज तक नहीं गए थे. तपती हुई गाड़ी चलती ही जाती थी इतनी कि अब ऊब होने लगी कि आख़िर इस भरी गर्मी में कब और कहां रुकेगी? वह आख़िर रुकी और हमको एक बहुत व्यवस्थित और साफ़-सुथरे अस्पताल तक पहुंचा बैठी. निकलने से पहले हमको बताया गया था कि हमें यही कोई बीसेक लोगों का, जिन्हें क्वारंटीन किया गया है, मानसिक स्वास्थ्य परीक्षण करना है और उन्हें भावनात्मक समस्याएं न हों इसलिए मनोवैज्ञानिक परामर्श उपलब्ध कराना है. जब अस्पताल पहुंचे और वहां के प्रभारी चिकित्सक से बात हुई तो हमारा लक्ष्य बड़ा हो चुका था. यानि अब हमको तक़रीबन दो सौ लोगों के बीच काम करना था, जो विदेश से आए भारतीय हैं, जिन्हें यहाँ लाकर क्वारंटीन कर दिया गया है और जिनमें से कई लोगों को अपनी कोविड-19 की टेस्ट रिपोर्ट आने का भी इंतज़ार है. ख़ैर काम तो करना ही है, यह सोच कर हमने ख़ुद को तैयार कर लिया.

• अब अस्पताल से क्वारंटीन सेंटर पहुंचने की कवायद और औपचारिकताएं शुरू हुईं, जो घंटे भर से अधिक चलीं. अब हम सेंटर तक पहुंचने के लिए अस्पताल से दूसरी गाड़ी में सवार हुए. ये गाड़ी भी चलती जाती थी. बीच में चेकपोस्ट आते, जहां हमारे ड्राइवर को उतरकर ब्रीफ़िंग करनी पड़ती और वह अपने उच्च अधिकारियों से हमको लेकर आगे तक जाने की अनुमति देते. ऐसा करते हुए हमको लगभग बीस मिनट और चलना पड़ा और गाड़ी ने हमको क्वारंटीन सेंटर के क़रीब उतारा, जहां से लगभग पांच-सात मिनट पैदल चल कंटीले तारों की बाड़ के पार जा कर अब हम सेंटर तक पहुंच सके.

पूरा परिसर मानो गुस्ताव क्लिम्ट की अनूठी पेंटिंग “ओल्ड वुमन” सा लगता था. परिसर काफ़ी विशाल था और गार्ड्स व केयरटेकर्स के होते हुए भी बिलकुल चुप सा था. कुछ देर में लगने लगा कि यहां हवा भी शोकवस्त्र पहन कर धीमे-धीमे चल और रुक रही है.

• हमको वहीं एक कमरे में ले जाया गया जहां एक डॉक्टर और एक उच्च अधिकारी ने वहां क्वारंटीन किए लोगों के बारे में बताया और कहा कि ये तकरीबन दो सौ लोग हैं, जिनमें से कई लोगों की रिपोर्ट्स आ चुकी हैं लेकिन कुछ लोगों की रिपोर्ट नहीं आई हैं. इसलिए अभी आप किसी की व्यक्तिगत तौर पर जांच नहीं कर सकते और फेस टू फेस काउंसलिंग भी नहीं दी जा सकती क्योंकि इनमें से लगभग सभी लोग न ठीक से इंग्लिश जानते हैं और न हिन्दी. लगभग सभी लोग दक्षिण भारत या पश्चिम बंगाल या कई अन्य जगहों से हैं, जहां हिन्दी नहीं बोली जाती फिर भी कुछ लोग टूटी-फूटी हिन्दी और इंग्लिश समझ लेते हैं. वे सारे लोग अलग-अलग बैरक में बने कमरों में हैं, इसलिए बेहतर होगा कि यहां लगे ऑडियो सिस्टम के ज़रिये आप उन लोगों को कुछ हिन्दी और कुछ अंग्रेज़ी में कोविड-19 से सम्बद्ध मानसिक और भावनात्मक समस्याओं पर जागरूक करें.

पहले मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि लोग कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखते तो किसको संबोधित किया जाए लेकिन माहौल कई क़िस्म के अंदेशों से भरा था इसलिए मैंने माइक पर आकर बात करना मंज़ूर कर लिया. अब मैं ऑन माइक के सामने था और मेरे सामने एक बहुत बड़ा शीशा (मिरर) जिसमें मैं और माइक दोनों दिखते थे यानि मैं अब ख़ुद से ही मुख़ातिब था. लगभग 15 मिनट माइक पर मेरी आवाज़ कोविड-19 की जागरूकता, उससे संबद्ध मानसिक और भावनात्मक समस्याओं की पहचान और नियंत्रण की संक्षिप्त जानकारी ले कर माइक से बाहर उड़ती रही. किसको कितनी पल्ले पड़ी, यह नहीं कहा जा सकता. फिर अनाउन्स किया गया कि मेरे वक्तव्य के आधार पर यदि कुछ लोग महसूस करते हैं कि उनको कुछ भावनात्मक समस्याएं हैं तो वे अपने बैरक से निकल लॉन में आ जाएं, जहां उनकी समस्याओं को खड़े-खड़े सुन कर ब्रीफ़ इंटरवेंशन दिया जा सकता है.

• एक कमरे में जाकर हमने लगभग 45 डिग्री के क़रीब तापमान में बेरहम पीपीई किट पहने और कुछ देर में हम लोग बैरकों के बीचों बीच थे. शायद बारह बैरक थीं, जिनके उनके अपने कमरे और कमरों के बाहर खड़े बैठे इक्का-दुक्का लोग दिखते थे. हमारे साथ लगे हुए कुछ हेल्पर्स ने लोगों को बैरक के कमरों से बाहर आने को कहा. कम लोग ही बाहर आए, उनमें से भी अधिकांश सशंकित, उदास या तनाव में दिखते थे. ये सभी लाइन बना कर कंटीले तारों की बाड़ के उस तरफ़ खड़े हो गए. ये उदास आंखें लिए ग़रीब कामगार लोग थे, जो बाहर रह कर बहुत सारा काम कर थोड़ा सा पैसा और बहुत सारी असुरक्षा पाते थे. कई लोगों की ज़ेहनी कैफ़ियत पूछी लेकिन भाषा की सीमाओं के चलते उतना संवाद तो नहीं बनता था पर सभी की तरफ़ से सिर्फ़ सादा से दो सवाल समझ आते थे, “कोरोना कब ख़त्म होगा…? हम घर कब जा पाएंगे…?” लॉन में एक तरफ़ पेड़ की आड़ में एक आदमी वीडियो चैट पर शायद अपनी पत्नी से मराठी में बतियाता हुआ रोता जाता था. अपनी अनुपस्थिति में अपनी “आई” के न रहने पर दुखी था वह. लगभग चालीस से ज़्यादा लोगों से बात की टूटी-फूटी भाषा में और उससे भी ज्यादा बात हुई उदासी के वर्क़ में लिपटी मुस्कराहट के ज़रिये.

लोग असहाय हैं और वे संवाद की प्रक्रिया में आपके परे चले जाते हैं, उस तरफ़ तक जिस तरफ़ कि उनका सब कुछ था और जिसे वे पीछे छोड़ आए हैं दूर तक…बड़ी दूर तक.

• “एक तुम कि तुमको फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है/ एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े.” ये लोग इस हाल कब तक चलेंगे कुछ नहीं कहा जा सकता !!!

कवर | ओल्ड वुमन 1909, गुस्ताव क्लिम्ट

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