दिलीप कुमार | एक्टर. स्टुडेंट ऑफ़ लाइफ़

  • 1:32 pm
  • 11 December 2020

वह शख़्स दुनिया ने जिसे ‘ट्रेजडी किंग’ के ख़िताब से नवाजा, वह ख़ुद को ज़िंदगी की पाठशाला का विद्यार्थी ही मानते हैं. ट्वीटर पर दिलीप कुमार ने अपना परिचय लिखा है – एक्टर. स्टुडेंट ऑफ़ लाइफ़. और ज़ाती ज़िंदगी से लेकर सिनेमा के पर्दे तक उन्होंने अपना यह फ़लसफ़ा हमेशा साबित किया भी.

ज़िंदगी के स्कूल में सीखे अभिनय से ही उन्होंने अपने लिए वह ख़ास तरीका ईजाद किया, जिसे ‘मेथड एक्टिंग’ कहते है. शहंशाहे-जज़्बात दिलीप कुमार आज 98 साल के हो गए.
पेशावर के जिस परिवार में युसूफ़ ख़ान पैदा हुए थे, वहाँ रोज़ी के तौर पर एक्टिंग का कोई तसव्वुर तक नहीं था. उनका कुनबा पेशावर से बंबई आ गया और वालिद मोहम्मद सरवर ख़ान वहाँ क्रॉफ़र्ड मार्केट में फलों का कारोबार करने लगे. माटुंगा के खालसा कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद युसूफ़ ख़ान छोटी-मोटी नौकरी तलाशने लगे ताकि घर चलाने में अब्बा का हाथ बंटा सकें. उनके कॉलेज के दोस्त राज कपूर उनसे अक्सर कहा करते, ‘‘तुसी एक्टर बन जाओ! तुसी हो बड़े हैंडसम!’’ लेकिन युसूफ़ ने इस बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया. उनका जवाब होता कि एक्टिंग उनके बस की बात नहीं.

यह बात 1940 की है, जब वालिद से कुछ अनबन के बाद वह घर छोड़कर पूना चले गए. वहाँ आर्मी क्लब में उन्होंने सैंडविच का स्टॉल शुरू कर दिया. क्लब का कॉंन्ट्रेक्ट ख़त्म होने तक उन्होंने पाँच हज़ार रुपये बचाए लिए थे. अपनी बचत के साथ वह बम्बई लौट आए. बाद में उन्होंने बांबे टॉक़ीज़ में नौकरी कर ली. जहाँ देविका रानी ने उन्हें फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिए हीरो चुन लिया.

परिवार के उसूलों के ख़िलाफ़ फ़िल्मों में काम करना यूसुफ ख़ान के लिए नया था, देविका रानी ने उन्हें नया नाम भी दे दिया – दिलीप कुमार. 1944 में आई उनकी पहली फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ यों बहुत उल्लेखनीय नहीं रही, फ़िल्मों की राह ज़रूर खुल गई. तीन बरस आई फ़िल्म ‘जुगनू’ ने उनके कॅरिअर पर क़ामयाबी की मुहर लगा दी. इस बाद का दौर उस फ़क़ीर की बात सच साबित होने का है, जिसने उनके बचपन में उनके वालिद से कहा था, ‘‘यह बच्चा बहुत मशहूर होने और ग़ैर-मामूली ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए पैदा हुआ है.’’

बॉम्बे टॉक़ीज़ में नौकरी के दौरान उनकी मुलाक़ात अशोक कुमार, निर्माता-निर्देशक एस. मुखर्जी, अमिय चक्रवती से हुई. जिनसे उन्होंने अदाकारी के बारे में बहुत कुछ सीखा. उनकी सीख और अपने तजुर्बे से वह इस नतीजे पर पहुंचे कि “एक्टर को अपने इंस्टिंक्ट (सहज बुद्धि) को मजबूत करना चाहिए. क्योंकि असली और नकली के दोहरेपन को दिमाग से नहीं सुलझाया जा सकता. सिर्फ़ आपके इंस्टिंक्ट्स ही आपको स्क्रीनप्ले की भावनाओं को अपने दिलो-दिमाग़ में उतारकर ऐसा अभिनय करने की प्रेरणा देते हैं, जो सच्चाई और विश्वसनीयता में लिपटा हुआ हो – इस जानकारी के बावजूद कि यह सब नकली है, नाटक है!”

ज़िंदगी से और फ़िल्मों से सीखते हुए वह ख़ुद को बदलते और नया ईजाद करते रहे. उनकी अदाकारी ‘दिलीप कुमार स्कूल’ के तौर पर मशहूर हो गई. उनसे प्रभावित कितने ही अभिनेताओं में वर्षों तक इसकी झलक देखी-महसूस की जाती रही है. दिलीप कुमार जिस दौर में काम करने आए, फ़िल्मों पर ‘पारसी थियेटर’ का गहरा असर था, वह ख़ासे लाउड और नाटकीय अभिनय का दौर था. यह परिपाटी तोड़ते हुए उन्होंने बड़े ही सयंत तरीके से अपने किरदार निभाए. आहिस्तगी से संवाद बोलने और बीच में लंबी चुप्पी, जानबूझकर चुप रह जाने की अदा लोगों को ख़ूब भाती.

फ़िल्म ‘देवदास’ का ग़मगीन नौजवान, ‘गंगा जमुना’ का बग़ावती तेवर वाला ‘गंगा’, ‘नया दौर’ का जुझारू शंकर, ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का शहजादा ‘सलीम’, ‘आदमी’ के जज़्बाती नौजवान ‘राजा’ जैसे किरदार उनसे बेहतर कौन निभा सकता था. ट्रेजेडी, रोमांटिक या फिर एंटी-हीरो का किरदार, ख़ामोशी की आवाज़ और अपनी आंखों के अभिनय से वह उसमें जान फूंक देते.

कई मामलों में वह बेहद परफेक्शनिस्ट थे. फ़िल्म ‘कोहिनूर’ में ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’ गीत के दौरान सितार बजाते हुए दिखने के लिए उन्होंने उस्ताद अब्दुल हालिम जाफ़र ख़ान से महीनों सितार बजाना इसलिए सीखा कि सितार बजाते हुए वह स्वाभाविक दिखें. जब तक वह ख़ुद मुतमईन न हो जाते, एक के बाद एक टेक देते चले जाते.

अपनी ओर से हमेशा ऐसी फ़िल्में चुनने की कोशिश करते, जिसमें अवाम के लिए एक बेहतरी का पैग़ाम हो. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘‘मैंने इस बात की भरपूर से कोशिश की है कि मैं एक अच्छा रोल मॉडल बनूं. मैं इस बात से पूरी तरह यक़ीन करता हूं कि एक कलाकार को अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों की जानकारी होनी चाहिए और उसे इसके प्रति सजग होना चाहिए. उसे अपने प्रशंसकों के चरित्र-निर्माण का ध्यान रखना चाहिए. जो उसके काम और शख्सियत से प्रेरणा लेते हैं.’’

उनकी फ़िल्मों पर ग़ौर करेंगे तो बात और साफ़ हो जाएगी. ‘गंगा जमुना’ वह फ़िल्म थी, अभिनय के साथ ही जिसका निर्देशन उन्होंने और स्क्रिप्ट भी लिखी. फ़िल्म में निर्देशक के तौर पर अलबत्ता नितिन बोस का नाम था. भोजपुरी ज़बान वाली यह फ़िल्म सुपर हिट हुई और कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में इसे ख़ूब सराह गया. 1974 में आई तपन सिन्हा की फ़िल्म ‘सगीना’ को भी इसी श्रेणी में रख सकते हैं.

उस दौर के अदीबों और दानिश्वरों के साथ ही सियासी लीडरों को भी उन्होंने मुत्तासिर किया. मशहूर अफ़सानानिगार कृश्न चंदर ने अपने एक लेख ‘फ़िल्मों की आबरू : दिलीप कुमार’ में उनकी अदाकारी के बारे में लिखा, ‘‘दिलीप कुमार का अपना रंग है, जुदा लहजा है. मख़्सूस (विशेष) तर्जे-अदा है. दिलीप कुमार की अदाकारी की सत्ह आलमी सत्ह की है. यूं तो दिलीप ने तरबिया (सुखान्त) अदाकारी में भी अपने जौहर दिखाए हैं, लेकिन हुज्निया और अल्मीया (दुखांत) अदाकारी में दिलीप ने एक क्लासिक का दर्जा इख्तियार कर लिया है. इस मैदान में कोई उसे छू नहीं सका.’’ जिनका दिलीप कुमार की एक्टिंग से ज़रा-सा भी तआरुफ है, वे उनकी इस बात से पूरी तरह इत्तेफ़ाक़ रखते हैं.

नज्म निगार और ड्रामानिगार नियाज़ हैदर भी दिलीप कुमार की प्रतिभा के दीवाने थे. अपने लेख ‘फ़िल्मी सल्तनत का मुग़ले-आज़म’ में उन्होंने लिखा था,‘‘दिलीप कुमार की किरदार निगारी ने नई नस्ल के लिए एक बड़ा वरसा (धरोहर) जमा कर दिया है. दिलीप कुमार की अदाकारी एक मक्तब (स्कूल) है, जिससे नई नस्ल के अदाकारों को हमेशा फ़ैज़ पहुंचता रहा है और आइन्दा भी वह मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) होते रहेंगे.’’

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और दिलीप कुमार के बीच आपसी एतराम का गहरा रिश्ता बना. नेहरू उनकी अदाकारी के मुरीद थे और वह नेहरू के विचारों से मुत्तासिर. 1962 के लोकसभा चुनाव में नेहरू ने जब उनसे वी.के. कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार के लिए कहा, तो वह इंकार नहीं कर सके. तमाम चुनावी सभाओं में दिलीप कुमार ने शिरकत की. वी.के. कृष्ण मेनन ने जे.बी. कृपलानी को चुनाव में मात दे दी. कांग्रेस से वह आगे भी जुड़े रहे. दिलीप कुमार के लिए सियासत में हिस्सेदारी का मतलब इंसानियत और अवाम की ख़िदमत था और उन्हें यह बेहद पसंद था.

जब भी देश में भूकंप, बाढ़ या अकाल जैसी आपदाएं आईं, तो वह सरकारी राहत कोष के लिए चंदा इकट्ठा करने की मुहिम में लग जाते. लेकिन सक्रिय राजनीति से हमेशा दूर ही रहे. अपने दोस्तो रजनी पटेल और शरद पवार के इसरार पर उन्होंने मुम्बई का शेरिफ बनना मंजूर किया. आगे चलकर महाराष्ट्र से राज्यसभा के मेंबर भी रहे. राज्यसभा सदस्य के तौर पर बंबई में स्वास्थ्य, शिक्षा और बुनियादी कामों को पूरा कराने के लिए हमेशा पेश-पेश रहे. वे नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन के कई सालों तक अध्यक्ष रहे और इसके लिए हर साल चंदा इकट्ठा करते थे ताकि अशक्त लोगों की मदद हो सके.

उन शौक उनके ज़ौक़ की बढ़िया नज़ीर हैं. बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक रहा तो उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी अदब ख़ूब पढ़ा. उम्दा शायरी, क्लासिकल म्यूज़िक, डांस आदि में भी उनकी दिलचस्पी रही. अपने फ़न को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने कई ज़बानें सीखीं. अदाकारी हो या सार्वजनिक जीवन उन्होंने हमेशा भारतीय जीवन मूल्यों, बहुलतावादी चरित्र की देश-दुनिया में नुमाइंदगी की. धर्म-निरपेक्षता और समाजवाद में उनका गहरा यक़ीन है. दुनिया भर के धर्मों, जातियों, समुदायों और नस्लों को एहतराम की नज़र से देखते हैं.

वह पहले ऐसे अदाकार हैं, जिन्होंने अपने समकालीनों और बाद की पीढ़ी के अदाकारों को यह राह दिखाई कि राष्ट्रीय संकट के दौर में सरकार के राहत कोष के लिए चंदा इकट्ठे के लिए स्टारडम का इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं बल्कि यह उनकी सामाजिक जिम्मेदारी है. समाज को उसका देय लौटाने का वक़्त. जब भी जरूरत पड़ी, उन्होंने जुलूसों, बेनिफिट मैचों और शो के जरिए चंदा इकट्ठा किया. बंबई में फ़िल्म सिटी और नेहरू सेंटर उन्हीं की कोशिशों से मुमकिन हुआ.

‘पद्मभूषण’ और ‘पद्म विभूषण’, ‘दादासाहेब फाल्के सम्मान’, ‘एन. टी. रामाराव पुरस्कार’, रामनाथ गोयनका पुरस्कार, ‘राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार’ और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के तौर पर उन्हें आठ बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला. सन् 1998 में जब उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ देने का एलान हुआ, तो शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने फ़तवा जारी कर दिया कि दिलीप कुमार को यह सम्मान नहीं लेना चाहिए. उनकी वतनपरस्ती पर भी सवाल उठाए गए. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर दिलीप कुमार ने यह पुरस्कार स्वीकार किया. हालांकि सच बात तो यह है कि भारतीय सिनेमा, राजनीति और समाज सेवा के क्षेत्र में दिलीप कुमार के नाम जो बेमिसाल काम हैं, वे किसी पुरस्कार-सम्मान से कहीं ज़्यादा बड़े मालूम होते हैं.

क़रीब छह दशकों के फ़िल्मी कॅरिअर में उन्होंने 57 फ़िल्मों में काम किया. फ़िल्में छोड़े हुए हालांकि बीस-बाइस साल हुए, लेकिन उनकी अदाकारी के जादू का असर बरक़रार है. कई पीढ़ी के लोगों के लिए वह लेजेंड थे और अब भी हैं.

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