डॉक्युमेंट्री | बहुरूपियों की दुनिया
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वे कई तरह के रूप धरते हैं, नक़ल करते हैं नक़्क़ाल हैं. यह हुनर उनकी रोज़ी है तो लोगों को हंसाते हैं मगर वे मसखरे या विदूषक भर नहीं. वे बहुरूपिया हैं. ग़ौर करें तो बहुरूपिया हमारे दौर का सबसे असरदार रूपक भी हैं.
उन्हें न तो वैनिटी वैन दरकार है, न ही मेकअप मैन. अपने हुनर की नुमाइश के लिए उन्हें डायरेक्टर की ज़रूरत भी नहीं और न ही किसी डुप्लिकेट की. वे तो ख़ुद ही हमारे चेतन-अवचेतन में बसी कितनी ही छवियों के डुप्लिकेट की भूमिका में होते हैं. अलबत्ता, उनका रियाज़ और हुनर इस क़दर सधा हुआ होता है कि असल से कम भी नहीं लगते. रूप बदलने, भेष धरने और कायांतरण का यह कौशल उन्हें घुट्टी में मिलता आया है.
इस दौर में जब मनोरंजन की दुनिया फ़ोन और कम्प्यूटर के स्क्रीन तक महदूद हो चली है, उनके वजूद पर ख़तरे की घंटी टनटना रही है. कौन जाने अपने बच्चों को यह घुट्टी देने से वे भी गुरेज़ करने लगे हों.
उत्तर भारत में जो बहुरूपिया है, वही बंगाल में बहुरूपी और दक्षिण भारत में वेशधारी है – बहुभेष धरने वाला. यों बहुरूपिया अकेले ही कोई बाना धर कर निकल पड़ते हैं मगर दक्षिण भारत में वे समूह में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं. ये वेशधारी ज़्यादातर पौराणिक आख्यान या ऐतिहासिक कथाएं कहते हैं.
बहुरूपिया बहुतों के लिए कला है, एक ज़माने से उनका यह फ़न उनकी आजीविका का ज़रिया बना रहा और पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित भी होता रहा. राजस्थान, बंगाल और कर्नाटक सहित दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में पेशेवर बहुरूपिया कलाकार आबाद हुए. उनके हुनर और उनकी ज़िंदगी की कहानी कहने वाली कितनी ही कविताएं-कहानियाँ लिखी गईं.
बहुरूपिया का ज़िक्र आते ही बहुतों को विजयदान देथा की कहानी के किरदार शंकर भाँड की याद आती है, सत्यजीत रे के बहुरूपी निकुंज साहा की याद हाल के दिनों में फिर से ताज़ा हुई है. हालांकि अगर आपने ये कहानियाँ पढ़ी हैं तो शंकर भाँड और निकुंज साहा के किरदार के बुनियादी फ़र्क़ का अंदाज़ ज़रूर होगा. आजीविका और शौक़ का अंतर.
हम जानते हैं कि ये क़िस्से भर हैं, सचमुच के बहुरूपियों की असल ज़िंदगी की नुमांइदगी नहीं करते, उसकी झलक भर हैं. फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘बहुरूपिया’ शीर्षक से कविता लिखी है और कितने ही शायरों ने उन्हें ग़ज़लों-नज़्मों का विषय बनाया. सुरेंद्र मोहन पाठक ने इसी शीर्षक से उपन्यास लिखा. ये थोड़े-से उदाहरण हैं.
माया रचने वाले अय्यारों के क़िस्से इसमें जोड़ लें तो फ़ेहरिस्त और लंबी हो जाएगी. रूप बदलने और कायांतरण के उनके कौशल का असर यह कि हमारे दौर में बहुरूपिया संज्ञा से ज़्यादा विशेषण के तौर पहचाने गए. रूप धरना शौक़ हुआ. यह विशेषण धूर्तों, ठगों, फ़रेबी और छल करने वालों को मिलने लगा और ख़बरों की सुर्ख़ियों और नेताओं के भाषणों में जगह पाने लगा. मगर ख़ुद बहुरूपिये!!
अभी कुछ रोज़ पहले शमशाद से बात की. काफ़ी दिनों से उनका हाल नहीं मिला था. जो कुछ उन्होंने बताया, वह ख़ासा हौलनाक़ था. लोक कलाओं का ज़िक्र जब-तब होता रहता है कि उनका संरक्षण किया जाना है और कि विदेशों तक उसकी धूम है, वगैरह. जिस कला को बरतने में हमें कोई ख़ुशी या रोमांच की अनुभूति नहीं होती, उसका संरक्षण कैसी मजबूरी है? शमशाद ने अपना और कुनबे का पेट भरने के लिए ऑटो पार्ट्स की एक दुकान पर नौकरी कर ली है. उनके भाइयों में से एक ने मोटरसाइकिल और दूसरे ने साइकिल मरम्मत की दुकान खोल ली है.
यह छोटी-सी फ़िल्म भी उनके हुनर और उनकी ज़िंदगी की झांकी भर है.
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