भोपाल 84ः एक अनकही कहानी

  • 10:56 am
  • 2 December 2019

सन् 1984 में दिसम्बर की दूसरी रात को भोपाल के लोगों पर जो कुछ गुज़रा, उसकी कितनी ही तस्वीरें दुनिया देख चुकी है, कितनी ही कहानियां-किताबें लिखी और पढ़ी जा चुकी हैं. पर क्या सब कुछ कहा-सुना जा चुका है?

नदीम उद्दीन की डॉक्युमेंट्री फ़िल्म के हवाले से समझें तो इस सवाल का जवाब होगा – नहीं. भोपाल 84 ऐसी ही अनकही कहानियां कहने की बेचैनी का सबब है.

मुशर्रफ़ अली और उनका कैमरा.

यह 1984 के भोपाल की फ़िल्म है. मुशर्रफ़ अली ‘वेडिंग फ़ोटोग्राफ़र’ हैं. नदीम अपने कुनबे के साथ भोपाल में रहने वाले 14 साल के किशोर और जगदीश नेमा एक आस्थावान इंसान. तीन दिसम्बर की सुबह जब यूनियन कार्बाइड कारख़ाने से गैस रिसाव के बाद तीन हज़ार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी और जब लाखों लोगों की ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल गई, मुशर्रफ़ अली अपने कैमरे के वीएचएस टेप पर बदले हुए भोपाल के मंज़र दर्ज करते घूमे, कितने ही लोगों से मिले और उनकी कहानियां सुनीं. जगदीश दिन-रात सिर्फ़ इस काम में जुटे रहे कि मारे गए लोगों की अंतिम क्रिया सम्मान से संभव हो सके. दाह के साथ वह दफ़्न के इंतज़ाम में बराबर लगे रहे. उनके साथ लगे रहे लोग आते-जाते रहे मगर वह लगातार बने रहे. और यह सब किसी भयानक दुस्वप्न की तरह नदीम को हमेशा परेशान करता रहा.

जगदीश नेमा
यह बात सन् 2002 की है. नदीम उद्दीन यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थ टेक्सस से रेडियो, टेलीविज़न और फ़िल्म की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्युमेंट्री फ़िल्में बनाकर शोहरत पा चुके थे. भोपाल में किसी ने उन्हें ऐसे शख़्स के बारे में बताया, जिसने हादसे के बाद भोपाल की सड़कों पर घूम-घूमकर फ़िल्म बनाई थी मगर डर के मारे वे सारे टेप और कैमरा छुपाकर रख दिए हैं. नदीम ने ढूंढना शुरू किया और फिर एक रोज़ मुशर्रफ़ उन्हें मिल भी गए. नदीम ने जब उनके वीडियो फुटेज अपनी फ़िल्म में इस्तेमाल करने का प्रस्ताव किया तो मुशर्रफ़ को हैरानी भी हुई कि इतने बरस बाद अब उनके टेप आख़िर किस काम आ सकते हैं. बहरहाल नदीम ने उन्हें मना लिया. वीएचएस के वे टेप बहुत अच्छी हालत में नहीं थे फिर भी नदीम ने उन्हें बैंगलूर की एक लैब में इस उम्मीद से भेजा कि शायद उसमें से कुछ हासिल हो सके. और उन्हें उनकी उम्मीद से कहीं ज्यादा मिल गया. दो से तीन घंटे के काम लायक़ फुटेज मिल गए. इसे देखने के बाद नदीम ने मुशर्रफ़ और जगदीश को केंद्र में रखकर डॉक्युमेंट्री बनाने का इरादा किया. दो ऐसे लोग जिन्होंने उस दौर को जिया है, जो उस हादसे के गवाह हैं, और जिनके हवाले से उस दौर और वर्तमान की कहानी कही जा सकती है.

मुशर्रफ़ के साथ फ़िल्ममेकर नदीम.
बक़ौल नदीम, यह आम आदमी के नज़रिये से हादसे की इन्सानी गवाही है. मुशर्रफ़, जिनको न तो फ़िल्म बनाने का कोई तजुर्बा था और न ही जर्नलिज़्म का, उस हादसे को रिकॉर्ड करते रहे तो यह उनके भावनात्मक लगाव के चलते संभव हो सका. उस रात के हादसे के बारे में नए सिरे से सोचने-समझने के साथ ही यह मौजूदा दौर के लोगों के लिए शायद यह समझने का ज़रिया भी बन सकेगा कि जिन लोगों ने उस विभीषिका को मौक़े पर रहकर देखा है, उनकी और हज़ारों-हज़ार लोगों की ज़िन्दगी पर इसका क्या असर पड़ा? माया ऐंजेलो के हवाले नदीम कहते हैं, ‘इससे ज्यादा तकलीफ़देह भला और क्या होगा कि आपके पास कोई अनकही कहानी है और आप उसे अपने भीतर छुपाये घूम रहे हैं.’ कहते हैं, ‘यही वजह है कि इस कहानी के लिए मैं बार-बार लौटता रहा. एक फ़िल्ममेकर के नाते अपनी सामर्थ्य और माध्यम का इस्तेमाल करके मैं सिर्फ़ आईना दिखा सकता हूं. दुनिया में और हमारे अंतस में भी अंधेरा है. मुझे लगता है कि इस अंधेरे का सामना करके ही हम ज्यादा रोशनी पा सकते हैं.’
नदीम के फ़िल्म बनाने के दौरान मुशर्रफ़ और जगदीश क़रीब तीस बरस बाद फिर उन जगहों पर जाते हैं, अंत्येष्टि की जगह, यूनियन कार्बाइड के कारख़ाने में और शहर के तमाम इलाक़ों में. फ़िल्म में कोई शख़्स कहता सुनाई देता है, ‘छोटी-मोटी क़यामत थी वह.’ उस हादसे से प्रभावित लोगों की न्याय पाने की लड़ाई अब भी जारी है और उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी है. यह फ़िल्म ऐसे बहुतेरे लोगों की उम्मीदों की तर्जुमानी भी है. ‘भोपाल 84’ का प्रीमियर तीन दिसम्बर को भोपाल श्यामला हिल्स पर मानस भवन में होगा. समय 6.30 बजे हैं. नदीम उद्दीन भी इस मौक़े पर वहां रहेंगे.


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