पुस्तक अंश | ढाई चाल

  • 8:28 am
  • 23 October 2021

नवीन चौधरी का नया उपन्यास ‘ढाई चाल’ हाल ही में छपा है. मार्केटिंग-ब्राडिंग की दुनिया के पेशेवर नवीन का प्रिय विषय राजनीति है. उनके पिछले उपन्यास ‘जनता स्टोर’ के केंद्र में छात्र राजनीति थी और नए उपन्यास का विषय भी राजनीति ही है. राजकमल प्रकाशन से छपी ‘ढाई चाल’ का एक अंश,

1 अगस्त, 2000
उस बड़े आँगन में देग में पक रही बिरयानी की ख़ुशबू ऐसी थी कि कोई शाकाहारी व्यक्ति भी एक बार को रुककर होंठों पर जीभ फिरा ले मगर 21 साल के एजाज़ हुसैन ने एक बार भी नज़रें उधर न घुमाईं. वह आँगन से होता तेज़ी से सीढ़ियाँ चढ़ा और बोला-“ सब खेह रे आपीने सुभाष यादव को मरवाया.”

पठानी कुर्ता-पाजामा पहने लम्बी दाढ़ी, अधपके बाल वाला शाहिद हुसैन हाथ में पुराने ज़माने का रेडियो लिये उसकी ट्यूनिंग सेट कर रहा था. उसने अपने बेटे एजाज़ की बात को अनसुना करते हुए सवाल किया- “ आपीने नहीं, आप ही ने…खेह रहे नहीं, कह रहे…ज़ुबान साफ़ करो, आगे चलकर चुनावी भाषण देने हैं. ऐसी ज़ुबान में भाषण दोगे तो कोई नहीं समझेगा.”

एजाज़ ने भी बाप की बात अनसुनी करके कहा- “ आप सुन रे हो…मैं क्या बोल रा हूँ. लोग खेह रे कि ये एक्सिडेंट आपने करवाया है.”

एजाज़ की बात पूरी हो कि तभी रेडियो पर गाना बज उठा- ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना…’ गाना बजते ही शाहिद हुसैन ने मुस्कुराते हुए रेडियो को रखा और एजाज़ के क़रीब जाकर बोला- “मेहमानों को शाम का बुलावा पहुँच गया?”

“सरकार खेह री मामले की जाँच होगी.”

एजाज़ की आवाज़ में तनाव था मगर शाहिद अब भी निश्चिंत था. उसने शान्त भाव से कहा-“सुन कितना प्यारा गाना है. आज भी विविध भारती पर जो पुराने गाने आते हैं वैसा रस आजकल के गानों में नहीं. तुम लोग न जाने कैसे कान फाड़ने वाले बेसुरे गाने टेप रिकॉर्डर पर सुनते रहते हो.” पिता द्वारा उसकी बातों को इस तरह अनसुना करने से एजाज़ को ग़ुस्सा आ गया और वह पैर पटकते हुए जाने लगा.

“छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना…” शाहिद ने गाते हुए एजाज़ के कंधे पर हाथ रख उसे रोका और कहा- “राजनीति में इस तरह की बातें शुबहा, जाँच सब होता रहता है. नज़र रख पर उतावला मत हो. मैं 20 साल विधायक रहा हूँ हजारा से. ये सब ख़ूब देखा सुना है.”

“फिर बी फिचला चुनाव तो हार ही गे थे ना. आपका तो सब देखा-सुना है…”

“एजाज़… ” शाहिद हुसैन को ग़ुस्सा आ गया. एजाज़ का इरादा न पिता की बेइज़्ज़ती करना था न ही उनकी दुखती रग पर हाथ रखना लेकिन अपनी बात की बेक़द्री से उसके मुँह से गुस्से में कटु वचन निकल गए. उसने तुरन्त माफ़ी माँगते हुए कहा- “ मुझे फिकर हो री आपकी.”

शाहिद नर्म पड़ा और बोला- “उससे ज़्यादा मुझे तुम लोगों की फ़िक्र है. अब लोगों की छोड़ और उपचुनाव जीतने की बात सोच. जब तक दूसरी पार्टी प्रत्याशी चुनेगी तब तक हमें जीतने की सब तैयारी कर लेनी है. तुम्हें क्या लगता है कि आज शाम बिरयानी की दावत मैंने क्यों रखी है?”

“झिनहे बुलाया इनमें आधे तो फिचली बार आपको छोड़ गे थे.” एजाज़ उन लोगों को बुलाए जाने से क्रोधित था.

“ये राजनीति है. जो आज साथ है, कल दग़ा दे सकता है और जिसने कल दग़ा दिया था, वो आज हाथ थाम सकता है. सबको आने दो.”

“लेकिन सरकार जो जाँच कराने का खेह री उसका क्या? ”

“ अभी दो महीने पहले ही राजेश पायलट साहब भी सड़क दुर्घटना में गुज़र गए. जाँच हुई…कुछ हुआ? सरकार का काम है जाँच करना. अब उसे काम करने से थोड़ी रोक सकते हैं. जाओ और शाम की दावत में सब आएँ इसका इन्तज़ाम करो. अगर कोई ज़्यादा पंडत बने तो कहना वेज बिरयानी भी है.”

एजाज़ चलने लगा कि शाहिद ने रोककर कहा- “गंगाराम गुज्जर को तुम रहने देना, वहाँ मैं ख़ुद जाऊँगा.”

उम्र 26 साल, रंग गोरा, ठीक-ठाक गठा शरीर, घनी मूँछें, बालों में बीच की माँग निकाली हुई, आँखों पर एवियेटर चश्मा लगाया हुआ. राघवेन्द्र शर्मा कुछ-कुछ साउथ के सुपरस्टार नागार्जुन जैसा लगता था. विश्वविद्यालय से निकलते ही मुख्यमंत्री श्याम जोशी ने उसे पशु कल्याण समिति का भी अध्यक्ष बना दिया. यह पद पाते ही राघवेन्द्र ने इतना मन लगाकर काम किया कि उसके पास एक सिएलो कार और दो जीप आ चुकी थीं. नहीं, ये उसने ख़रीदी नहीं थीं.

उसे गिफ़्ट में मिली थीं. चुनाव के समय जब आप अपने नेताओं द्वारा घोषित सम्पत्ति देखेंगे तो आपको मिलेगा कि फोर्च्यूनर, मर्सिडीज, या बीएमडब्ल्यू जैसी गाड़ियों में घूमने वाले नेता के पास एक मारुति 800 का भी स्वामित्व नहीं है. एक आम आदमी को साल में एक बार उसके बर्थडे पर गिफ़्ट मिलता है लेकिन एक नेता को हर उस मौक़े पर गिफ़्ट मिलता है जब वह जनसेवा का कोई काम करता है. गिफ़्ट हमेशा वस्तु में मिले ज़रूरी नहीं, लोग शगुन का लिफ़ाफ़ा भी दे जाते हैं. राघवेन्द्र तो मुख्यमंत्री श्याम जोशी का क़रीबी था. उसने भी साल भर में ही काफ़ी जनसेवा की.

पार्टी का हज़ारा कार्यालय आने वाला था. राघवेन्द्र ने पाजामे के नाड़े को एक बार कसा, कुर्ता ठीक किया. अब तक जींस-शर्ट में घूमने वाले राघवेन्द्र को इस नए परिधान की आदत डालनी थी. उसे डर था कि कार्यालय में घुसते ही जब कार्यकर्ता उसे कंधे पर उठाएँगे तो कहीं उसका पाजामा खिसक न जाए. उसने गाड़ी के शीशे में अपना चेहरा देखा. सब सेट था. गाड़ी कार्यालय में घुसी और राघवेन्द्र ने कार्यकर्ताओं और नेताओं को नमस्ते करने के लिए अपने हाथ जोड़ लिये लेकिन ये क्या…कार्यालय तो सूना पड़ा था. राघवेन्द्र कहाँ रास्ते में भाषण सोचता आ रहा था, अपनी गर्दन को मालाओं के बोझ से झुका देख रहा था लेकिन यहाँ तो गाड़ी से उतरते ही उसका स्वागत पेड़ पर बैठे कौवे ने बीट करके किया. अमित बोला- “गाड़ी इतनी तेज़ तो चलाई नहीं मैंने कि लोगों से पहले पहुँच जाएँ.”

राघवेन्द्र का चेहरा ग़ुस्से और शर्म दोनों से लाल हो उठा. उसने मुख्यमंत्री श्याम जोशी को फ़ोन मिलाकर स्थिति बताई. श्याम जोशी ने राघवेन्द्र को उलटे झिड़का- “ मैंने मना किया था हज़ारा से चुनाव लड़ने को लेकिन तुम्हें ज़िद सवार थी. जब विरोधी गुट ने तुम्हारे नाम का समर्थन किया तभी समझ जाना चाहिए था कि कुछ गड़बड़ है. एक तो वहाँ के जातिगत समीकरण तुम्हारे पक्ष में नहीं और ऊपर से कार्यकर्ता भी तुम्हें टिकट देने से नाराज़ हैं. अब रुको. मैं अपने कुछ लोगों को कहता हूँ कि जल्दी पहुँचें.”

पिछले चुनाव में इस सीट पर पहली बार पार्टी प्रत्याशी स्वर्गीय सुभाष यादव बीस सालों से विधायक रहे शाहिद को हराकर मामूली अन्तर से जीते थे. श्याम जोशी नहीं चाहते थे कि यादव, गुज्जर और मुसलमानों की बहुतायत वाली इस हजारा सीट से राघवेन्द्र चुनाव लड़े. मई, 2002 में विधानसभा चुनाव होने थे. उससे ठीक पहले के उपचुनाव में उनके आदमी का अपनी सीट पर हार जाना बिलकुल अच्छा नहीं था.

श्याम जोशी के काफ़ी समझाने के बावजूद राघवेन्द्र नहीं माना. उसे अपनी छात्र नेता वाली छवि और युवा इकाई का महासचिव होने के नाते लग रहा था कि इस छोटे से विधानसभा क्षेत्र को वह बहुत आसानी से जीत लेगा और सबसे युवा विधायक बनने का रिकॉर्ड बनाएगा. जब कोई समझाने से न समझे तो उसे ठोकर खाने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि ठोकर लगने से मिली सीख जल्दी समझ में आती है. श्याम जोशी ने अन्तत: दिल पर पत्थर रखकर राघवेन्द्र को आशीर्वाद दे दिया लेकिन जिसका डर था वही हुआ. कार्यकर्ताओं ने ही मुँह फेर लिया.

श्याम जोशी के कहने पर कुछ कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय पहुँचे लेकिन मीटिंग में उनका रवैया देखकर राघवेन्द्र समझ गया कि इनसे कोई भी उम्मीद रखना बेकार है. हताश राघवेन्द्र वापस जाते समय जैसे ही चंगेज़ ख़ान के सामने से गुज़रा, चंगेज़ फिर चिल्लाया- “ तेज चलैगो, मर जाएगो.”

अमित गाड़ी बैक करके चबूतरे के सामने जाकर रुका और बोला- “ देख बाबा, सुबह जाते टाइम भी तू अपशगुनी बोला, मेरा काम ख़राब हो गया. अब मुँह बन्द रख वरना हाथ उठ जाएगा.”

“मेरे तो बेटों ने भी हाथ उठा दिया मुझ पर, उनका बुरा नहीं माना…तू तो पोते की उमर का है.” चंगेज़ ने हुक्का गुड़गुड़ाया.

अमित शर्मा जी का वो बेटा था जिसके लिए कोई नहीं कहता था कि “शर्मा जी के बेटे को देखो.’ परिवार का छोटा, बिगड़ैल, लड़ाका और फ़िटनेस का शौक़ीन अमित राघवेन्द्र से क़रीब आधा फुट लम्बा और एथलेटिक शरीर वाला था. अमित अक्सर भागता रहता था, कभी पढ़ाई से तो कभी कोई कांड करके. जिन दिनों राघवेन्द्र यूनिवर्सिटी का चुनाव लड़ रहा था उन दिनों भी अमित किसी की टाँग तोड़ने के बाद भागा हुआ था. अब जब राघवेन्द्र राज्य की राजनीति में उतर रहा था तो कमान सँभालने के लिए भरोसे का आदमी चाहिए था, हालाँकि राघवेन्द्र को अमित पर सिर्फ़ तब तक पूरा भरोसा था जब तक कि उसे ग़ुस्सा न आए. ग़ुस्सा आने पर अमित कोई भी काम बिगाड़ सकता था.

इससे पहले अमित इस बुज़ुर्ग से कुछ और बदतमीज़ी करे राघवेन्द्र ने उसे वापस गाड़ी की तरफ़ धकेला. चंगेज़ ख़ान ने आवाज़ दी- “आज तक यहाँ से कोई पंडत ना जीता.”

राघवेन्द्र रुक गया-“ अब जीतेगा बाबा.”

चंगेज़ ख़ान हँसा और फिर बोला- “सारे गुज्जर और मुसलमान शाहिद हुसैन को वोट देवें. तुझे कौन देगा? ”

“इतना जानते हो तो आप ही बता दो बाबा… ” राघवेन्द्र ने पूछा.

“तू यादवन में सेंध लगा. बे शाहिद को सुभाष की मौत का जिम्मेदार मानें.”

“ और सेंध कैसे लगेगी बाबा? ”

“एक लड़का है चमन, उससे मिल, तेरे काम का होगा.”

राघवेन्द्र हँसा- “चमन नाम से चू लगता है बाबा…”

चंगेज़ भी हँसा-“शकल से भी लगता हो तो क्या? आदमी नाम और शकल से जैसो भी लगे, अगर काम का हो तो उसे अमता बच्चन बुलाना चाहिए…तेरो अमता बच्चन सुभाष यादव को भतीजो है. दोनों एक दूसरे का काम कर सके हो.”


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