छावा : ग़द्दार ससुराल का शिकार

  • 12:31 pm
  • 15 February 2025

छावा शिवाजी सावंत के इसी नाम से लिखे गए उपन्यास पर आधारित फ़िल्म है. फ़िल्म की शुरुआत में आया अस्वीकरण (डिसक्लेमर) साफ़ इशारा कर देता है कि उपन्यास को फ़िल्म का रूप देने में अनगिनत बदलाव किए गए हैं. और इन बदलावों की ज़िम्मेदारी पांच लेखकों ने उठाई है, जिनमें ख़ुद फ़िल्म के निर्देशक लक्ष्मण रामचंद्र उतेकर, ऋषि विरमानी, कौस्तुभ सावरकर, उन्मान बांकर व ओमकार महाजन शामिल हैं, मगर अफ़सोस इस बात का है कि पांच लेखक भी मिलकर एक अच्छी पटकथा नहीं बुन पाए.

कहानी को आगे बढ़ाने के लिए या तो युद्ध के दृश्यों का सहारा लिया गया है या फिर हल्के-फुलके पारिवारिक दृश्यों का. इस फ़िल्म में जिन बारीक राजनीतिक षड़यन्त्रों को होना चाहिए था, वे पूरी तरह नदारद हैं. पटकथा किसी भी स्तर पर चौंकाती नहीं है और बेहद साधारण ढंग से आगे बढ़ती है. संभाजी की ससुराल गद्दारी करेगी, यह बात कहानी के शुरुआती तीस मिनट में ही दर्शकों को पता चल जाती है. निर्देशक लक्ष्मण उतेकर की समस्या यहीं रही है कि कहानी पर उनकी पकड़ हमेशा कमज़ोर रहती है और छावा भी कोई अपवाद नहीं है. बतौर लेखक व निर्देशक, शुरुआती डिसक्लेमर के मुताबिक पूरी आज़ादी लेने के बाद भी वह न तो कहानी को दिलचस्प ढंग से पेश कर पाते हैं और न ही किरदारों को दर्शकों के क़रीब ले जा पाते हैं, यहाँ तक की दोनों मुख्य किरदार विक्की और अक्षय खन्ना के साथ दर्शक कोई जुड़ाव महसूस नहीं कर पाते हैं.

ऋषि विरमानी के संवाद और इरशाद कामिल की कविताएं बेहद कमज़ोर हैं, जो फ़िल्म को पीछे धकेलती हैं. पूरे 161 मिनट लम्बी इस फ़िल्म में दिल को छू लेने वाले एक भी प्रसंग का न होना ही कथानक को कमज़ोर बनाता हुआ चला जाता है और ज़बरदस्ती आधे घंटे से अधिक खींचा गया क्लाइमेक्स फ़िल्म को औसत से बेहतर बनाने वाले प्रयासों पर पानी फेर देता है. दर्शक फ़िल्म पूरी होने से पहले ही अपनी कुर्सियां छोड़ना शुरु कर देते हैं जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि दर्शकों का कोई जुड़ाव विक्की के साथ नहीं हो पाया है. सौरभ गोस्वामी की फ़ोटोग्राफी कमज़ोर और मनीश प्रधान का संपादन ऐसा है कि फ़िल्म को पूरी तरह से बेअसर बनाता है. ए.आर.रहमान से इस तरह के संगीत की तवक़्क़ो नहीं की जाती है हालांकि उनके पास करने को ज़्यादा कुछ विशेष है भी नहीं. निर्देशन के लिए लक्ष्मण उतेकर ने अंग्रेज़ी साहित्य के गोथिक प्रेजेंटेशन (ख़ून ख़राबे वाले प्रस्तुतिकरण) को चुना है, और इस क़दर ख़ून ख़राबा दिखाया है कि अंत आने से पहले ही दर्शक ऊबकर सिनेमा छोड़ देते हैं.

अब बात अदाकारी की, विक्की संभाजी की भूमिका को जोशीले ढंग से प्रस्तुत करते हैं, लेकिन हर दृश्य दर दृश्य यह जोश उबाऊ लगने लगता है और जिन दृश्यों व उनमें विक्की द्वारा बोले गए संवादों के द्वारा जितना विक्की दर्शकों के नज़दीक पहुंच सकते थे, वहीं दृश्य व संवाद उनके रास्ते की मज़बूत अड़चन बन जाते हैं और यह सब कुछ होता है कमज़ोर लेखन के चलते. औरंगज़ेब के किरदार में अक्षय खन्ना का चयन क्यों किया गया, यह भी एक पहेली है क्योंकि अक्षय मुख्य किरदार संभाजी का दुरुस्त उच्चारण भी नहीं कर पाते हैं बल्कि कई दृश्यों में वे संभा को साम्भा बोल गए हैं, प्रोसथेटिक मेकअप, चमकीले बालों की विग, लचर संवाद व कमज़ोर लेखन उनके किरदार को उस तरह प्रस्तुत करने में असफल रहता है जिस तरह के सशक्त प्रस्तुतीकरण का यह किरदार हक़दार है.

रश्मिका मंदाना बेहतर है, औरंगज़ेब की बेटी ज़ीनत के किरदार में डायना पैंटी बिल्कुल नहीं जंचती क्योंकि तलफ्फुज़ उनका साफ़ नहीं है और एक्सप्रेशन कमज़ोर. विनीत सिंह ज़रूर असर छोड़ने का प्रयास करते हैं मगर कमज़ोर लेखन के चलते उनका असर भी कोई जादू नहीं चला पाता, आशुतोष राणा के हुनर को व्यर्थ किया गया है जबकि दिव्या दत्ता सीमित दृश्यों में अपनी छाप छोड़ने में सफ़ल रही हैं. छावा की दो प्रत्यक्ष कमियाँ हैं – पहली किरदारों के लिए ग़लत कलाकारों का चयन और दूसरी कमी है ग़लत रिलीज़ डेट का चयन. कुल मिलाकर फ़िल्म पूरी तरह निराश करती है और दर्शक फ़िल्म मुक़म्मल होने से पहले ही सिनेमा छोड़ देते हैं.


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