टाइगर 3 | जब तक टाइगर मरा नहीं, तब तक टाइगर हारा नहीं
फ़िल्म की शुरुआत होती है 1999 से, जहाँ पस-ए-मंज़र में कारगिल की जंग है, और मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से मशहूर उस शे’र से कि ‘ऐ बुरे वक़्त ज़रा अदब से पेश आ, क्यूंकि वक़्त लगता नहीं वक़्त बदलने में’, जहाँ पाकिस्तानी एजेंट ज़ोया के बचपन का वक़्त है अपने पिता नज़र साहब के साथ. इस शे’र को सुनते हुए सलमान की हालिया फ़िल्मों का हस्र भी याद कर सकते हैं.
दरअसल श्रीधर राघवन की यह पटकथा 20वीं सदी के शुरुआती वक़्त के अंग्रेज़ी साहित्य की मशहूर तकनीक स्ट्रीम ऑफ़ कंस्यूशियसनेस पर आधारित है, जिसमें कहानी वर्तमान और अतीत में यात्रा करती रहती है. इस दफ़ा ज़रा भारी-भरकम संवाद के ज़रिये हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रिश्तों की खटास और साजिशों के क़िस्से वाली टाइगर 3 की पटकथा रोचक है, दर्शकों को बांधकर रखने वाली है, फिर भी फ़िल्म का पहला हिस्सा थोड़ा कमज़ोर मालूम होता है. संवाद के लिहाज़ से भी अगर देखा जाए तो ऐसे संवाद फ़िल्म में कम ही है, जो थिएटर को तालियों की गड़गड़ाहट से भर दें.
जैसा कि सलमान ख़ान के मुरीदीन मानते आए हैं कि वे हिंदुस्तान के अकेले ऐसे आर्गेनिक सुपरस्टार है कि पर्दे पर जिनकी मौजूदगी उनके दिल की धड़कन बढ़ा देती है, रगों में रोमांच पैदा करती है और आँखों में चमक ला देती है. टाइगर 3 में सलमान की एंट्री का उन पर होने वाला असर यक़ीनन इससे अलग नहीं होगा.
दिवाली के मौक़े पर रिलीज़ होने वाली सलमान और कटरीना की जोड़ी की यह पहली फ़िल्म है. कटरीना कैफ़ अपने एक्शन सीन्स और आँखों की चमक से ज़ोया के किरदार में जान फूंक देती हैं. इमरान हाशमी को इससे पहले कभी ऐसे किरदार में नहीं देखा गया. बेशक़, वे खलनायक की भूमिका में हैं, मगर उन्होंने साबित किया है कि उनकी प्रतिभा को कम करके आंका जाता रहा है. लेखक और निर्देशक ने उनके किरदार पर जितनी मेहनत की है, उन्होंने वैसा कर भी दिखाया है.
इमरान ऐसे आई.एस.आई. एजेंट की भूमिका में है, जो पाकिस्तान का वज़ीर-ए-आज़म बनने का ख़्वाब देखता है. उनके इस किरदार को कुछ ऐसा कर दिखाने की ज़रूरत थी, जो दर्शकों को अपनी महत्वकांक्षा के इस सफ़र में शामिल कर सके और इमरान हाशमी, लेखक श्रीधर राघवन और निर्देशक मनीश शर्मा इसमें क़ामयाब भी हुए है. इमरान खौफ़नाक़ लगते है और उनकी नीयत उससे कहीं ज़्यादा.
पाकिस्तानी वज़ीर-ए-आज़म के किरदार में दक्षिण भारतीय अभिनेत्री सिमरन बग्गा भी असरदार लगती हैं. सहायक अदाकारों में शाहिद लतीफ़, कुमुद मिश्रा, रेवती, रणवीर शौरी हैं, साथ ही पठान के किरदार वाले शाहरुख़ ख़ान का जानदार कैमिओ भी है. पर्दे पर सलमान और शाहरुख़ की जोड़ी पर्दे पर धमाल मचाती है और लोगों की निगाह ज़रा देर के लिए भी पर्दे हटती नहीं है.
फ़िल्म का दूसरा हिस्सा अकल्पनीय लगता है, इसमें सधी हुई पटकथा है, इसमें दमदार एक्शन है, इसमें आला दर्जे की अदाकारी है, सम्पादन बांधकर रखने वाला है और कहानी का अन्त असरदार है, यह असर तब और गहराता है जब पाकिस्तान की जश्न-ए-आज़ादी की सुबह, पाकिस्तान की ज़मीन पर भारतीय राष्ट्रीय गान पेश किया जाता है. ये आंख नम करने वाले मगर सिर ऊंचा करने वाला अहसास पैदा करता है.
इसी कड़ी की पिछली दोनों फिल्मों (एक था टाइगर, 15 अगस्त 2012 और टाइगर ज़िंदा है 22 दिसम्बर 2017) से जो बात टाइगर 3 को अलग बनाती है, वो है ज़बरदस्त लोकेशन्स, विशाल कैनवास, अनय गोस्वामी का कैमरा वर्क, बैकग्राउंड स्कोर और कहानी के अहम किरदारों की क़ुर्बानियाँ. जी हाँ, फ़िल्म में ऐसे कई किरदार मिलते हैं, जो लोकतंत्र की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जान देते है और यह जज़्बा फ़िल्म को अलग स्तर पर ले जाता है.
एक्शन, इमोशन और रोमांच के लिहाज़ से फ़िल्म इतनी दिलचस्प ज़रूर है कि देखने वालों को निराश नहीं करती बल्कि दिवाली का मज़ा बढ़ा ही देती है.
आप सबको दिवाली मुबारक.
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