मेरी क्रिसमस: एक अधूरा तोहफ़ा

  • 9:38 am
  • 12 January 2024

फ़िल्म ‘मेरी क्रिसमस’ की रिलीज़ की तारीख़ का ऐलान होने के बाद इसके बेसब्री से इंतज़ार की कई वजहें थीं-श्रीराम राघवन की फ़िल्म, कटरीना कैफ़ और विजय सेतुपति की जोड़ी पहली बार परदे पर साथ आ रही थी और इन दोनों को पसंद करने की अलग-अलग वजहें भी हैं. फ़िल्म देखकर निकले तो जाने क्यों हैदर अली आतिश का वह मशहूर शेर देर तक याद आता रहा.

फ़्रेंच उपन्यास पर बनी रहस्य-रोमांच वाली इस फ़िल्म की कहानी में हत्या है, उसकी तहक़ीक़ात है और ज़ाहिर है कि रहस्य-साज़िश का पर्दाफ़ाश भी. फ़िल्म की कहानी बांधे रखने का कोशिश ज़रूर करती है और दर्शकों की दिलचस्पी दृश्य दर दृश्य बढ़ती भी है मगर उतनी नहीं जितना कि एक सस्पेंस-थ्रिलर से उम्मीद रहती है. और इसकी तीन वजह महसूस होती हैं- कमज़ोर लेखन, सम्पादन और कुछ अलग और नया करने की होड़ वाला निर्देशन.

मेंरी क्रिसमस का दूसरा हिस्सा अपेक्षाकृत बेहतर है, फिर भी श्रीराम राघवन, अरिजीत बिस्वास, पूजा सूरति व अनुकीर्ति पाण्डेय की पटकथा जाने क्यों सस्पेंस और थ्रिलर वाला जादू नहीं जगाती. कथानक गढ़ने में ही बहुत-सा समय ले लिया है. और सस्पेंस भी बहुत अबूझ नहीं रह जाता.

कहानी सिर्फ़ एक रात की है, कुछ हिस्सों में फ़्लैशबैक भी है जो कहानी को आगे बढ़ाता है और काफ़ी हद तक दिलचस्प भी बनाता है. ‘मेरी क्रिसमस’ की सबसे बड़ी समस्या ये है कि इसका लेखन उस तरह से नहीं है जो एक सस्पेंस थ्रीलर का होना चाहिए. फ़िल्म में रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्यों की बहुत कमी है. अलबत्ता, मधु नीलकंदन का कैमरा दर्शकों को बांधे रखता है. संजय कपूर को लेकर हास्य प्रसंगों का अच्छा इस्तेमाल हुआ है. संजय के हिस्से में साधारण-से लगने वाले संवाद ही हैं मगर पर्दे पर उनकी बेवकूफियां और उनके हाव-भाव पर दर्शक बेतहाशा ठहाके लगाते है, और फ़िल्म मनोरंजक लगाने लगते हैं.

मूल कहानी के भारतीयकरण की कोशिश में ऐसी चूक हुई है कि फ़िल्म का अन्त कमज़ोर लगता है और दर्शक ख़ुद को ठगा महसूस करते हैं. मारिया की भूमिका में कटरीना कैफ़ प्रभावित करती हैं. कहानी में उनके किरदार के लिए अगर थोड़ी गुंजाइश और होती तो शायद यह कटरीना की सर्वश्रेष्ठ अदाकारी वाली फ़िल्म कही जाती. उनकी मौजूदगी की कशिश अपनी जगह मगर कुछ दृश्यों में उनकी बढ़ती हुई उम्र का असर भी दिखाई देता है. विजय सेतुपति भी असरदार हैं, मगर लगता है कि हिंदी फिल्मों में काम करने के अपने फ़ैसले के साथ हिंदी बोलने के रियाज़ पर उन्होंने अभी उतना वक्त नहीं दिया है, जितने की दरकार है. राधिका आप्टे के पास करने को कुछ विशेष नहीं है और विनय पाठक जमते नहीं हैं.

फ़िल्म में ज़रूरी रोमांच की बहुत कमी है और कुछ दृश्यों को ज़बरदस्ती खींचने की वजह से कहानी अपनी कसावट खो देती है. पार्श्व संगीत मगर बढ़िया है और दर्शकों को बाँधने में सहायक भी. राघवन की पिछली फ़िल्म ‘अंधाधुंध’ देख चुके जिन लोगों ने इस फ़िल्म से बहुत उम्मीद लगा रखी होगी, फ़िल्म उनके पैमाने पर पूरी नहीं उतरेगी. हां, किसी उम्मीद के बगैर फ़िल्म देखने जाया जा सकता है.

कवर | आईएमडीबी


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