हालावाद के प्रवर्तक हरिवंश राय बच्चन

  • 5:06 pm
  • 27 November 2020

प्रतापगढ़ में बाबूपट्टी के बच्चन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी पढ़ाते मगर कविताएं हिंदी में करते. उनके दो दर्जन से ज़्यादा कविता संग्रह छपे मगर ज़माना उन्हें याद करता है, ‘मधुशाला’ के लिए. निःसंदेह वह हालावाद के प्रवर्तक रहे भी. हाला को जीवन का प्रतीक बनाकर, उन्होंने अपनी कविताओं में जो जीवन दर्शन दिया, वह पाठकों के सामने मधुशाला के रूप में आया. उनकी कविताओं में हाला जीवन की कटुताओं, विषमताओं, कुंठाओं तथा अतृप्तियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आई. हाला जीवन के विक्षोभ को प्रकट करने का साधन और रूढ़िवादियों, सम्प्रदायवादियों और धर्म के ठेकेदारों पर चोट करने का हथियार बन गई. हरिवंश राय बच्चन की कविताओं में शराब कहीं जीवन, कहीं मस्ती, कहीं मादकता और अद्वैतवाद का पर्याय बनकर आती है -‘‘घृणा का देते हैं उपदेश यहां धर्म के ठेकेदार/ खुला है सबके हित, सब काल हमारी मधुशाला का द्वार.’’

हिंदी कविता में छायावाद के बाद जब कविता में हर रोज़ नए प्रयोग हो रहे थे, यह हरिवंश राय बच्चन ही थे, जिन्होंने किसी भी धारा में न बहते हुए अपनी एक जुदा राह बनाई. वह जिजीविषा, जीवटता के कवि-गीतकार थे – ‘‘जीवित है तू आज मरा सा, पर मेरी यह अभिलाषा/चिता निकट भी पहुंच सकूं अपने पैरों-पैरों चलकर.’’

उमर ख़ैयाम की रुबाईयों और सूफ़ी मत का असर उन पर शुरू से ही था. सूफ़ियों के जीवन दर्शन का तो शराब एक हिस्सा थी. हालांकि, लौकिक प्रेम के समान उसे भी ‘शराबे मारिफ़त’ के रूप में अलौकिक बना दिया गया था. ‘‘बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला.’’ बच्चन की रचनाओं में जीवन के प्रति अनुराग है, न कि शराब पीने की हिमायत. सच बात तो यह है कि उनकी रचनाओं में हाला, प्रतीकात्मक रूप में आकर आध्यात्मिक रहस्यों के पर्दे हटाती है – ‘‘मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूं, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूं/ जिसको सुनकर जरा झूम चुके लहराएं, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं.’’

‘मधुशाला’ का सबसे पहले सन् 1933 में उस समय की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के हीरक अंक में छपी. तब से लेकर आज तक इसके देश और दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद आ चुके हैं, बेशुमार संस्करण निकल चुके हैं, लेकिन पढ़ने वालों के दिल-ओ-दिमाग पर उसका ख़ुमार अब भी तारी है. बच्चन और मधुशाला एक-दूसरे के पर्याय हैं.

पढ़ाई के दिनों में वह ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से भी जुड़े रहे. क्रांतिकारी भगत सिंह के प्रभाव से वे एथिस्ट बने, तो कविता और जीवन में भी उसका प्रभाव रहा. बच्चन अपनी एक कविता में कहते हैं, ‘‘दूर स्थित स्वर्गों की छाया में विश्व गया है बहलाया/ हम क्यों उन पर विश्वास करें, जब देख नहीं कोई आया/ अब तो इस पृथ्वी पर ही, सुख स्वर्ग बसाने हम आए.’’ उन्होंने अपनी रचनाओं में सदैव धार्मिक जकड़बंदियों और कठमुल्लापन की मुख़ालफ़त की. ‘‘पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका/ कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला.’’ अपनी रचनाओं में वह धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों, आडंबरों का भी विरोध करते हैं. ‘‘और चिता पर जाए उड़ेला, पात्र न घृत का पर प्याला/ घट बंधे अंगूर लता में, मय न जल हो पर हाला/ प्राण प्रिय यदि श्राद्ध करो तुम, मेरा तो ऐसा करना/ पीने वालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला.’’

हरिवंश राय बच्चन की कविताओं ने सैंकड़ों नौजवानों के जीवन समर में आत्मबल दिया है. भाषागत बिंबवाद, कल्पना की उड़ान के बरक्स सरल-सहज, सीधी भाषा शैली में अपनी बात कहने के कारण वह नौजवानों में बहुत लोकप्रिय हुए. छायावादी कवियों ने उस समय लाक्षणिक वक्रता से भाषा को दुरूह बना दिया था. बच्चन ने संस्कृत की तत्समता पर निर्भर न रहकर, तद्भव बहुल आमजन की बोलचाल वाली हिंदी का प्रयोग अपने काव्य में किया. बोलचाल की भाषा और लय को कविता के केन्द्र में लाए. आधुनिक कविता की भाषा को तद्भवमुखी बनाने में उनका बड़ा योगदान है.

आधुनिक गीति काव्य में बच्चन प्रथम अध्याय हैं. उनके गीतों में अनुभूति और कल्पना का अद्भुत संयोग है. उनके गीतों के प्राणतत्व में संगीत, वेदना और करूणा है. वहीं भाषा और भाव, शब्द और स्वर, छंद और लय, अनुभूति और अभिव्यक्ति का उचित संयोग उनकी सहज प्रमाणिक विशिष्टता है. ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, ‘मिलन यामिनी’, ‘आकुल अंतर’, ‘एकांत संगीत’, ‘सतरंगिनी’, ‘विकल विश्व’, ‘खादी के फूल’, ‘सूत की माला’, ‘मिलन’, ‘दो चट्टानें’, ‘आरती और अंगारे’ उनकी मुख्य कृतियां हैं. ‘दो चट्टानें’ के लिए 1968 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया. इसी साल उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ तथा एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के ‘कमल पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया और 1976 में ‘पद्म भूषण’ से.

‘‘हे लिखे मधुगीत मैंने हो, खड़े जीवन समर में/इस पार तुम हो, मधु है, उस पार ना जाने क्या होगा.’’ और ‘‘कहां मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया/इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो,’’ जैसे गीतों ने उन्हें जन-जन का चहेता कवि बना दिया. चार दशक तक वह कवि सम्मेलन मंचों की प्रमुख और गरिमामय आवाज बने रहे. कवि सम्मेलन मंच की लोकप्रियता बढ़ाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्होंने हिंदी में वाचिक परम्परा को स्थापित किया.

चार खंडों में छपी उनकी आत्मकथा, ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ ने भी लोकप्रियता के कई कीर्तिमान बनाए. ‘दशद्वार से सोपान तक’ को धर्मवीर भारती ने हिंदी के हजार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया, जब किसी ने अपने बारे में इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कहा हो. आत्मकथा के लिए उन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित ‘सरस्वती सम्मान’ भी मिला.

केंद्र सरकार ने जब वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग बनाया तो देश भर में मान्य हिंदी की सरल और एकरूप शब्दावली तैयार करने के इस उद्यम में हरिवंश राय बच्चन भी शामिल रहे. दूसरी भाषाओं की कृतियों के अनुवाद और उनके संपादन में छपी किताबों की तादाद भी अच्छी ख़ासी है. ‘भाषा अपनी भाव पराये’ दुनिया की कई ज़बानों की कविताओं के उनके हिंदी भावानुवाद का संकलन है. इसमें राबर्ट फ़्रॉस्ट की कविता ‘स्टॉपिंग बाय वुड्स ऑन अ स्नोई इवनिंग’ भी शामिल है. इसी कविता की ये पंक्तियाँ नेहरू अपने मेज के शीशे के नीचे लगाए रखते थे – द वुड्स आर लवली, डार्क एण्ड डीप/ बट आय हैव प्रॉमिसेज़ टु कीप/ एण्ड माइल्स टु गो बिफ़ोर आय स्लीप/ एण्ड माइल्स टु गो बिफ़ोर आय स्लीप. हरिवंश राय बच्चन का भावानुवाद देखिए – गहन सघन वन तरुवर मुझको आज बुलाते हैं/ किंतु किए जो वादे मैंने याद मुझे आ जाते हैं/ अभी कहाँ आराम बदा यह मूक निमंत्रण छलना है/ अरे अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है.

सम्बंधित

पढ़ते हुए | भगवत रावत और उनकी कविताएं

कैफ़ी की याद | तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.