हे साधकों! पिछड़ती हिन्दी का दोष किसे दें

  • 12:37 pm
  • 1 January 2020

ख़बर है कि अंग्रेज़ी का नवजात शब्द ‘ओके बूमर’ आने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में बहस की दिशा और दशा तय कर सकता है. ‘ओके बूमर’ शब्द का इस्तेमाल इन दिनों नई उम्र के युवा तब करते हैं, जब कोई उन्हें काफी देर उपदेश दे चुका हो. इसका सबसे नजदीकी हिन्दी अनुवाद -“अब बस करो बुढ़ऊ ..!” हो सकता है.

‘ओके बूमर’ उन ख़ास शब्दों में से एक है, जिन्हें दुनिया डूबते दशक की विदाई बेला में उसी तरह याद कर रही है जैसे चर्चित चेहरों को किया जाता है. ये शब्द इस दशक के भाषाई जगत के नायक हैं, जिन्होंने इस समय की चिंताओं, चाहतों को जानने-जतलाने में लोगों की मदद की. टाइम मैग्ज़ीन ने ऐसे शब्दों की एक सूची जारी की है. दुख की बात है कि ‘हिंदुत्व’ को छोड़कर इस सूची में हिन्दी का कोई शब्द नहीं है. क्या हमारी प्यारी हिन्दी में ऐसा कोई लफ्ज़ या मुहावरा पिछले दशक में गढ़ा नहीं गया, जो अंग्रेज़ी के इन इतराते शब्दों के साथ रखा जा सके?

टाइम मैग्ज़ीन में दशक के जिन शब्दों के बारे में बात की है उनमें से एक है – ‘देमसेल्फ़’, जिसके ज़रिये अंग्रेज़ी वाले हिमसेल्फ या हरसेल्फ कहने के बजाय जेंडर न्यूट्रल शब्द के इस्तेमाल पर ज़ोर दे रहे हैं. अब हिन्दी की बात करें तो जेंडर न्यूट्रल शब्दों के लिए हमारी कोई तैयारी नहीं है. फ़िलहाल तो हमारे पास थर्ड जेंडर के लिए भी कोई सम्मानजनक शब्द नहीं है. या तो वृहनल्ला जैसा पौराणिक शब्द है या हिजड़े जैसा बाज़ारू चलताऊ संबोधन! बताते हैं जल्दी ही सार्वजनिक स्थानों पर पुरुष और स्त्री शौचालयों के साथ थर्ड जेंडर के लिए अलग से शौचालय होंगे. हिन्दी में इन पर क्या लिखा जाएगा?

ऐसा ही एक शब्द है ‘ बॉडी-शेमिंग ‘ मतलब शारीरिक कमियों जैसे मोटापा कद या रंग रूप को लेकर की जाने वाली छींटा-कशी. युवा पीढ़ी इस मामले को लेकर संवेदनशील है मगर हमारे पास हिन्दी में इसके लिए कोई शब्द नहीं है.

अंग्रेज़ी वालों ने तो पीढ़ियों तक के नामकरण किये हैं. मसलन 1990 के बाद पैदा होने वाली, या 21वीं सदी में जवान होने वाली पीढ़ी को ‘मिलेनियस’ कहा जाता है. 1960 के बाद पैदा होने वाली पीढ़ी ‘जेन एक्स’. 80 और 90 के बीच पैदा हुए लोग ‘जेन व्हाय’ और 21वीं सदी के दूसरे दशक में जवान हुई पीढ़ी को ‘जेन जेड’ कहा गया है. यह सिर्फ़ नाम नहीं परिभाषिक शब्द हैं, जो इन पीढ़ियों की आदतों, पसंद-नापसंद, उम्मीदों, आकांक्षाओं के बारे में विस्तार से बताते हैं.

पिछले वर्षों में हमने अंग्रेज़ी के ‘#मी टू’ जैसे लफ्ज़ देखे, जिन्होंने यौन शोषण के खिलाफ एक पूरा आंदोलन खड़ा कर दिया. इस तरह के शब्द हमें बताते हैं कि वे समाज का आईना भर नहीं है बल्कि वे कभी अपनी तरह से समाज को बनाते बिगाड़ते और कभी किसी ख़ास दिशा की ओर ले जाते हैं.

शब्द हवा में पैदा नहीं होते. वे किसी भाषा को बोलने वाले समाज के बारे में, उसके जीवन मूल्यों, उसकी चाहतों और चिंताओं का पता देते हैं. ज़ाहिर है जब भी समाज बदलता है, जीवन मूल्य बदलते हैं तो उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए भाषा नए शब्दों का आविष्कार करती है. ऐसे में हिन्दी में नए शब्द, मुहावरों का पैदा न होना हैरान करता है. क्या वजह है कि हिन्दी में ऐसे परिभाषिक शब्द नहीं मिलते? यह हिन्दी की समस्या है, या हिन्दी के लेखक, पत्रकार, सम्पादकों की.

हिन्दी में सैकड़ों अख़बार निकलते हैं पर अंग्रेज़ी जैसे दिलचस्प हेडिंग के लिए आंखें तरसती हैं. दसियों रेडियो चैनल्स पर लगातार हिन्दी बोलते रेडियो जॉकी कोई नया शब्द नहीं गढ़ते. हिन्दी की कई क्षेत्रीय बोलियां है. वे चाहते तो वहां से कोई शब्द उठा सकते थे. लिखे हुए न सही, वे कम से कम कोई नई ध्वनि तो इस्तेमाल कर सकते थे. पर रेडियो की राजकुमारियों ने पंजाबी भाषा से हां..जी ई.. में रोमांस का तड़का लगाकर बोलने मात्र से नवाचार की अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली.

इस सब पर बात करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि जल्द ही हिन्दी इंटरनेट पर सबसे ज्यादा पढ़ी और सुनी जाने वाली भाषा बनने वाली है. हिन्दी में लिखे, बनाए कंटेंट की एक बहुत बड़ी मांग पैदा हो रही है. हिन्दी के लेखकों भाषाविदों के लिए यह एक बड़ा अवसर है और चुनौती भी !

आज़ादी के बाद सरकार ने चाहा – दफ़्तरी कामकाज हिन्दी में हो. हुआ भी. हिन्दी का फैलाव लंबाई चौड़ाई में हुआ पर गहराई घट गई. हिन्दी इस्तेमाल करने वालों में एक छोर पर सरकारी हिन्दी वाले हैं जो अंग्रेज़ी या दूसरी भाषा के शब्द का इस्तेमाल न करने की ऐसी ज़िद पकड़े बैठे हैं कि उनकी हिन्दी संस्कृत से भी अधिक कठिन हो चली है. दूसरे छोर पर वह युवा पीढ़ी है, जिसकी हिन्दी में सिर्फ व्याकरण हिन्दी का बचा है, शब्द सारे अंग्रेज़ी हो चले हैं. बचे आम लोगों की हिन्दी में से मुहावरे, कटाक्ष, उपमाएँ गायब हो चुके हैं. ऐसे शहरियों की बेजान, नीरस बातचीत के मुकाबले मुझे दो निमाड़ी देहातनों की नोंकझोंक भाषा के मामले में कहीं अधिक रोचक, समृद्ध और वैभवशाली लगती है. कभी-कभी तो लगता है, हिन्दी से ज़्यादा नवाचार उसकी बोलियों में हो रहा है. हाल ही में मैंने मालवी के एक लोक गीत में पति-पत्नी के बीच मोबाइल से चिपके रहने को लेकर दिलचस्प ताने, उलाहनें सुने.

हिन्दी में विज्ञान, मैनेजमेंट, चिकित्सा जैसे विषयों की शब्दावली या तो है ही नहीं और जितनी है वह इस्तेमाल नहीं की जाती. यह विषय पश्चिम से आए यह कहकर हम बच सकते हैं पर सामाजिक व्यवहार को परिभाषित करते शब्द भी अंग्रेज़ी से लेने पड़ें, तो हम हिन्दी वाले किस तरह अपनी शर्म को ढकें.

हिन्दी का बचना और बढ़ना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि धर्म और जाति के नाम पर बंटता जा रहा यह देश हिन्दी की छतरी के नीचे एक हो सकता है.

उम्मीद कीजिए आने वाले दशक में हमारे पास भी दुनिया को बताने, सिखाने के लिए नए शब्द, नए मुहावरे हों.

(सिविल इंजीनियर के तौर पर प्रशिक्षित संजय वर्मा उद्यमी और घुमक्कड़ हैं. सामाजिक विषयों पर ख़ूब लिखते हैं और उतने ही अधिकार से लिखते हैं जितना कि विज्ञान के विषयों पर. उनकी यह टिप्पणी फ़ेसबुक पेज से साभार)

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