लॉक-डाउन इफ़ेक्ट्सः लिक्खाड़ों के देश में पाठकों का टोटा

कोरोना के इस लॉक-डाउन से एक बात बख़ूबी समझ आ रही है कि चुनाव सम्बंधी एक्ज़िट पोल क्यों फ़ेल हो जाते हैं. क्यों बड़े-बड़े विद्वानों के भी अनुमान गलत हो जाते हैं.
लॉक-डाउन के सम्बंध में लेखकों का अनुमान था कि अब पाठक फ़ुर्सत में हैं तो उनके लेख, कविताएं, कहानी, अधिक पढ़े जाएंगे. परन्तु ऐसा हुआ नहीं. उल्टा पाठकों की संख्या कम हो गई.

दरअसल लेखक, पाठकों को पहचानने में भूल कर गए. भारत में पाठक वही है, जिसे लिखने का अवसर न मिला हो. लेखन फुरसतियों का विलास है. वह पाठक है, क्योंकि उसके पास लेखन के लिए आवश्यक ठलुआपन उपलब्ध नहीं है. और लॉक-डाउन ने उसे वो वांछनीय ठलुआपन उपलब्ध करा दिया, जो पहले केवल लेखकों को उपलब्ध था. संक्षेप में कहें तो लेखक ये देखना भूल गए कि पाठक भी तके बैठे थे.

रस्किन बॉन्ड ने कहा था कि भारत पर लेखकों की संख्या, पाठकों से अधिक होने का खतरा मंडरा रहा है. मुझे लगता है कि भारत में पाठक थे ही नहीं, बस लेखक थे. उनमें से कुछ को लिखने का मौक़ा मिल गया, कुछ को नहीं मिल पाया, परन्तु थे वे सभी लेखक ही. हम भारतीय सदा से ही लेखन प्रिय रहे हैं.

बात कुछ दो-ढाई हज़ार साल पुरानी है. राजा का दरबार लगा हुआ था और राजा, मंत्री में चर्चा चल रही थी. तभी वहाँ एक ऋषि आ पहुँचे. राजा ने मंत्री से पूछा, “पड़ोसी राज्य से कोई ‘हमारे आगे घुटने टेक दो’ वाली धमकी आई थी?” मंत्री ने कहा, “हाँ.” इस पर राजा आग-बबूला हो गया, “इत्ती महत्वपूर्ण बात मुझे बताई क्यों नहीं?” मंत्री ने कहा ,”डाक में रखवा दी थी. आपके सामने आई होगी.” डाक बाबू को बुलाया गया. डाक बाबू ने साफ़ मना कर दिया, “मेरे पास कोई चिट्ठी नहीं आई, यदि मंत्रीजी ने मुझे दी हो, तो पावती बताएँ!” फिर धीरे से डाकबाबू बोले, “इतना महत्वपूर्ण पत्र था तो उस पर कवरिंग लेटर लगाना चाहिए था. ऐसे ही दे दिया?” क्लर्क मंत्री पर भारी पड़ता दिख रहा था. भरे दरबार में मंत्री की बेइज़्ज़ती होने लगी. मंत्री ने तैश में उस पत्र की, अपने पास रखी द्वितीय प्रति मंगवाई और कवरिंग लेटर लगा कर डाक बाबू को दी, “ले! और मुझे लिख कर दे कि तूने ये पत्र प्राप्त कर लिया.” डाकबाबू ने लिख कर दिया, फिर राजा की ओर कातर दृष्टि से देखते हुए मंत्री से बोला, “हुज़ूर आप बड़े अधिकारी हैं. कहीं भूल-भाल गए तो मेरी आफ़त आ जाएगी. आप भी लिख कर दे दो कि मैंने आपको लिख कर दे दिया है कि जो आपने मुझे लिख कर दिया था वो मैंने प्राप्त कर लिया है.” इतना बोल कर उसने फिर राजा की ओर कातर दृष्टि से देखा. राजा ने मंत्री से कहा, “हाँ सही बात है. मंत्री जी तुम भी लिख कर दे दो!” ऋषि बहुत देर सब सुनते रहे. पर कोई भाव मिलता न देख भड़क गए. उन्होंने क्रोध में श्राप दिया, “राजन, राजसभा में उपस्थित एक ऋषि की उपेक्षा कर तुम लोग परस्पर पत्र लिखने में लगे हो, जाओ मैं श्राप देता हूँ, तुम लोगों का चित्त यूँ ही लेखन में रमा रहे सदा.” बस तब से आर्यावर्त के लोग लिख रहे हैं.

हमने पत्थरों पर लिखा, भित्तियों पर लिखा, भोजपत्रों पर लिखा, कागज़ पर लिखा. हमें जो मिला, हमने उस पर लिखा. अब स्क्रीन पर लिख रहे हैं. लेखन हमारा प्रिय कार्य है और लेखन के प्रति हमारे मन में बहुत सम्मान है. ध्यान रहे ये सम्मान लेखन के प्रति है, लेखकों के प्रति नहीं. अलिखित संविधान की परम्परा वाले ब्रिटिश जब भारत आए तो उन्होंने देखा यहाँ दो वाक्य सर्वाधिक प्रचलित हैं. पहला- कहाँ लिखा है? दूसरा- लिख कर दो!

आप किसी से कहें- “भाई यहाँ मत थूको!” वो पूछेगा- “कहाँ लिखा है?” “यहाँ मत मूतो!” “कहाँ लिखा है?” “ऑफिस टाइम से आओ!” “लिख कर दो!” “एक गिलास पानी दो!” “लिख कर दो!”

तो उन अंग्रेज़ों ने भारत में सब लिख डाला. बापू से पहले तक के नेता अंग्रेज़ों का लिखा मानते भी रहे. अब बापू के बाद वाले भी मानते हैं. और जब हमें लिखने का मौका मिला तो हमने विश्व का सबसे बड़ा संविधान ही रच दिया. हमने पंचशील लिख लिया, शिमला समझौता लिख लिया. दिल नहीं माना तो लाहौर समझौता भी लिख लिया. हमारे लिए लिखना हर समस्या का हल है. ये तुरंत राहत देता है.

किसी ने पूछा तुम्हारी पार्टी देश और देश के लोगों के लिए क्या करेगी? पार्टी ने घोषणा पत्र लिख डाला. लोग नाराज़ हुए कि तुम्हारी सरकार घोषणा पत्र का पालन नहीं कर रही है. सरकार ने श्वेत पत्र लिख डाला. लोग फिर नाराज़ हुए कि भाई श्वेत पत्र तो लिखा पर हालत तो बदली नहीं. सरकार ने श्वेत पत्र पर श्वेत पत्र लिख दिया. तब जाकर लोग संतुष्ट हुए. आगे भी लोग संतुष्ट रहें इसलिए सरकार ने प्रेम पत्र लिख दिया – कि भाई आप विपक्षी दल में हैं, इसलिए असंतुष्ट हैं. इधर आ जाइये. प्रेम पत्र पाकर उन्होंने राज्यपाल को पत्र लिख दिया – कि हम संतुष्ट होने के लिये पार्टी बदल रहे हैं. राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष को लिख दिया. लिखा-पढ़ी चलती रही.

किसी ने अधिकारी से कहा,”आपके कर्मचारी ठीक से काम नहीं करते हैं, मुझे शिकायत है.” अधिकारी ने कहा, “लिख कर दो!” उसने लिख कर दे दिया. अधिकारी ने कर्मचारी को लिख कर दिया कि किसी ने लिख कर दिया है कि आप ठीक से काम नहीं करते हैं, तीन दिवस में आप इस बारे में लिख कर दें, ताकि हम फिर कुछ लिख सकें.
कर्मचारी लिख कर देता है- श्रीमान अमुक तारीख़ को… अमुक बजे… अमुक शिकायतकर्ता आया…. आपके पत्र क्रमांक…से…..अमुक नियम….अमुक परिपत्र… अमुक अधिनियम की धारा अमुक के अंतर्गत… सहपठित धारा…. माननीय अमुक न्यायालय के अमुक विरुद्ध शासन एआईआर उन्नीस सौ बासठ के न्यायदृष्टांत…… अतः अमुक की शिकायत झूठी होकर नस्ती किये जाने योग्य है…. आपका भवदीय … संलग्न एक से लगायत पिचहतर तक.

अधिकारी, कर्मचारी का उत्तर पढ़ कर भाव विभोर हो गया. उसने कर्मचारी को बुला कर उसका अभिनन्दन किया कि जब तक ऐसे प्रतिभाशाली कर्मचारी हैं, शासन का सूर्य कभी अस्त नहीं हो सकता. अब वह इस सरकारी बेंतबाज़ी को आगे बढ़ाने के लिए कल्पना के सागर में गोते लगा. उसने भी आदेश, परिपत्र, नियम, अधिनियम, रूलिंग सब निकाल कर रख लिए. सरकारी अंताक्षरी शुरू हो गई. अधिकारी ‘ह’ पर छोड़ता है. कर्मचारी तुरंत हल्कूराम विरुद्ध बंगाल राज्य पटकता है. फिर कर्मचारी ‘स’ पर छोड़ता है. अधिकारी सुनीता बाई विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य घुमाकर मारता है. हमारे न्यायालय क्या कुछ कम लिक्खाड़ हैं? और लिक्खाड़ ही नहीं, दयालु भी हैं.

उन्होंने उदारता से रूलिंग्स लुटाई हैं. ये लम्बी-लम्बी रूलिंग! हर किसी के मतलब की रूलिंग. भारत में न्याय नहीं मिलता, रूलिंग मिलती है. क्योंकि न्याय माँगने वाला तो नीचे वाले की अदालत से ऊपर वाले की अदालत में पहुँच चुका होता है. रूलिंग ही उसको सच्ची श्रद्धांजलि है. वरना कौन जानता गोलकनाथ और केशवानन्द भारती को? व्यक्ति वकील साहब के पास पहुँचता है. किसी दुकानदार की तरह वकील साहब उसकी बातें सुनते हैं. फिर अंदर जाकर उसके साइज़ की दस-बारह रूलिंग निकाल कर लाते हैं. लीजिए, पसंद कर लीजिए! ये वाली नई आई है. इस वाली में बड़ी बेंच थी, पाँच जजों की. ये तीन जजों वाली है. वो वाली आपके केस पर बिल्कुल फिट आएगी. “ये तीन रूलिंग पैक कर दीजिए!” व्यक्ति कहता है. वकील साहब लीगल साईज़ पेपर में तीनों रूलिंग बांध कर दे देते हैं.

तो अधिकारी-कर्मचारी अपने-अपने मतलब की रूलिंग्ज़ तूणीर में रख कर घूमते हैं. जब मन हुआ कलम के धनुष पर चढ़ाई और दे मारी. इन सब के बीच हम भूल गए कि शिकायतकर्ता का क्या होता है?

“लिख के दे आया हूँ साले के ख़िलाफ़. अब पता चलेगा. उनका बॉस बोला- लिख कर दीजिए! लिख कर दीजिए! हमने कहा- डरते हैं क्या लिखने से. ये लो!” शिकायकर्ता लिखने मात्र से गर्व से भर गया है. उसको वही संतुष्टि मिल रही है जैसी देशवासियों को किसी समस्या के लिए क़ानून बनने के बाद मिलती है. वह अब अपनी समस्या को उसी तरह भूल चुका है जिस तरह किसी जलूस में आए लोग ज्ञापन दे कर भूल जाते हैं.

एक राज्य में अतिथि शिक्षक धरने पर बैठ गए, इस मांग के साथ कि हमारी नौकरी पक्की की जाय. विपक्षी दल के नेताजी ने कहा, “हम सत्ता में आए तो आपकी मांग पूरी करेंगे, हमें वोट दीजिये.” अतिथि शिक्षकों ने कहा- “यह बात लिख कर दीजिए!” उन्होंने लिख कर दे दिया. जब सरकार बनी तो उन मास्टरों ने कहा, “अब हमारी मांग पूरी करो. आपने लिख कर दिया था.” नेताजी, जो अब मंत्री जी थे, बोले, “लिख कर तो दिया था. पर ये कहाँ लिख कर दिया था कि हम जो लिख कर दे रहे हैं उसका पालन करेंगे?” “मतलब?” अतिथि विद्वानों को चक्कर आ गए. “मतलब ये कि जब शपथ पत्र लिखते हो तो क्या लिखते हो? यही कि मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ मेरा निवास ये है, मेरी शिक्षा ये है. फिर नीचे हस्ताक्षर करते हो. और फिर उसके नीचे लिखते हो कि मैंने जो ऊपर लिखा है वो सब सही है. और फिर अपने हस्ताक्षर करते हो. करते हो कि नहीं? तो ऐसे ही हमने कब लिख कर दिया कि हम जो लिख कर दे रहे हैं उसका पालन करेंगे?” उसके बाद अतिथि मास्टरों ने मंत्री जी को छोड़कर, अपने यूनियन के नेताओं को पीटा, “सालों इतना लिखवाया था, तो ज़रा सी बात और नहीं लिखवा सकते थे?” ये है लेखन का महत्व. और अधिकांश भारतीय इसको जानते भी हैं.

बच्चा पेपर देने जा रहा है, माँ-बाप कह रहे हैं- “पूरी कॉपी भर कर आना.” बालक आज्ञाकारी है. वह कॉपी से कॉपियां बांध रहा है. उसे उत्तर से अधिक सुतली की चिंता है. प्रश्न आया है- आरबीआई क्या है? इसके कार्य लिखिए! वह पीछे बैठे अपने मित्र से खुसफुसाता है- “बस एक लाइन बता दे, बाकी तो मैं लिख लूँगा.” बालक उस देश का सच्चा सपूत है, जहाँ बड़े-बड़े भाष्यकार हुए. उसे अह्म ब्रह्मास्मि, तत् त्वम असि जैसा बस एक सूत्र चाहिए. वह भाष्य लिख देगा. पीछे बैठा मित्र कहता है- “अरे यार वही जो बैंकों को कंट्रोल करता है.” बालक शुरू करता है – भारत एक महान देश है. यहाँ समय-समय पर महान संस्थाओं की रचना की गई है. संस्थाओं से ही व्यक्ति का अस्तित्व है. …. जिस प्रकार यदि नियंत्रण न हो तो व्यक्ति उच्श्रंखल हो जाता है उसी तरह नियंत्रण न होने पर बैंक भी उच्श्रंखल हो जाते हैं. …. महावीर स्वामी ने नियंत्रण पर विशेष बल दिया है….. जिस तरह बैंक हमारे जीवन को नियंत्रित करते हैं उसी तरह आरबीआई बैंकों को नियंत्रित करता है….. अतः आरबीआई का देश के विकास में महान योगदान है. सात पृष्ठ भर कर वह सन्तोष का अनुभव करता है. एक शब्द को हज़ार शब्द के उत्तर में बदलना कोई हमसे सीखे. तीन घण्टे में कॉपियों का अच्छा गट्ठर बन जाता है. कॉपी अब जाँचने वाले के पास पहुँच जाती है.

जाँचने वाले भी उदार हैं. वे कॉपियों को तोल कर अंक देते हैं. बालक पास हो जाता है. अब वह पीएचडी करेगा. एमए करने के बाद पीएचडी करना उसी तरह ज़रूरी है, जिस तरह पजामा पहनने के बाद नाड़ा बांधना. नाड़े की तरह पीएचडी भी हमारी सम्पूर्ण अर्जित शिक्षा को सम्भालती है. कमजोरियों को छुपा कर रखती है. कोई कुछ पूछे, उस से पहले आप बता दें कि भाई मैं पीएचडी हूँ. फिर वो कुछ नहीं पूछेगा. लोग दनादन पीएचडी लिख रहे हैं. टाइपिंग की दुकानें गुलज़ार हैं.

निष्कर्ष ये है कि लोग भरे बैठे थे. शाम को ऑफिस से थक कर आते तो देखते कि लेखक महोदय ने फिर कुछ लिख दिया है. धैर्य से चाय-दारू के साथ उसे गटक जाते. जैसे ही कोरोना का लॉक-डाउन हुआ बस! लोगों ने कहा – साले बड़े लेखक बनते थे. अब हम बताते हैं, हम पर क्या बीतती है. ये लो कविता! ये लो कहानी! ये लो ग़ज़ल! और ये लो व्यंग्य! और दें? आया समझ मे?

लेखकों को अब पाठक बन कर समझ आ रहा है कि उन्होंने जनता का कितना उत्पीड़न किया है. इसीलिए लेखकों को समय-समय पर अपने गुनाहों की माफ़ी माँगते रहना चाहिये. मिच्छामी दुक्कड़म का पाठ करना चाहिए.

मिच्छामी दुक्कड़म! मिच्छामी दुक्कड़म!

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