विद्रोहे बंगाली | एक बंगाली के संस्मरण

  • 11:50 am
  • 8 November 2021

‘एक बंगाली के संस्मरणः बरेली में विद्रोह का वृतांत, 1857’ उन दिनों बरेली में रहे एक बंगाली सज्जन के हवाले से विद्रोह का ख़ाका है. इस संस्मरण में जहां-तहां बरेली शहर के भूगोल, उस दौर के रईसों और आम जन की ज़िंदगी की हलचलों की परछाइयां भी मिलती हैं.

दुर्गादास के पिता छठवीं अस्थायी घुड़सवार (रेजीमेंट) पलटन में एक लिपिक के रूप में कार्यरत थे और अपनी पलटन के साथ उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी. दुर्गादास का जन्म 1895 में करनाल, पंजाब में हुआ था, जब उनके पिता की पलटन वहां ठहरी हुई थी. अगले क़रीब 15 वर्षों में विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए वह वाराणसी आए जहां दुर्गादास अपने एक संबंधी के घर रहने लगे और बनारस कालेज में शिक्षा प्राप्त करने लगे.

सन् 1851 में अकस्मात उनके पिता की मृत्यु हो गई और उनके परिवार के लिए यह एक कठिन काल था क्योंकि कोई और कमाने वाला व्यक्ति नहीं था. दुर्गादास ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और नौकरी तलाशने लगे. कुछ समय बाद और बिना कुछ लिए वह वाराणसी से 14 मील दूर सुल्तानपुर पहुंचे. यहां आठवीं अस्थायी घुड़सवार पलटन रुकी हुई थी. दुर्गादास को पता चला कि सेना में लिपिक का एक पद रिक्त है. हाथ में एक प्रार्थनापत्र लेकर वह मुख्य लिपिक के पास पहुंचे जिसने उन्हें अपने एक संबंधी को भरती किए जाने के कारण यह सूचना दी कि यह पद अभी हाल में ही भरा जा चुका है.

दुर्गादास तब ले.बीचर से मिले जो पलटन के कमांडिंग अधिकारी थे, और दुर्गादास के पिता से परिचित थे. बीचर ने दोनों के लिए – दुर्गादास तथा वह नियुक्त व्यक्ति जो मुख्य लिपिक का संबंधी था- एक परीक्षा की व्यवस्था की. दूसरे व्यक्ति के परीक्षा में पूर्णतः असफल हो जाने के कारण दुर्गादास को पलटन में लिपिक नियुक्त कर दिया गया. दुर्गादास की माताजी इससे प्रसन्न नहीं थीं क्योंकि उन पर कुछ धन था और वह चाहती थीं कि दुर्गादास अपनी शिक्षा जारी रखें .

अक्टूबर 1851 के अंत में दुर्गदास ने 40 रुपये माहवार पर अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी मैकंजी के सहायक के रूप में नियुक्ति प्राप्त की. मुख्य लिपिक जदुनाथ बसु उनसे शत्रुता रखने लगे क्योंकि उनके संबंधी का चयन नहीं हुआ था. परंतु वह कुछ कर नहीं सके क्योंकि कमांडिंग अधिकारी दुर्गदास के पक्ष में थे. कुछ दिनों बाद पलटन हांसी, पंजाब चली गई. बीचर के सहयोग के कारण दुर्गादास को तीन माह का अग्रिम वेतन प्राप्त हो गया.

दुर्गादास की माताजी ने उनके इतनी दूर जाने का विरोध किया परंतु दुर्गादास अपने निर्णय पर अडिग रहे. 5-7 नवंबर के बीच पलटन ने सुल्तानपुर छोड़ दिया. मार्ग पर अलीगढ़ में दुर्गादास बीचर का व्यक्तिगत खाता भी देखने लगे और बदले में 15 रुपये माहवार अतिरिक्त प्राप्त करने लगे. तब मैकंजी ने दुर्गादास को यह पेशकश की कि अगर वह अंग्रेज़ी मेस का हिसाब भी देखने लगें तो उन्हें 15 रुपये और मिल जाया करेंगे. दुर्गादास इसके लिए राजी हो गए. इस प्रकार जब वह हांसी पहुंचे तो दुर्गादास का वेतन बढ़कर 95 रुपये माहवार हो चुका था.

हांसी पहुंचने के बाद दुर्गादास सिपाहियों के पत्रों पर भी कार्य करने लगे. इनका पहले परीक्षण किया जाता था और तब भेजा जाता था. पहले यह कार्य मुख्य लिपिक जदुनाथ बसु करते थे, परंतु वह इस कार्य को रूखेपन से करते थे. अतः यह कार्य दुर्गादास को दे दिया गया और इसके लिए उन्हें 20 रुपये माहवार और मिलने लगे. उनका कुल वेतन अब 115 रुपये महीना पहुंच गया था. हांसी में दुर्गादास प्रसन्न थे. उन्होंने लिखा कि “मुख्य अधिकारी का प्रेम कोई नहीं भूल सकता. मेरी सब सिपाहियों से मित्रता हो गई है. सभी सिपाही मेरा आदर करते हैं क्योंकि मैं एक ब्राह्मण हूं.”

इसी समय, सन् 1853 में आदेश मिला कि पलटन बर्मा जाएंगी. दुर्गादास अपनी माताजी के पास आए और उन्हें यह समाचार सुनाया, जिस पर उन्होंने दुर्गादास से नौकरी छोड़ने को कहा परंतु दुर्गादास ने उन्हें समझा दिया कि ले.बीचर उन्हें बहुत प्रेम करते हैं और वह उन्हें किसी ख़तरे में नहीं जाने देंगे. इस यात्रा का वृत्तांत यहां देने की कोई आवश्यकता नहीं है. केवल दिलचस्प तथ्य यह है कि हिंदू सिपाहियों ने इस आधार पर स्टीमर से जाने से इनकार कर दिया कि उनके पीने के पानी की कोई पृथक व्यवस्था नहीं थी. जाति नियमों के अनुसार इससे वे अपवित्र हो जाते.

आख़िरकार अधिकारियों ने मिट्टी के बड़े घड़ों की व्यवस्था की, जिनमें गंगा का पानी भरा गया और उसे चौबीस घंटे सिपाहियों की निगरानी में रखा गया. मुख्य लिपिक जदुनाथ बसु ने दो माह का अवकाश ले लिया और उनका कार्य भी दुर्गादास को सौंप दिया गया. बर्मा में भी वह कलक्टर के कार्यालय में एक घंटा अधिक कार्य करने लगे और उन्हें 100 रुपये प्रतिमाह अधिक प्राप्त होने लगे. इस प्रकार बर्मा में उनका वेतन 365 रुपये प्रतिमाह था. उनका कोई व्यय नहीं था क्योंकि वह एक अन्य बंगाली के घर पर रहते थे जो उनके कपड़ों के पैसे भी दे देते थे. 1856 में पलटन वाराणसी के समीप सुल्तानपुर वापस आई, जहां उनका विवाह हो गया. अपनी माताजी और पत्नी को वाराणसी छोड़कर वह अपनी पलटन के साथ 1856 के अंत में अकेले बरेली आए.

दुर्गादास जब 21 वर्ष की आयु में बरेली आए तब उनके पास कई वर्षों का कार्य अनुभव था. बरेली में विद्रोह के समय की स्थिति को समझने के लिए उनका वर्णन अत्यंत उपयोगी हैं जो 1856 के अंत और 1857 के प्रारंभ में बरेली में सेना की स्थिति और मुख्य निवासियों के बारे में जानकारी देता है.

बरेली एक बहुत पुराना शहर है किंतु उसे घेरने वाली कोई दीवार नहीं थी, इस तथ्य के बावजूद वहां से बहुत सारी युद्ध सामग्री गुज़रती थी. शहर के अंत में एक छोटा क़िला था जो कि नष्ट हो गया था. वहां कभी हथियार और गोला-बारूद रखा जाता था. सेना की छावनी शहर से करीब एक मील दूर थी. 1857 के आरंभ में कंपनी की तीन पलटन, घुड़सवार सेना, तोपख़ाना और पैदल सेना, यहां पर ठहरी हुई थी.

शहर से छावनी की ओर तीन सड़कें जाती थीं. मध्य वाला मार्ग इन्फेंटरी लाइंस की ओर जाता था, बायां मार्ग घुड़सवार और दाहिना मार्ग तोपख़ाने की ओर जाता था. दुर्गादास घुड़सवार सेना में लिपिक के पद पर कार्यरत थे परंतु उन्होंने इन्फेंटरी लाइंस के पीछे 5 रुपये महीने पर घर किराए पर ले लिया था. आस-पास छह घर थे, जिनमें से कुछ 2 रुपये महीने से भी कम किराए पर उपलब्ध थे. परंतु दुर्गादास ने बड़ा घर चुना. घर के आंगन में दो अस्तबल थे, एक कमरा सेवक के लिए था और एक रसोईघर था. घर में दो शयन-कक्ष तथा एक अतिथि कक्ष था.

उस समय करीब बारह से चौदह बंगाली परिवार बरेली में रह रहे थे, जिनमें कुछ परिवार दुर्गादास के घर के पास रहते थे, अन्य शहर में रह रहे थे. वहां हरदेव और हर गोविंद बंद्योपाध्याय नाम के दो भाई थे, जो दुर्गादास के दूर के संबंधी थे. उनका पैतृक घर बाग़ बाज़ार कलकत्ता में था. उनके पिता वाराणसी आ गए थे, जहां इन दोनों भाइयों का जन्म हुआ था. उस समय वह बरेली के कमिश्नर के दफ्तर में कार्यरत थे. एक अन्य बंगाली कृष्णचंद्र पाल बरेली के तत्कालीन पोस्ट मास्टर थे. तीन अन्य बंगाली भी डाकघर में काम करते थे.

भारतचंद्र चट्टोपाध्याय, ब्रिगेडियर सिबाल्ड, जो बरेली की सारी सेना के प्रमुख थे, के दफ़्तर में मुख्य लिपिक थे. हरिमोहन सरकार पैदल सेना में मुख्य लिपिक थे और दुर्गादास घुड़सवार सेना में मुख्य लिपिक बन गए थे. दुर्गादास के भाई काशी प्रसाद, बरेली के कमिश्नर के कार्यालय में कार्यरत थे. कलक्टर के दफ़्तर में एक मुखर्जी भी थे, जो बड़े कट्टरपंथी ब्राह्मण थे. वहां दो अन्य बंगाली भी थे, जो मुखर्जी के अधीन कलक्टर के दफ़्तर में कार्यरत थे.

दुर्गादास के नानाजी रामकेवल चक्रवर्ती भी कलक्टर के कार्यालय में कार्यरत थे और हाल में ही 15 रुपये माहवार की पेंशन पर सेवानिवृत्त हुए थे. दुर्गादास ने लिखा है कि बंगालियों के इस छोटे से समूह के मध्य मित्रता थी. वह यह भी दावा करता है कि उसका घर शाम के बाद बंगालियों का मिलन-स्थल बन गया था जो कि बरेली में उसकी जीवनशैली को दर्शाता है.

बंगाली न केवल शनिवार और रविवार को दुर्गादास के घर में रात्रि-भोज करते थे, वरन कई नर्तक समूहों के नृत्य का भी आनंद उठाते थे. वह प्रतिदिन सुबह अपनी गाय का एक सेर दूध पीता था. प्रतिदिन उसके घर में देवी काली को एक बकरे की बलि चढ़ाई जाती थी. उनके द्वारा रोज दो सेर मछली खरीद कर लाई जाती थी. उस समय बरेली में ढाई सेर घी एक रुपए में मिल जाता था. अच्छा चावल जो पीलीभीत से आता था, साढ़े तीन रुपए प्रति मन पर उपलब्ध था. मोटा चावल 2 रुपये प्रति मन था. बढ़िया आटा एक रुपये में 32 सेर लिया जा सकता था.

अच्छा दूध 1 रुपये का तीस सेर था. एक बकरी का दाम आठ आना था. एक सेर मछली 2 आने की थी. केवल सब्ज़ियां कुछ महंगी थीं. नैनीताल का आलू दो पैसे का एक सेर बिकता था. एक बड़ी फूल गोभी एक पैसे की थी. बरेली के आस-पास बड़ी संख्या में आम के बाग थे और हर दूसरे वर्ष यह आम मौसम में पांच आने सैकड़ा बिकता था. दुर्गादास और उनके भाई जैसे व्यक्तियों के लिए जिनकी कुल आय (दोनों को मिलाकर) 300 रुपये प्रतिमाह से अधिक थी, यह जीवन आरामदायक और समृद्धियुक्त था.

दुर्गादास जब पहली बार 1856 के अंत में बरेली आए थे, तब उनके पास लगभग 32,000 रुपये थे, जो उन्होंने अपने घर में एक लोहे के संदूक में रखे हुए थे, जो वह बर्मा से लाए थे. उन्होंने लिखा है कि उस समय बैंक में पैसा जमा करने का कोई चलन नहीं था और उन्होंने अंग्रेज़ अधिकारियों और सिपाहियों दोनों को ब्याज पर ऋण देना आरंभ कर दिया जिससे उन्हें 800 रुपये प्रतिमाह की आय होने लगी. इस धन के एकत्र होने का कारण यह था कि बर्मा में दुर्गादास एक बंगाली कृष्ण नाथ बंद्योपाध्याय के घर पर रहते थे, जिसने उनसे कुछ भी लेने से इनकार कर दिया था. परिणामस्वरूप उनका पूरा वेतन जमा हो गया.

बर्मा से वह अपने साथ 12,000 रु. लाए थे और शेष राशि उन्हें हुगली ज़िले में वसीयत में प्राप्त पैतृक संपत्ति से मिली थी. अपनी शाहख़र्ची से जीवन व्यतीत करने के कारण दुर्गादास शीघ्र ही बरेली के हिंदुओं और मुसलमानों के उच्च वर्ग में प्रसिद्ध हो गए. उनके मित्र और जान-पहचान वालों में राजा नहाबत राय, लाला लक्ष्मी नारायण, राय चेतराम, राजा लेखराज थे जो सभी बरेली के सम्मानित धनाढ्य लोग थे. मुसलमान कुलीन वर्ग में वह नवाब ख़ान बहादुर ख़ां, नवाब हाफ़िज़ नियामत खान, हकीम सादात अली, अल्ताफ़ अली आदि से परिचित थे. इनमें से कुछ के दुर्गादास काफ़ी क़रीबी थे. उनके अन्य मित्रों में बैजनाथ मिश्र जमींदार और साहूकार थे. उनका बरेली में एक भव्य घर और कई बाग़ थे. वह एक रूढ़िवादी हिंदू थे और अत्यंत धनी व शक्तिशाली व्यक्ति थे, जिनसे दुर्गादास के घनिष्ठ संबंध थे.

बैजनाथ मिश्र पर 16 घोड़े और आठ गाड़ियां थीं. वह अंग्रेज़ों के काफ़ी क़रीब थे और निस्संदेह उनके पसंदीदा व्यक्ति थे. विद्रोह के दौरान उन्होंने अंग्रेज़ों का पक्ष लिया और अंग्रेज़ों की विजय के बाद उन्हें राजा की उपाधि प्राप्त हुई और विस्तृत जागीरें इनाम में मिलीं. लाला लक्ष्मी नारायण संभवतः बरेली के सबसे धनी व्यक्ति थे. वह बरेली और दिल्ली की सरकारों के कोष के कोषाध्यक्ष (ख़ज़ांची) थे. उनका बरेली में एक अत्यंत सुंदर बाग़ था, जो कश्मीरी बाग कहलाता था और सम्मानित अंग्रेज़ और भारतीय उसमें घूमने जाते थे. उनके पास क़रीब चालीस घोड़े थे. राजा नहाबत राय एक कट्टरवादी ब्राह्मण थे. वह भी एक ज़मींदार थे जिनकी वार्षिक आय कई लाख रुपए थे. उनका एक भव्य घर था. वह हाथी, घोड़े, ऊंट और कई प्रकार को गाड़ियां रखते थे.

नवाब ख़ान बहादुर ख़ां रुहेलखंड के प्रथम नवाब हाफ़िज़ रहमत ख़ां के पौत्र थे. जैसे पहले कहा गया, अवध के नवाब शुजा ने अंग्रेज़ी फौज की मदद से हाफ़िज़ रहमत ख़ां को पराजित कर उनकी हत्या कर दी थी. दुर्गादास के अनुसार अंग्रेज़ सरकार सम्मान में ख़ान बहादुर ख़ां को 100 रुपये माहवार पेंशन देती थी. वह सदर अदालत के न्यायिक अधिकारी भी नियुक्त हुए थे और उस पद से पेंशन सहित सेवानिवृत हुए थे. दुर्गादास के अनुसार ख़ान बहादुर ख़ां की आय 500-600 रुपये प्रति माह थी. सन्‌ 1856 के अंत में दुर्गादास ने उन्हें काफी वृद्ध देखा था. उनके चचेरे भाई नवाब नियामत ख़ां उस समय एक अलग घर में रहते थे. वह सरकार के लिए कार्य करते थे और 75 रुपये वेतन पाते थे. तथापि उनकी आय भी 200 रुपये माहवार से कम नहीं थी.

नियामत ख़ां के सबसे बड़े पुत्र चुन्नू मियां थे, जिनकी आयु करीब 25 वर्ष थी और वह देखने में सुंदर थे. परंतु उन्हें कोई कार्य नहीं था और वह हर समय सितार बजाते रहते थे. दुर्गादास के घर वह सितार बजाने के लिए निरंतर आया करते थे. सन्‌ 1857 के आरंभ से ही दुर्गादास उनके लिए अपनी गाड़ी भेज देते थे और बहुधा उनके खाने, पहनने और अन्य व्यय भी कर दिया करते थे. दुर्गादास उन पर प्रतिमाह 30 रुपये व्यय करते थे. चुन्नू मियां के छोटे भाई नन्हें मियां 19 वर्ष की आयु के थे. जब उनके बड़े भाई नहीं होते थे तब वह भी दुर्गागास के घर सितार बजाने आया करते थे. नन्हें मियां का विवाह ख़ान बहादुर ख़ां की इकलौती पुत्री से हुआ था.

दुर्गादास अपनी माताजी और पत्नी को वाराणसी में छोड़कर अपने भाई के साथ बरेली में रहा करते थे. उनके पास गायों और 11 सेवकों के अतिरिक्त चार घोड़े और दो गाड़ियां थीं. 32,000 रुपये में से दुर्गादास 20,000 रुपये उधार दे देते थे, और जैसा पहले बताया जा चुका है कि उधार से उन्हें लगभग 800 रुपये प्रतिमाह का ब्याज प्राप्त होता था. बरेली में भोजन की क़ीमतों को देखते हुए दुर्गादास और अन्य बंगालियों के लिए जीवन बहुत सुखद था और इसके लिए वह स्वयं को, अंग्रेज़ अधिकारियों जैसे एनसाइन बीचर और कर्नल मैकंजी, का ऋणी मानते थे. सिपाही जानते थे कि दुर्गादास अंग्रेजों का सबसे पसंदीदा भारतीय कर्मचारी था, जबकि अंग्रेज़ सोचते थे कि सभी सिपाही दुर्गादास का आदर करते हैं.

विद्रोह के विषय में दुर्गादास के विवरण को जानने से पूर्व हम यहां दुर्गादास के जीवन की कथा को संक्षेप में पूरा कर लें. दुर्गादास सन्‌ 1858 में हुए हल्द्वानी के युद्ध में उपस्थित थे जब अंग्रेज़ों ने चौकी पर हमला किया था. वह बरेली के युद्ध में भी उपस्थित थे परंतु उन्होंने उसका वर्णन नहीं किया है. अंग्रेज़ों की विजय ने दुर्गादास के जीवन और नौकरी में स्वाभाविक रूप से एक नवीन ऊर्जा उत्पन्न की, परंतु उसके विषय में वह आश्चर्यजनक रूप से चुप हैं. परंतु इसी समय कभी अंग्रेज़ों ने उन्हें गबन करने का दोषी पाया और दुर्गादास को कुछ समय जेल में भी व्यतीत करना पड़ा.

दुर्भाग्य से दुर्गादास इस काल का वर्णन नहीं करते हैं. जेल से बाहर आने पर उन पर एक भी पैसा नहीं रहा और वह अपनी पत्नी के साथ इलाहाबाद में एक छोटी गली में एक कमरे में रहने लगे. जहां उनकी मुलाकात बंगाली जर्नल जन्मभूमि के संपादक से हुई. शीघ्र ही संपादक के आग्रह पर उन्होंने सिपाही विद्रोह के अपने संस्मरण लिखने प्रारंभ किए जो उस जर्नल में धारावाहिक ‘मेरी जीवन कथा’ शीर्षक से सन्‌ 1891 से प्रकाशित हुए. परंतु इससे उनकी आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी और वह इटावा चले गए जहां सन्‌ 1914 में उनकी मृत्यु हो गई. उनके संस्मरण सर्वप्रथम 1924 में कलकत्ता से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए जिसका शीर्षक विद्रोहे बंगाली (विद्रोह में बंगाली) था.

(प्रो.अनिरूद्ध रे के लेख का अंश. यह लेख उदय प्रकाश अरोड़ा और एस.एन.आर.रिज़वी की संपादित किताब ‘1857 और रुहेलखंड’ में संकलित है.)

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