मुखौटों का इंसान से नाता 32 हज़ार साल पुराना

गिरीश कर्नाड के नाटक ‘अग्नि और बरखा’ में एक प्रसंग है, जब नाटक के अंतर्गत इंद्रविजय नाटक का मंचन होना है. नाटक में अरवसु को वृत्रासुर की भूमिका करनी है इसके लिए उसे वृत्रासुर का मुखौटा पहनना पड़ता है और अभिनय के दौरान वह भूमिका से बाहर निकल कर वृत्रासुर को जीने लगता है. कर्तानट को पता चल जाता है कि यह अरवसु नहीं, वृत्रासुर का मुखौटा है जिसकी प्रवृतियां अभिनेता बने अरवसु पर हावी हो गई हैं. इसीलिए जैसे ही नितिलाई मुखौटा अरवसु के मुख से निकालती है वह सामान्य हो जाता है. मुखौटे के उपयोग, उसको धारण करने का औचित्य और उसके गुणधर्म को बताने के लिए यह संदर्भ बहुत ही उपयोगी है जिसका रंग-बिरंगा रूप, भंगिमा हमेशा से ही मनुष्य को आकर्षित करता रहा है. कलाओं और सार्वजनिक जीवन में जिसकी एक साथ उपस्थिति रही है.

मुखौटा का शाब्दिक अर्थ है जो मुख को ओट में ले जाए यानी छिपा ले जाए. उड़िया में ‘छउ’ शब्द मुखौटे का पर्याय है, जिसका अर्थ करते हुए शशधर आचार्य कहते हैं कि छ का मतलब है छाना और उ का मतलब है उपांग यानि किसी अंग को छा लेना. मुखौटा वही तो होता है जो मुख पर छा जाता है. अंग्रेज़ी में मुखौटा का पर्याय है ‘मास्क’, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार जिसका अर्थ है, ‘जो चेहरे को ढक ले, रूप बदलने के लिए प्रयोग में आए, किसी को डराने के लिए, मनोरंजन के लिए’. मनोरंजन और डराने के जिक्र से बचपन की एक स्मृति कौंधती है, जिसमें ‘बाकुम’ कहे जाने वाले लोक कलाकार कपड़े और बटन से बना मुखौटा पहन कर दरवाज़े-दरवाज़े घूमते थे. बच्चे उससे डरते थे और बड़ों का मनोरंजन होता था. अंग्रेज़ी के शब्द ‘मास्क’ की उत्पत्ति का संदर्भ फ़्रेंच के मास्क्यू, इतालवी के मास्करा, लैटिन के मस्का से है, जो अरबी के मसखरा से प्रभावित है. मसखरा जो तरह-तरह के रूप बदल लेता है, लोगो को हंसाता है. भारत के पारंपरिक नाटकों मे इस मसखरे की मौजूदगी रहती है जो अजीबो-गरीब मेकअप में रहता है, जिससे उसकी शक्ल बदल जाती है.

मुखौटे का मतलब एक ऐसा आवरण है, जिसे धारण करने से रूप बदल जाता है, व्यक्ति किसी और का प्रतिरूप बन जाता है जैसा कि पहले ही हमने अरवसु के मुखौटा पहन लेने के संदर्भ में देखा है. मुखौटे और उनके बहुत से रूप सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों का अहम माध्यम है. यह उन बहुत से तरीकों में से एक है, जिसके ज़रिए संस्कृतियां अपनी पहचान स्थापित करती हैं, संवेदनाएं प्रकट करती हैं, अपनी आंतरिक और बाहरी यथार्थ की अभिव्यक्ति करती हैं. मुखौटा व्यक्ति के किसी एक पहलू के बजाए संपूर्ण व्यक्तित्व को प्रकट करता है. इसका संबध पहचान बदलने से भी है, जिसमें कोई अपनी पहचान छुपा लेता है या बदल लेता है.

मुखौटा कब से मानव के साथ है, इसका अनुसंधान करने वाले मानते हैं कि लगभग आरंभिक काल से ही, यहां तक कि मनोरंजन के लिए कलाओं के आविष्कार के पहले से, यह मानव समाज के साथ रहा होगा. इसकी उपस्थिति इतनी व्यापक है कि सभी सभ्यताओं के अवशेषों और जीवित संस्कृतियों में पाया जाता है. कला-संस्कृति की सरंक्षक कपिला वात्स्यायन ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में ‘रूप-प्रतिरूप’ नाम से मुखौटो की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी का आयोजन किया था, जिसमें दुनिया भर के मुखौटे शामिल किए गए. कपिला जी मानती हैं कि मुखौटों का पहला संदर्भ 30,000 ई. पू. के चट्टानों पर उकेरे गए चित्रों से ही मिलता है. इसके ठोस प्रमाण 2040 -1768 ई. पू. और ईसवी की पहली शताब्दी के बीच प्राचीन मिस्र से मिले हैं – मृतकों के चेहरे पर लगाए जाने वाले सोने या चांदी के मुखौटों की शक्ल में. मुअनजोदाड़ो और हड़प्पा की खुदाई में भी कुछ छोटी-छोटी मुखौटानुमा आकृतियां मिलती हैं. आदिम जनजातियों में पुरखों की याद में मुखौटा पहनने का रिवाज़ है, आदिम समाज के लोग उत्सव के समय या लोकाचार में मुखौटों का प्रयोग करते रहे हैं. एशिया, अमेरिका, अफ़्रीका, यूरोप, आस्ट्रलिया सभी महादेशों की आदिम जनजातियों में ऐसी परंपराएं मिलती हैं.

मुखौटों का सबसे अधिक प्रयोग नाट्य परंपरा में देखने को मिलता है. रंगमंच या प्रदर्शनकारी कलाओं की शुरूआत से ही मुखौटों के प्रयोग का उल्लेख मिलता है. यूरोपिय परंपरा में ग्रीक नाटकों से लेकर कमेदिया देला आर्ते में और इसके बाद भी मुखौटो का इस्तेमाल होता रहा है. शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ में मुख्य किरदार बाटम का मुख नाटक में कुछ अवधि के लिए गधे का हो जाता है. ग़ौर करने की बात है कि मुखौटे की उपस्थिति के बिना क्या ऐसे दृश्य लिखे जा सकते थे? मुखौटों का प्रयोग यूनानी नाटकों में केवल दिखावे के लिए नहीं था, बल्कि इनकी जड़ें यूनानी अनुष्ठानों से जुड़ी थी. ग्रीक देवता डायनोसिस की पूजा में मुखौटे प्रयोग में लाए जाते थे. हैलनिक जाति में मृतक को मुखौटा पहनाने का रिवाज रहा है, जो कि 16वीं शताब्दी ई. तक मिलता है. इस प्रकार सोने का मुखौटा मसोनिया साम्राज्य के प्रतीकार्थ में मिला है. ग्रीक नाटकों में ट्रैजडी हो या कॉमेडी अधिकतर अभिनेता मुखौटा पहनते थे, कोरस के अभिनेता भी. प्राचीन ग्रीक नाटकों का मंचन विशाल खुले रंगमंच (एम्फ़ीथिएटर) में होता था, अभिनय 5 से 20 हजार दर्शकों के लिए होता था. ज़ाहिर है कि अभिनेताओं से दर्शकों के बीच अच्छी ख़ासी दूरी होती थी तो मुखौटे अभिनेताओं को दूरी पर भी दृश्यमान बनाते थे. एक ही अभिनेता अलग-अलग मुखौटा पहनकर अलग-अलग भूमिकाएं भी निभाता था तो अलग-अलग क़िरदार निभाने के यथार्थ को स्थापित करने की यह युक्ति भी थी.

एशिया की विभिन्न पारंपरिक कलाओं में मुखौटों का इस्तेमाल होता है. जापानी नोह नाटकों में मुखौटों का उपयोग होता है. जावा, थाईलैंड, श्रीलंका, इंडोनेशिया आदि एशियाई देशों में मुखौटों की विभिन्न शैलियां मिलती हैं. नाटक के आदिग्रंथ भरत के नाट्यशास्त्र में भी उल्लेख है कि पशुओं के मुख वाले, मंच पर सिंह आदि किसी जानवर की योजना हो तो मिट्टी, लक़ड़ी, राख, लाख या चमड़े से बने मुखौटे का प्रयोग करना चाहिए. भरत केवल मुखौटे का प्रयोग और बनाने का उल्लेख भर नहीं करते हैं बल्कि कब और कैसे उपयोग करना चाहिए, यह भी बताते हैं.

कथकली, कुडियाट्टम, यक्षगान में अभिनेताओं का मेकअप ही ऐसा होता है कि लगता है कि मुखौटा धारण किए हुए हैं. मेकअप की परिपाटी ऐसी है, जिसमें चरित्र की वृति के अनुसार मेकअप तय है. उड़िसा के प्रहलाद नाटक, भागवत मेला, महाराष्ट्र में दशावतार, राजस्थान के गवरी, गंभीरा, बिहार के विदापत नाच, असम के अंकिया नाट, तमिलनाडु के तेरेकुत्तु, उड़िसा, बंगाल और झारंखंड के छउ, और रामनगर की रामलीला में भी मुखौटों का प्रयोग होता है.

प्रहलाद नाटक, भागवत मेला में हिरण्यकश्यपु और नरसिंह अवतार के लिए. दशावतार में दानव और मानव से अलग दिखने वाले पात्रों के लिए मुखौटों का प्रयोग होता है. अंकिया नाट में मानवेतर पात्रों जैसे गरूड़, मारीच आदि मुखौटा पहनते हैं. रामनगर की रामलीला में भी बानर और राक्षस आदि मुखौटा पहनते हैं. उत्तरांचल के गढ़वाल अंचल में लाटापत्तर नामक मुखौटा नाट्य प्रचलित है. गढ़वाल मंडल के चमोली ज़िले में भोटिया जनजाति बहुल गांव लाटा है. भोटिया लोग पत्तर नाट खेलेते हैं, जो मुखौटा का स्थानीय नाम है. हिमाचल इंप्रदेश में लाहौल स्पिति और किन्नौर अंचल में होंरिगफो, छम और छेशू आदि नाम से विविध मुखौटे नाट्य का प्रचलन है. ओमप्रकाश भारती कहते हैं कि भारतीय रंगमंच में मुखौटे का सबसे अधिक प्रचलन छउ में है. पुरुलिया और सरायकेला के सभी छउ अभिनेता मुखौटा धारण करते हैं. सरायकेला के छउ में तोता, सांप, सिंह, बाघ, हनुमान, रात आदि जैसे पात्रो के लिए मुखौटे का प्रयोग है. कलाओं में अधिकतर मानवेतर को दिखाने के लिए मुखौटो का प्रयोग किया जाता है, जैसे रामलीला में वानरों के लिए. लेकिन छउ में मानव और मानवेतर सभी किरदारों के लिए मुखौटों का प्रयोग होता है. मुखौटों से ही चरित्र की प्रवृति का आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है. इसलिए इनमें चरित्रों की भंगिमा के अनुसार मुखौटा बनाया भी जाता है.

अलग-अलग संस्कृतियों में मुखौटा बनाने की अलग-अलग प्रविधियां प्रचलित है. जैसे आदिवासी समाजों में जानवर के सींग, पक्षियों के पंख, लकड़ी और किसी-किसी समुदाय में हड्डियों के भी मुखौटे मिलते हैं. छउ में नदी में मिलने वाली खास तरह की मिट्टी का उपयोग होता है. आमतौर पर लकड़ी, धातु, चमड़ा, पत्थर, मिट्टी, कपड़ा, काग़ज़, प्लास्टर ऑफ पेरिस, रंग, शंख, सीपी, कौड़ी, चूड़ी, हाथी-दांत, सींग, पंख, फ़र, सूत, ऊन, चावल, लौकी, मोम, काग़ज़ की लुगदी इत्यादि सामग्रियों से मुखौटा बनाया जाता है. प्लास्टिक के आविष्कार के बाद प्लास्टिक से भी कई तरह के मुखौटे बनाए जाते हैं. मुखौटा बनाना भी एक कला है. छउ विशेषज्ञ शशधर आचार्य बताते हैं कि उन्होंने जीवन भर मुखौटा पहन कर अभिनय किया लेकिन उज्जैन में जब मुखौटा बनाने की कोशिश की तो सफल नहीं हो सके.

आखिर मुखौटों का दर्शन क्या है? मानव समुदाय को इसकी जरूरत ही क्यों पड़ी होगी? चूंकि मानव अपने जीवन में तरह-तरह की भूमिकाएं निभाता रहता है तो भूमिका के अनुरूप अपने चेहरे को बदलता रहता है. एक अलग धरातल पर इसे एक मुखौटा ओढ़ना भी कहा जा सकता है, जहां अपने क़िरदार के अलग-अलग शेड्स को प्रकट किया जाता है और उसको छुपाया भी जा सकता है. निदा फाज़ली ने लिखा भी है “एक आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी”. तो कला चूंकि मानव की ही संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है, इसलिए इसमें भी मुखौटे चले आए हैं जिससे किरदार बदलने में एक आसानी हो गई. रमेशचंद्र शाह लिखते हैं कि सामान्य से सामान्य लोग भी अपनी ज़िंदगी की यथावत नकल रंगमंच या परदे पर देख के खुश नहीं होते. वे कल्पना की उड़ान चाहते हैं, फैंटेसी चाहते हैं, यथार्थ चाहते हैं पर यथार्थ की कैद नहीं चाहते. उसका मशीनी दुहराव नहीं चाहते. मुखौटा उन्हें ‘मैं’ की अस्थिर चलायमान भ्रांति से छुड़ाकर एक ऐसी व्यापक चेतना और जीवंतता से जोड़ देता है जो उन्हें कहीं भी, किसी से भी जुड़ने को, कुछ भी बनने को मुक्त कर देती है. मुखौटा हमें इसी जन्म मे, इसी शरीर में पुनर्जन्म लेने की पात्रता प्रदान कर देता है.

आवरण चित्रः प्रभात


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