इब्ने सफ़ी बी.ए. | चालीस बरस बाद भी मक़बूल
एक समय था, जब बरेली शहर में घोषित तौर पर सिर्फ़ दो लोग ही पढ़े-लिखे हुआ करते थे – सत्यप्रकाश एम.ए. और राजाराम बी.ए.. पढ़ने में दिलचस्पी रखने वाले लोग इनके सिवाय एक और शख़्स को भी जानते थे हालांकि वह यहां रहते नहीं थे – इब्ने सफ़ी बी.ए.. जासूसी दुनिया के ज़र्द पन्नों वाले ऐसे तमाम अंक बाबूजी की शेल्फ़ में मिलते, जिनके नाम पढ़कर ही उन दिनों कई बार सिहरन होती. एक बार हिम्मत करके पढ़ ही डाला एक उपन्यास. जासूसी कथाओं की दुनिया से वह पहला परिचय था. फिर तो जितने अंक मिले, चोरी-छिपे सारे पढ़ डाले. वे उपन्यास हिन्दी में थे सो उसमें कर्नल फरीदी, गज़ाला और नवाब राशिदुज्ज़मा तो नहीं थे मगर कर्नल विनोद, कैप्टन हमीद, इमरान, राजेश, जॉली और मेकॅफ जैसे तमाम क़िरदारों से वाकफ़ियत हो गई. इन लोगों को जान लेने के बाद न तो इब्ने सफ़ी के उपन्यासों के टाइटिल डराते और न ही कवर पर छपी तस्वीरें. इब्ने सफ़ी के साथ ही उस शेल्फ में ऑर्थर कानन डायल, ई.एस.गार्डनर, अगाथा क्रिस्टी और कर्नल रंजीत भी होते. शरलॉक होम्स और पैरी मैसन के कारनामे जान लेने और मेजर बलवंत के गोल होते होंठों से सीटी की आवाज़ सुन लेने के बाद भी इब्ने सफ़ी का मुक़ाम अलग और बरकरार रहा. वह कौन हैं, कहां रहते हैं, यह सब जानने का तब न तो शऊर था और न इसकी ज़रूरत लगती थी.
इलाहाबाद गया तो एक रोज़ मुट्ठीगंज से गुजरते हुए एक पुराना पता ज़ेहन में कौंध गया – नकहत प्रकाशन, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद. जासूसी दुनिया के दफ़्तर का यही पता छपता था. तमाम लोगों से पूछते-पाछते आख़िर दफ़्तर तो खोज निकाला. मगर वहां पहुंचे तो पता चला कि प्रकाशन तो कब का बंद हो चुका. जासूसी दुनिया के उर्दू संस्करण के बंडल ज़रूर छत तक भरे हुए थे. मेरी मुश्किल यह कि अज़ीज़ कुरैशी की तमाम कोशिशों के बाद भी उर्दू पढ़ना नहीं आया. अंग्रेज़ी अनुवाद तो ख़ैर पहले ही आ चुके हैं मगर उनको पढ़ने में हिन्दी वाला लुत्फ़ नहीं. सो हर पढ़ने वाले को सहेजता था कि हिन्दी में इब्ने सफ़ी कहीं मिल जाए तो मेरे लिए लेते आएं. ओंकार को याद रहा तो उन्होंने एक ब्लॉग का लिंक भेज दिया, जहां से खून की बौछार (पुर-असरार कुंवा) डाउनलोड करने का पता मिलता है. हिन्दी में जासूसी दुनिया का पहला अंक है यह, ऐसा ब्लॉग पर लिखा पाया. हालांकि मार्च 1952 में छपे उनके पहले उपन्यास का नाम ‘दिलेर मुजरिम’ था. बाद में नोएडा जाने पर तो अनुराग ने हार्पर कॉलिंस से हिन्दी में छपे कुछ उपन्यास पढ़ा ही दिए.
जिन्होंने इब्ने-सफ़ी को पढ़ा है, वे शायद जानते हों कि इलाहाबाद के नारा में जन्मे असरार अहमद बंटवारे के बाद कराची जाकर बस गए. मगर उनके उपन्यासों के क़िरदार इनमें से किसी एक मुल्क के नहीं. रहस्य, रोमांच, रोमांस और परिहास बुनते इन उपन्यासों के क़िरदार दोनों ही मुल्कों के पढ़ने वालों को हमेशा अपने लगते रहे हैं. जिस दौर में दोनों मुल्कों के बीच चिट्ठियों का आना-जाना भी बंद हो गया था, उस दौर में भी उनके उपन्यास की पाण्डुलिपि इंग्लैंड या किसी और मुल्क के मार्फ़त इलाहाबाद पहुंच जाया करती थी. ताकि उनके पढ़ने वालों समय पर नए उपन्यास मिलते रहें.
नहीं मालूम कि कितने इलाहाबादियों को यह जानने में दिलचस्पी हो सकती है कि असरार नारवी के नाम से शेर कहने वाले यह शख़्स डी.ए.वी.स्कूल और इविंग क्रिश्चियन कॉलेज से पढ़कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाख़िल हुआ, अलबत्ता ग्रेजुएशन उनका आगरा यूनिवर्सिटी से पूरा हो सका. बचपन में पढ़े तिलिस्म-ए-होशरूबा के असर में लिखते-पढ़ते बड़े हुए इस नौजवान को ‘द नकहत’ में कविता खण्ड के संपादक का ज़िम्मा मिला, जब 1948 में अब्बास हुसैनी ने नकहत प्रकाशन शुरू किया था. यहीं उन्होंने छद्म नामों से लघुकथाओं और व्यंग्य लेखन में हाथ आज़माया. ‘द नकहत’ के लिए लिखी उनकी पहली कहानी ‘फ़रार’ जून 1948 में छपी. मगर इन सब प्रयोगों से उनके अंदर का लेखक संतुष्ट नहीं था. अब्बास हुसैनी से बात की और ‘जासूसी दुनिया’ का ख़ाका बन गया. और असरार नारवी ने इंस्पेक्टर विनोद और सार्जेंट हमीद के क़िरदार वाला पहला उपन्यास लिखा – दिलेर मुजरिम. इस पर लेखक का नाम छपा – इब्ने सफ़ी. मार्च 1952 में छपे इस उपन्यास की प्रेरणा विक्टर गुन के 1941 में छपे उपन्यास ‘आयरनसाइड्स लोन हैण्ड’ से ली गई थी. विक्टर के उपन्यास का नायक स्कॉटलैंड यार्ड का चीफ़ इंस्पेक्टर विलियम क्रोमवेल हुआ करता था, जिसे आयरनसाइड्स के नाम से पहचाना जाता. डिटेक्टिव सार्जेंट जॉनी उसका मातहत और संगी. 1939 से 1966 के बीच विक्टर ने इस श्रृंखला में 43 उपन्यास लिखे हैं.
उसी साल यानी 1952 में वह अपनी मां और बहन के साथ पाकिस्तान चले गए, विभाजन के बाद उनके पिता पहले ही वहां जा बसे थे. वहां उन्होंने असरार पब्लिकेशन्स शुरू किया और इस तरह जासूसी दुनिया दोनों देशों में छपने लगा. उनके उपन्यासों की ख़ूबी यह है कि पढ़ने वालों को वे नायक क़िरदारों के मुल्क की बाबत कुछ नहीं बताते. विनोद-हमीद सीरीज़ पढ़ते हुए आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि वे हिन्दुस्तान में रहते हैं और इमरान सीरीज़ से यह कि वह पाकिस्तान का बाशिंदा है, मगर यह अंदाज़ा ही होगा. राजेश सीरीज़ के सारे उपन्यास उन्होंने पाकिस्तान जाने के बाद ही लिखे हैं, मगर राकेश बिहारी का बेटा राजेश, जो ट्रांसमीटर पर बॉस बनकर भर्राई आवाज़ में अपने साथियों को निर्देश देता, आपको हिन्दुस्तान का बाशिंदा ही मालूम होगा.
जासूसी दुनिया हर महीने एक उपन्यास छापता, मगर इब्ने सफ़ी महीने भर में तीन-चार नॉवेल भी लिख डालते. 27 बरस में उन्होंने 127 नॉवेल लिखे. उनका आख़िरी नॉवेल ‘शहरी दीवाना’ था. उनके आठ उपन्यासों का अंग्रेज़ी में भी तर्जुमा हुआ है, इनमें फ़रीदी-हामिद की डॉ.ड्रेड सीरीज़ के चार नॉवेल का तर्जुमा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने किया है. अहमद सफ़ी ने इंटरव्यू में कहा था कि उनके वालिद के नॉवेल का ट्रांस्लेशन आसान काम नहीं क्योंकि सीधा तर्जुमा उनकी कहन की चुटकियों और हाज़िरजवाबी के तत्वों को हल्का कर देगा, परिहास के परिस्थितियों में तमाम और लोगों के अशआर के साथ ग़ालिब और मीर के शेर भी होते हैं तो उसका मर्म बनाए रखने के लिए ख़ास संवेदनशीलता और सलीक़े की ज़रूरत भी होती है.
26 जुलाई को 1928 को जन्मे इब्ने सफ़ी 1980 में 26 जुलाई के रोज़ ही दुनिया से रुख़सत हुए मगर फ़ेसबुक पर उनके नाम से बने कई पेज और उनको लाइक करने वालों की तादाद देखकर यह अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं कि उनका लिखा अब भी पढ़ा और पसंद किया जाता है.
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