लपूझन्ना वह बचपन है जो सचमुच हमने जियाः अशोक पांडे

  • 7:52 pm
  • 25 February 2022

अशोक पांडे के लिखने-पढ़ने से वाबस्ता लोगों की एक बड़ी दुनिया है, कोई उनकी कहन का क़ायल है, कोई ज़बान का मुरीद और मौज़ू के दीवाने भी बहुतेरे हैं. जो उनसे वाक़िफ़ हैं, जानते हैं कि लिखने की तरह की ही बेबाक़ी-बेलौसपन उनकी शख़्सियत में भी शामिल हैं. सहल ज़बान होने का जादू जैसे उनके लिखे में है, बात करने में भी देखा जाता है.

यह भी जादू से कम नहीं कि पिछले दिनों उनकी तीन किताबें एक साथ आईं – अलग-अलग विधा की ये किताबें ख़ामोशी से अपना काम किए जाने की उनकी फ़ितरत की गवाह भी हैं. ‘बब्बन कार्बोनेट’ उनकी कहानियों का संग्रह है, दुनिया की नामचीन महिलाओं की शख़्सियत पर केंद्रित लेखों का संग्रह ‘तारीख़ में औरत’ और उपन्यास ‘लपूझन्ना’ है. और ‘लपूझन्ना’ के साथ तो यह भी हुआ कि छपकर आने के हफ़्ते भर में इसकी सारी प्रतियाँ बिक गईं और प्रकाशक को इसका अगला संस्करण छापना पड़ा.

कविताओं के अनुवाद से शुरू करके अशोक पांडे ने अब विश्व साहित्य के कई नामचीन लेखकों की रचनाओं का अनुवाद किया है, इनमें से कुछ किताबें छपी हैं और तमाम पाण्डुलिपि की शक़्ल में उन्हीं के पास हैं. वॉन गॉग के जीवन पर इरविंग स्टोन की ‘लस्ट फ़ॉर लाइफ़’, फर्नान्दो पेसोआ की कविताओं और चुने हुए गद्य की ‘पृथ्वी की सारी ख़ामोशी’ शीर्षक से आई किताबें ख़ूब सराही गईं. महमूद दरवेश, निज़ार क़ब्बानी, अदुनिस, दुन्या मिखाइल, हालीना पोस्वियातोव्सका, होर्हे लुई बोर्हेस, नाज़िम हिकमत, माया एंजेलू, अन्ना अख्मातोवा, रिल्के, रोमां रोलां और निक्की जियोवानी समेत सौ से ज़्यादा रचनाकारों के अनुवाद उन्होंने किए हैं.

संवाद के सहयोगी मदन गौड़ ने अशोक पांडे से उनके अपने अदबी सफ़र और अदब की दुनिया के बारे में बातचीत की.

आपका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ इन दिनों चर्चा में है, इसके बारे में भी ख़ूब लिखा-पढ़ा भी गया है. इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ बताइए.

यह मेरा पहला उपन्यास है, 70 के दशक में रामनगर में बीते बचपन के दिनों की यादों का विस्तार है. नौ-दस साल की उम्र के बच्चे की निगाहों से देखी हुई छोटे-से क़स्बे की दुनिया, स्कूल, दोस्त, मास्टर, मेले-ठेले, खेल-कूद और कितने ही लोग, जिनसे हमारा साबक़ा पड़ता, और वे भी जिन्हें हमने दूर से देखा-जाना. इसके किरदार मेरे पहचाने हुए हैं, हाँ लिखते हुए ध्यान रखता था कि किसी की भावना को ठेस न लगे. रही ज़बान की बात तो वह तो वही है, जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी की ज़बान है, या यों कहें कि हुआ करती थी. बहुतेरे लफ़्ज़, नाम और संबोधन जैसे चलन से ग़ायब हो चुके हैं. लाज़मी भी है, तब से अब तक वह दुनिया भी तो कितनी बदल गई है.

ख़ैर, उन्हीं स्मृतियों को जब अपने ब्लॉग पर लिखना शुरू किया तो यह देखकर अच्छा लगा और हैरानी भी हुई कि बहुत से दोस्तों-पाठकों ने उसे पसंद किया, और क़िस्से लिखने को उकसाया भी. तो बाक़ी क़िस्से भी लिख डाले मगर वह किताब बनेगी, यह सोचकर नहीं लिख रहा था. और अब जब यह किताब आ गई है और लोग उसके बारे में जो कुछ कह रहे हैं, वह सब भला लगने वाला तो है.

आपने ब्लॉग का ज़िक्र किया, फ़ेसबुक पर भी गाहे-बगाहे आप जो लिखते हैं, उसका गंभीर पाठक-वर्ग है. सोशल मीडिया ने साहित्य और ख़ासकर हिंदी की दुनिया पर क्या असर डाला है?

यह कंप्यूटर क्रांति ही है, जिसने हिंदी साहित्य की दुनिया में भी क्रांति ला दी. मैंने सन् 2006 से ब्लॉग लिखना शुरू किया. तब डिज़िटल आज की तरह इतना व्यापक माध्यम नहीं हुआ करता था और सोशल मीडिया भी बहुत सीमित था. हाँ, ब्लॉग का जादू यह था कि आप अपने मन का लिख सकते थे और पढ़ने वालों की राय भी झट हाज़िर हो जाती थी. उसी दौर में बहुतेरे लोगों ने अपनी बात कहने के लिए ब्लॉग को ज़रिया बनाया. कविता-कहानी लिखने वाले हों या कला की दुनिया के लोग, उन्हें यह माध्यम जंचने लगा. सन् 2014-15 से तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया. ब्लॉग अकेला माध्यम नहीं रह गया. फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सएप ने लिखने वालों का ही नहीं, पढ़ने वालों का भी बड़ा वर्ग तैयार कर दिया है. मैं तो कहता हूं कि लेखकों और पाठकों को इसका ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना चाहिए.

आपका ब्लॉग ‘कबाड़खाना’ भी लगातार चर्चा में बना रहा…

सन् 2006 में जब मैने यह ब्लॉग शुरू किया तो मैं इसे खिलौना समझता था. तब मैने उसके साथ कई तरह की रचनात्मक शरारतें की लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया, मैं गंभीर होता गया, कई नए दोस्त जुड़े और साझे ब्लॉग की शक़्ल में यह नया आयाम लेने लगा. बहुत क्या कहूं. पहली सालगिरह पर मैंने लफ़त्तू हवाले से लिखा था कि कबाड़ख़ाना हम सब के लिए “तत्तान के पीते तुपे धलमेन्दल” का काम करता रहा है और हमारे समय के “अदीतों” की शिनाख़्त करने में मदद भी. सबसे बड़ी बात यह है कि ब्लॉग एक ऐसा प्लेटफ़ार्म है, जिस पर हमारा सीधा सामना पाठक से होता है. हम अपने मन की बात को स्वतंत्र रूप से सबके सामने रख सकते हैं. यानी मोहब्बत और नफ़रत दोनों स्थितियों को हम बांच सकते हैं.

हिंदी की किताबों का ज़िक्र होता है तो बाज़ार और बाज़ारवाद की चर्चा ज़रूर होती है. लेखन पर बाज़ार का सचमुच कितना दबाव है?

मैं हिंदी साहित्य पर इस तरह का कोई संकट नहीं मानता. हां, इसे प्रकाशकों की तरफ़ से खड़ा किया गया कृत्रिम संकट ज़रूर कह सकते हैं. हिंदी में सैकड़ों प्रकाशक हैं, और किताबें छप भी रही है, सिर्फ़ 400-600 तक. जो किताबें छप भी रही हैं, प्रकाशकों की कमज़ोर मार्केटिंग की वजह से पढ़ने वालों तक पहुंच नहीं पा रही हैं. आम पाठकों की ज़रूरत के हिसाब से किताबें उन्हें नहीं मिल पाती हैं.

मुझे तो लगता है कि छोटे कस्बों से निकलने वाली छोटी पत्रिकाओं ने हिंदी साहित्य को बचाने का ज़्यादा काम किया है. इन पत्रिकाओं की ही देन मानिए कि आज हिंदी लेखकों की कई पीढियां एक साथ काम कर रही हैं. हिंदी हो या अंग्रेज़ी, दोनों ही भाषाओं में पाठकों का संकट नहीं है. अंग्रेज़ी के हर बड़े लेखक की मूल के अलावा तमाम यूरोपीय भाषाओं में अनूदित किताबों की हजारों-लाखों प्रतियाँ तक बिकती हैं. वजह यही है कि अंग्रेज़ी वाले प्रकाशक पर्याप्त किताबें छापने के अलावा उन्हें पाठकों तक पहुंचा भी रहे हैं.

तो इस सूरते-हाल से पार पाने का तरीक़ा क्या है? क्योंकि पढ़ने वालों का तो कोई दोष नहीं.

प्रकाशक अपनी मार्केटिंग मजबूत करें, बिक्री के ऑनलाइन प्लेटफ़ार्म का इस्तेमाल भी बढ़ाएं तो शायद बात बन सकती है. हिंदी साहित्य के सामने जो नई चुनौती है, वह पैसा लेकर किताबें छापने वाले प्रकाशकों से है. ज़ाहिर है कि ऐसे में किताब के कंटेंट और स्तर का ख़्याल नहीं रखा जा रहा है. लोगों में किताबें छपाने की होड़ लगी हुई है. अपनी किताब छपाने के लिए लोग मनचाही रक़म देने को तैयार हैं और छापने वाले भी इसके लिए आसानी से तैयार हैं.

पहले प्रकाशकों को अच्छे लेखक की किताब का इंतज़ार होता था और वे स्तरीय किताबें ही छापने में यक़ीन करते थे. लेखकों और रचनाकारों को भी अपनी किताब तैयार करने में वर्षों लग जाते थे. मुझे याद है कि डॉ.वीरेन डंगवाल का पहला काव्य-संग्रह 45 वर्ष की उम्र में सामने आया था. तो पाठकों की ख़ातिर भी प्रकाशकों को बाज़ारू किताबें छापने से परहेज़ करना होगा. सूरत बदलने का यही तरीक़ा मेरी समझ में आता है.

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