क़ुर्रतुलऐन हैदर | अपने लेखन-सी शख़्सियत की मालिक
क़ुर्रतुलऐन हैदर! नाम भी लेखन जैसा ही कड़क, दमदार! वर्तनी और उच्चारण आसान नहीं! आत्मीयता के अलावा शायद इसलिए भी उनके करीबी उन्हें ‘ऐनी आपा” कहते हैं. बहुत पहले जब उन्हें और इस्मत चुगताई को पढ़ा था, तब मुस्लिम महिलाओं के लेखन की उस ऊँचाई को देखकर हैरानी हुई थी. अलीगढ़ से उनके सम्बन्ध के बारे में जानकर मिलने का मन हुआ था. लोगों से जो सुना, उसने मिलना कई बार स्थगित कराया. बहुत ग़ुस्सा करती हैं, ज़िद्दी हैँ, इंटरव्यू देती ही नहीं हैं.. आदि, न जाने कितनी बातें! उर्दू के रचनाकार बातचीत में उनके लेखन की उत्कृष्टता से अधिक व्यक्तित्व के डरावने पक्षों का ज़िक्र करते. कुछ ने यह भी कहा कि इस्मत और क़ुर्रतुलऐन हैदर, दोनों के लेखन पर चोरी के आरोप भी लगे हैं. ‘आग का दरिया’ नार्वे के इसी नाम के उपन्यास की नकल है. उनके बारे में अनुमानों-अफ़वाहों की कमी नहीं रही. मरहूम आले अहमद सुरूर ने मुझसे बातों में कहा था कि मैं जिन तीन राइटर्स को मेजर राइटर मानता हूँ, उनमें हैदर एक हैं. काज़ी अब्दुस्सत्तार, जिनके बारे में आम है कि वे आसानी से किसी की तारीफ़ नहीं करते और ख़ुद से बड़ा अगर वे किसी को मान लें तो यह अजूबा होता है, एक दिन कह रहे थे, “हाँ, मैं उन्हें पसन्द करता हूँ. मानता हूँ. उनका फैन हूँ, उनकी इज़्ज़त करता हूँ. इस समय दो ही नॉविलिस्ट हैं भारत में उर्दू के – एक वे, एक मै.”
मिलने का इरादा बना तो यह जानकर हैरानी हुई कि अलीगढ़ में उनका फ़ोन नम्बर, पता या हालचाल बता सकने वाले दो-चार लोग ही होंगे. अदीबों में दो-एक ही ऐसे होंगे जिन्हें उनके आज की ख़बर होगी. यह अलग बात है कि वे ख़ुद भी अपनी ख़बर देना नहीं चाहतीं – ख़बर देना नहीं चाहतीं; ख़बर बनना नहीं चाहतीं.
पहली बार फ़ोन किया तो उधर एक कम उम्र महिला की आवाज़ थी. जिस भान्जी के पास रहती हैं, शायद उनकी आवाज़ हो. तभी ‘हलो’ की बेहद कड़क, रोबीली आवाज़ सुनाई दी. सहमते- सकुचाते आदाब के बाद परिचय दिया, इच्छा बताई, ” आपको देखना, आपसे बातें करना चाहता हूँ.” सुनाई दिया, ” आप जो लिखेंगे, पहले मुझे दिखा लेंगे.” वायदा किया, तरह-तरह से आश्वस्त किया. बोलीं, “ठीक है! आ जाएँ!” दोबारा से समय की सुविधा पूछी, देर तक बातें हुई, उन्होंने कई बार, ‘ठीक है, ठीक है’ भी कहा, पर बाद में वह सब अजीब, उखड़ा, शुष्क-सा लगा. मिलने का उत्साह जैसे बाधित हुआ था. ख़ुद को समझाया, एक दिन चलकर मिल आने में हर्ज़ ही क्या है!
तय तिथि से एक दिन पहले फिर फ़ोन किया. वही महिला-स्वर था, ” उनके रिश्तेदार बैठे हैं, उनसे बात कर लें.” पुरुष स्वर ने कहा, “नहीं उनसे बात नहीं हो सकेगी. उनकी तबीयत ठीक नहीं है. कल ही अस्पताल से आई हैं. आपको क्या बात करनी है? क्या काम है?” बड़ी मुश्किल से वे पूछकर बताने के लिए तैयार हुए. बताया कि वे मैडम की भान्जी के पति हैं और थोड़ी देर में फ़ोन कर देंगे. फ़ोन आया, “वे कुछ भी सुनने या बताने की स्थिति में नहीं हैं. आप कुछ दिन बाद फिर फ़ोन कर लीजिएगा. हाँ, प्रेम कुमार साहब, आप वहाँ बीमारी का किसी से ज़िक्र न करें.” तरह-तरह से सोचता रहा. बीमारी की बात को गुप्त रखने का ऐसा आग्रह क्यों? उत्साह कुछ और ठंडा हुआ.
कुछ दिन पहले एक शाम अचानक उनका नम्बर मिला बैठा. वही महिला स्वर, ” जी, एक मिनट .” सुनाई दिया, “कोई प्रेम कुमार हैं.” कड़क आवाज़ ने झटके से बोला, “हलो!” “आदाब! आप कैसी हैँ अब? मैँ तब आने वाला था. सुना कि आप अस्वस्थ हो गईं.” तपाक और तेज़ी से कहा गया, ” बिलकुल ठीक!” “मैंने भी दुआ की थी. मैं इस संडे को आना चाहता हूँ.” “हाँ आ जाएँ. ठीक है!” “आदाब! थेंक्यू वेरी मच!” “ओ. के.”
घंटी बजाने के बाद सलवार-कुर्ते में आई एक भोली-सी, शान्त लड़की के पीछे-पीछे चलकर मैंने उस घर में प्रवेश किया. अभिवादन के बाद सोफ़े पर बैठते-बैठते देखा कि मेरे दाहिनी ओर सीधा -सा एक युवक शान्त-सहमा, चुप बैठा था. दो अन्य लडकियाँ सलवार-कुर्ते में थीं और इधर से उधर आ-जा रही थीं. एक प्रौढ़ा रसोई से निकलकर प्रवेशद्वार के पास की एक कुर्सी पर आ बैठी थीं.
“रेहाना, पानी लाओ, चाय लाओ!” मैडम मेरे ठीक सामने पैर लटकाये तख़्त पर बैठी थीं. बैठते ही पूछा, “कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं? अलीगढ़ की गन्दगी का क्या हाल है? उफ़, वहाँ की गन्दगी! वहाँ की सड़कें! इतने सारे सूअर वहाँ कहाँ से आते हैं? कोई रोकता क्यों नहीं उन्हें सड़कों पर घूमने से? आप बुलन्दशहर के हैं…उन्हें जानते हैँ? औरंगाबाद में हमारे अज़ीज़ रहते हैं. हाँ, क़ाज़ी साहब, शहरयार कैसे हैं?”
एक लड़की ने उन्हें गिलास थमाते हुए कुछ पी लेने को कहा. “रख दो. मेरे सर पर सवार मत हो.” ग़ुस्से की उस झलक ने सहमा दिया. चाय के साथ नमकीन, बिस्किट्स, सोनपपड़ी. कुछ लेने का कई बार रोबीला आदेश! महिलाओं की बहुसंख्या वाले उस घर में, अपने अलावा एक और सहमे-सकुचे, शान्त बैठकर चाय पीते युवक की उपस्थिति मुझे हिम्मत दे रही थी. धीमे से पूछ लिया, “आप मैडम की भान्जी के पति हैं?” “नहीं नहीं! मैं तो मैडम का राइटर हूँ.” या ख़ुदा, राइटर का राइटर! अनुमान के ग़लत निकलने के झटके से बचना चाहा, ” तो यह रेहाना क्या इनकी भान्जी है?” “नहीं, यह भान्जी नहीं है. मैडम के यहाँ रहती है.” “क्या काम करती है?” ख़ुद को समझाकर खिसियाहट दूर करनी चाही – रहन-सहन, अन्दाज़-अधिकार के इस आचरण को देखकर कौन इस महिला को सेविका मान सकता है!
तभी बाहर किसी ने घंटी बजाई. श्वेतकेश, धवलवस्त्र, भद्र-सी एक महिला, हाथ में गुलदस्ता लिए रेहाना के साथ अन्दर प्रविष्ट हुईं. साधिकार, बिल्कुल बग़ल में खड़े होकर पूछा, “पहचाना नहीं? मैं फ़ातिमा हूँ.” मैडम ज़ोर से हँसीं, ” ओफ़्फ़ो! मैं समझी कि कोई मिसेज खन्ना हैं.” मुझे बताने लगीं, “ये हमारे उर्दू के बुज़ुर्ग राइटर क़ाज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की बेटी हैं – फ़ातिमा! हम बचपन के साथी हैं.” गुलदस्ता हाथ में लेते हुए हैरानी से पूछा, “अरे, ये क्या! तुम गुलदस्ता लाई हो! तुम अँग्रेज़ हो क्या!” उन दोनों पुरानो दोस्तों की बातचीत के बीच मैंने उस युवक का परिचय प्राप्त किया. उससे सहयोग का निवेदन किया. मालूम हुआ कि राशिद नाम का वह युवक उर्दू में पी.एच.डी. है और कई वर्ष से मैडम के लिखने-पढ़ने में सहयोग कर रहा है. मौक़ा तलाश कर रेहाना से भी मदद की बात कही. दोनों ने बार-बार यही कहा, “ मुश्किल है. वे फ़ोटो नहीं देतीं. आप ज़िद करेंगे तो ग़ुस्सा हो सकती हैं.” आपसी बातों के बीच अचानक आपा मेरी ओर मुख़ातिब हुईं और बोलीं, “ये हमारी बचपन की दोस्त हैं. फ़ातिमा आलिम अली! ‘लैला के ख़ुतूत’ के लेखक क़ाज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की बेटी हैं. ये भी लिखती र्थी बहुत उम्दा. इनके मज़ामीन की किताब छपी है.” पता नहीं क्या ध्यान आया कि दोस्त से पूछने लगीं, “तुम्हारी शादी कब हुई?” “उनचास में.” “तुम हैदराबादी हो गईं, पर लहज़ा नहीं बदला. तुम्हारे पुराने दोस्त हैं हैदराबाद में?” दोस्त ने दो-तीन नाम बताए. विदेश और सर्दी को चर्चा चल पड़ी. मैडम कह रही थीं, “सिवाय इंग्लैंड के इन्सान कहीं नहीं रह सकता. कैनेडा हो या अमरीका – कहीं नहीं.” दोस्त समर्थन करती हैं, “हाँ बस वहाँ दुकानें देख लो, चेहरे देख लो.”
पाकिस्तान का ज़िक्र आया तो मैडम बताने लगीं, “वहाँ एक ट्राली आ जाती है हर घर में. सबके यहाँ एक ही-सा सामान. तरकारी वह नहीं खाते! सब्जी! कहने लगे, ‘अरे आप हिन्दुओं के यहाँ रहती हैँ, उन्हीं को तरह हो गई हैं कि आप तरकारी खाती हैं’.” दोस्त बोलीं, “अजीब बात है! हम हिन्दुस्तानियों को वे काफ़िर समझते हैं.” मैडम ने बताया, “वहाँ हमसे पूछा कि आपके यहाँ ईद मनाई जाती है?…मैंने सोचा इनका दिमाग़ क्या हो गया है? कहा कि हमें वहाँ हुक़्म है कि रोज़ दो वक़्त मन्दिर में जाकर पूजा करनी पड़ेगी. ताज्जुब कि सब टीवी देखते हैं, अख़बार पढ़ते हैं, फिर भी ऐसे सवाल करते हैं!” रामपुर में तो हे अल्लाह, इतना शोर कि कान फट जाएं! इतने कुन्द ज़हन हो गए हैँ लोग! काले नक़ली बाल, नक़ली ज़ेवर, अजीब तरह से बन-सँवर के रहना, आना-जाना शादियों में…,” दोनों बोले जा रही हैं. मैडम सुनाती हैं, “ हमारे यहाँ एक अज़ीज़ा आईं . पूछने लगीं कि आपके यहाँ रनिंग हॉट एण्ड कोल्ड वॉटर है? मैँने कहा कि गीज़र है. आख़िर हुआ क्या है? उन लोगों में हुआ जो खानदानी हैं. ऐसा नहीं कि उन्होंने पहले कुछ देखा न हो.” मैडम की हैरत व्यक्त हुई, “ऐसे अजीब सवालात! किसी ने पूछा, आपके पास गाड़ी एक ही है? हिन्दुओं के साथ रहकर आप ये करते हैं, वो करते हैं. हिन्दू – उनके लिए एक लफ़्ज़, जो डरावना भी है और ग़ुस्से-भरा भी है. नफ़्सियात क्यों इतनी बदल गई? गाने इंडिया के सुनेंगे. फ़िल्मों के आशिक. फिर भी… . नेवी में है एक कज़िन. एक दिन पूछा कि दिल्ली में पक्की सड़कें हैं? मैंने कहा कि कच्ची सड़कें हैं और बैलगाड़ियां चलती हैं. एम्बेसी के सामने पक्की करा दी हैं कुछ सड़कें सरकार ने. और देखो कि उसने मान भी लिया! हमारी एक कज़िन इंडिया से लाहौर गई. उसकी भान्जी ने अपनी माँ से कहा, अम्मा, आपा को कव्वाली सुनवा दीजिए. इन बेचारी को इंडिया में कव्वाली कहाँ सुनने को मिलती होगी. पूरी क़ौम का ब्रेनवॉश कर दिया है ताकि कम्पेरीज़न न कर सकें. उनसे मिलते हैं तो कोफ़्त होती है. समझदार, पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं अब!”
रेहाना से भान्जी को फ़ोन मिलवाया, “हमारी दोस्त आई हैं. आ जाओ!” तुरन्त छूटी बात के तार फिर जुड़ते हैँ, “ग़ुरबत की बात करते हैं, जैसे वहाँ सब बादशाह घूम रहे हैं. वे इस पर ख़ुश हैं कि उन्हें ख़बर नहीं कि दूसरे मुल्क़ों में क्या हो रहा है! शादियों में इन्तहा से ज्यादा फ़िजूलख़र्ची की जाती है. शादी के डिनर सात-सात दिन चलते रहते हैं.” मैडम का अफ़सोस मुखर होने लगा, “शादियाँ? उफ़, सात दिन तक चलती हैँ! इतना फैला देते हैं शादियों को. फ़िल्मी अन्दाज़ में लड़कियाँ कतार में आती हैं, दीये जलाती हैं. थाली में सिन्दूर! कल्चरल एक्टिविटी बहुत कम है. अब रफ़्ता-रफ़्ता ज़हन कुन्द हो गया है. अब से चन्द साल पहले तक यह हालत नहीं थी. गल्फ़ से आए पैसों ने उनको बहुत अमीर कर दिया है.” यकायक कुछ ध्यान आया हो जैसे. दोस्त से पूछने लगीं, “हैदराबाद के हालचाल कैसे हैं?” उसने बताया, “बंजारा हिल बुरा हो गया है अब. बम्बई लगता है. चट्टानें थीं न वहां, वे तोड़ दीं. अब न चट्टानें हैं, न वो हवा है.” “उफ़..चट्टानें तोड़ दीं. मैं तो उन्हें देखकर ख़ुश होती थी. कितना बुरा किया! रोका नहीं किसी ने. मैं तो उसे ख़ूबसूरत ओपन एयर सैरगाह मानती थी.”
दोस्त हैदराबाद में दाल पकाने का तरीका बता रही हैं. मैडम पूछे जा रही हैं. पूछने में अबोधता भी और विशेषज्ञता प्रदर्शित करने का सा भाव भी. बातों को जैसे पंख लगे हों. इरफ़ान हबीब का ज़िक्र, तैयब जी के ख़ानदान का ज़िक्र, उनकी बहन का ज़िक्र, सुरैया का ज़िक्र. फिर से पाकिस्तान का ज़िक्र. दोस्त बता रही हैं – कराची इज़ मिनिएचर इंडिया. यूपी वगैरह के लोग वहां कसरत से आबाद हैं. किसी कहानी के हवाले से बताया जाता है – “उस कहानी में जब रफ़ी साहब पाकिस्तान गए तो वहां चेकिंग वालों को अपने वालिद का नाम नबीजान बताया. चेकिंग वालों ने पूछा कि उनके कितने लड़के हैं? जो आता है अपने वालिद का यही नाम लिखाता है. किसे सही समझूं?“ मैडम बोलती हैं,“ग़लत हुआ. शुरू-शुरू में बहुत बंदरबांट हुई.” सुनते-सुनते मैंने ग़ौर किया कि मैडम अनेक लोगों को नाम ले-लेकर याद कर रही हैं, उनके बारे में विस्तार से पूछ-सुन रही हैं. सामने सोफ़े पर चश्मा लगाए बैठी मैडम…सुनहरापन लिए बाल, दरम्यानी क़द, बार-बार जुड़ते हाथ, ज़ोर-ज़ोर से हंसना, उंगलियों को आपस में फंसाए, हाथ लटकाए देर तक शान्त रहकर सुनना…सब कुछ दिलचस्प, सुखद! सोचने लगा कि सामान्य से विषयों पर भी साहित्य से जुड़ी इन दो महिलाओं की बातचीत आम पढ़ी-लिखी औरतों की बातचीत से कितनी अलग है, कितनी विशिष्ट है. तभी मैडम की ज़रा तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ी, “ रेहाना! देख, बाहर से फूलों की ख़ुशबू आ रही है. दरवाज़ा खोल दे ज़रा. हवा भी ठंडी हो गई बूंदा-बांदी के बाद!”
किसी की बीबी के मग़रूर होने की बात चल पड़ी है. दोस्त कह रही हैं कि उसकी ख़ुद की भान्जी एक बार मिलने आई तो उसको मना कर दिया. “पता है क्यों? क्योंकि उसने अभी तक मेकअप नहीं किया था.” इन दोनों महिलाओं ने मेकअप और औरतों के ख़र्च की हंसी उड़ाई. हैदराबाद के कई ख़ानदोनों की बोलियों, नज़ाकतों, नफ़ासतों के क़िस्से सुने-सुनाए गए. दोस्त बताने लगीं, “इस्मत के पुराने पर्चे मिले. बहुत अच्छे लगे अब पढ़े तो.” मैडम ने कहा, “उस ज़माने की बीबियां कितनी अवेयर थीं. घर-गृहस्थी बाल-बच्चे सब संभाल रही हैं. नाविल लिख रही हैं. ग़रीबों की तालीम के लिए स्कूल उन्होंने खोले. हमारी अम्मा ने शादी के बाद पहला काम यह किया कि उन्नीस सौ तेरह में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला. बाद में मसूरी में भी एक स्कूल खोला.” मैडम जैसे कुछ याद कर रही हों, “तब दोस्ती थी, ख़तो-किताबत थी. औरतें लिखती थीं. आज की औरतों को यह नहीं मालूम कि कौन-कौन ने क्या किया.”
उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ी.मेरी ओर देखकर वे ठहरीं, “अरे, आप ये क्या लिख रहे हैं?…नहीं ! अच्छा. हमें अभी सुनाना !…बाद में वहां से भेजना भूलना नहीं !” एकदम चौकन्नी हो गईं. मैं सहमा-सा ठहरा रहा. अगले क्षण मुझे सुनाने लगती हैं, “आप भी सुनिए. ट्रेन का एक वाक़या है. मैं जा रही थी. स्लैक्स पहने थी. एक महिला से मुलाक़ात हुई. नाम से जाना कि मैं मुसलमान हूँ. बोली, तब तो आपने बड़ी तरक़्क़ी की फ़ैशन में. मैंने कहा, तुमने भी बड़ी तरक़्क़ी की. तुम लोग भी पहले लम्बा घूंघट निकालती थीं. पता है पर्दे का आलम? पालकी को गंगा में थोड़ा-सा डालकर स्नान करवाया जाता था. मैंने बचपन में एक कायस्थ लड़की देखी थी. ताँगे में, पर्दे में स्कूल आती थी. हिन्दुओं में ये पर्दा नेशनल मूवमेंट के ज़माने से कम हुआ है.”
फ़ातिमा जी पूछती हैं,“नमाज़ पढ़ लूँ?” मैडम पूछ बैठती हैं,“ नमाज़ पढ़ती हो?” फिर जैसे उनकी भावना का ध्यान आया हो, कहती हैं,“हमारे और अल्लाह के बीच तो काहिली आ जाती है. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. शाबाश, नमाज़ पढ़ती हो.” रेहाना ने फ़ातिमा जी से पूछ है, “आप नीचे ही बैठकर पढ़ती हैं? दरी कहां बिछाऊँ, तख़्त पर या ज़मीन पर?” “ज़मीन पर ही.” मैडम सुनकर कहने लगी हैं, “माशाअल्लाह! शाबाश!”
दोस्त के जाते ही मुझे फिर वही सवाल, “आप वहाँ क्या करते हैं? आप कहाँ के रहने वाले हैं?” मैंने सोचा – शायद उम्र के कारण ऐसा हो! यह स्मृति-लोप या स्मृति-भ्रंश का कोई परिणाम या याद न रख पाने की कोई कमज़ोरी तो नहीं? मेरा कहा उन्होंने सुना भी कि नहीं! कहने लगीं, “यूनिवर्सिटी और अलीगढ़ शहर के कॉलेजों में राब्ता क्यों नहीं है?” मैंने कहा, “अब है.” बोलीं, “तास्सुबात मिलने-जुलने से कम होते हैं. किताबों से या और चीज़ों से नहीं होते.” लिखते हुए देखा तो फिर वही सवाल, “क्या लिखा आपने?” बाद में दिखाने के वायदे पर फ़ौरन शान्त. पाकिस्तान फिर आ गया है – “पाकिस्तान में जो पहले राइटर्स थे, उनके पास स्टेटस का, कार का ख़्याल नहीं था. अब मैंने वहाँ देखा है, कार और बंगले का महत्व बढ़ गया है. यहां अभी इतना नहीं है. और अगर राइटर्स में इसका ख़्याल आ जाए, तो एक बुद्धिजीवी और दूसरों में क्या फ़र्क़ रहा?”
“अच्छा! कर आईं अल्लाह मियाँ से हलो, हलो!” दोस्त से पूछती हैं, “क्या पढ़ा? दो फर्ज़, दो सुन्नत.” “अच्छा, अच्छा! कितनी होती हैं? मुझे पक्का नहीं पता.” अब हैदराबाद आ जाता है – “अदबी हालात क्या हैं हैदराबाद के? उर्दू में किताबें छप रही हैं? नए राइटर्स लिख रहे हैं?” दोस्त बताती हैं, “शायर बहुत हो गए हैं.” मैडम कहती हैं, “उर्दू ज़बान ऐसी है कि शेर ढले-ढलाए आ जाते हैं.” दोस्त हँसती हैं, “शायर को बुलाओं, मुशायरा रखो, तब श्रोता आएँगे. शायर गोया कव्वाल हो गया है.” मैडम के स्वर में पीड़ा है, “आज शायरी में कुछ लगता नहीं है. बाकायदा गाते हैं लोग.”
(इसे ऐनी आपा से लम्बे इंटरव्यू की प्रस्तावना मान सकते हैं. बाक़ी का हिस्सा कल पढ़िए.)
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चांदनी बेगम | सारे इंसान मुहरबंद लिफ़ाफ़े हैं. दमपुख्त हांडियां.
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