लोग कहते-गानों को हिट और फ़िल्म को फ़्लॉप कराना हो तो नीरज से लिखा लो

  • 4:57 pm
  • 3 February 2025

    ‘एक मस्त फ़कीरः नीरज’ गोपालदास नीरज की सर्जना के तरीक़े और उनकी फ़िक़्र को बेहतर ढंग से समझने की कुंजी भी है. इस किताब में डॉ. प्रेम कुमार ने उनकी शख़्सियत के कितने ही रंग संजोये हैं, उनके कृतित्व को समझने में मददगार तमाम पहलुओं पर विस्तार से और बेबाकी से बातचीत की है. नीरज से उनका लंबे साक्षात्कार की आख़िरी कड़ी. -सं

मुक्त छन्द कविता में तुकांत नहीं होते, छन्द होता है. लेकिन छन्द मुक्त यानी अछांदसिक में न लय, न तुक, न छन्द. फ़्रांस से चली यह धारा ‘फ़्री वर्स लिबरे’ कहलाई, इसे मैंने फ़िल्म में प्रयुक्त करके दिखाया. मेरा वह गीत- ‘ऐ भाई, ज़रा देख के चलो…’ संसार प्रसिद्ध गीत हुआ. इसकी ट्यून म्यूज़िक डाइरेक्टर नहीं बना पाया. जब शंकर-जयकिशन नहीं बना पाए तो मुझसे पूछा कि बताओ यह कैसे गाया जायेगा? मैंने गाकर बताया.

दरअसल पहले फ़िल्म में गीत, ग़ज़ल, कव्वाली आदि होती थी. अछांदसिक कविता कभी नहीं आई. पूरा छह पेजी आकार है गीत का. (बैठे-बैठे गाने लगे हैं आवाज़ और अभिनय के साथ). देखिए, बिल्कुल प्रोज़ है. आत्मा में उतरा है सब. पूरा जीवन-दर्शन है. राज कपूर ने मुग्ध होकर कहा था-‘इससे पहले ऐसा गीत नहीं लिखा गया.’ कितनी तरह से उन्होंने सोचा कि इसे कहाँ डाला जायेगा, तीस बरस बाद भी मेरे इन गीतों की रायल्टी आती है. भाषा के जो प्रयोग मैंने किए, वह दूसरे नहीं कर पाए. गीतांजलि, उद्गम, नीरद, मन्दिर जैसे अनेक शब्द, पलकों के झूले, सपनों की डोली जैसे बिम्ब मैं लाया और वे ख़ूब सराहे गए. शंकर-जयकिशन ने ‘ऐ भाई, जरा देख के चलो’ गीत को देखकर कहा था-‘यह भी कोई गीत है. छह पैसे का गीत है ये!’ वे गलत कहाँ थे? न दोहा, न गीत, न ग़ज़ल, न रुबाई, न घनाक्षरी-सवैया, न भजन. कोई फ़ॉर्म नहीं तो वह क्या कहते? सचमुच छह पैसे का भी नहीं था. मेरे बताने पर उन्होंने ट्यून बनाई, जैसे मैं गाता था, स्वर बदल दिया. तब अद्भुत प्रयोग हो गया वह. सर्कस के माध्यम से पूरी सिचुएशन कवर!

बात चूँकि स्वतः ही फ़िल्म की ओर मुड़ गई थी, मैंने फ़िल्म जगत से जुड़े उनके अनुभव को जानने के लिए कुछ सवाल नीरज जी से किए. फ़िल्मी़ दुनिया में उनके प्रवेश, वहाँ से लौट आने का कारण, प्राप्ति-अप्राप्ति, सन्तोष-असन्तोष आदि के बारे में वे देर तक सहज भाव से मुझे काफी कुछ बताते-सुनाते रहे –‘फ़िल्म क्षेत्र में मेरा पदार्पण 8 फरवरी, 1960 से हुआ. मेरा जन्म पाँच फरवरी को हुआ, आठ फरवरी साठ को मेरे जन्मदिन पर ‘नीरज गीत गुंजन’ समारोह बम्बई में आयोजित किया गया था. उस समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवन्त राव चव्हाण ने मुझे पाँच हजार रुपए की थैली सम्मानार्थ भेंट की थी. यह आयोजन श्री शान्ति प्रसाद जैन के बड़े भाई श्रेयांश प्रसाद जैन की अध्यक्षता में उनके ही सहयोग से सम्पन्न हुआ था. उस कार्यक्रम से प्रभावित होकर ‘बरसात की रात’ के निर्माता श्री आर.चन्द्रा, जो अलीगढ़ के ही निवासी थे, ने मुझे अपनी फ़िल्म ‘नई उमर की नई फ़सल’ के लिए अनुबंधित किया. यह अनुबंध मेरे उस समय के बेहद लोकप्रिय गीत ‘कारवाँ गुजर गया…’ के कारण किया गया था.

इस फ़िल्म में मैंने नया गीत नहीं लिखा था, मेरी पूर्व की लिखी कविताओं का ही फ़िल्म में उपयोग किया गया था. फ़िल्म 1965 में रिलीज़ हुई और उसका संगीत इतना लोकप्रिय हुआ कि सारे गीत हिट हुए. तब 1967 में देवानंद जी ने मुझे ‘प्रेम पुजारी’ के गीत लिखने के लिए आमन्त्रित किया. 67-68 में कॉलेज से दो साल की छुट्टी लेकर गया. 69 में एक साल को वापस आ गया. फिर 70 में कॉलेज की नौकरी छोड़कर मैं बम्बई चला गया और वहाँ 72 तक रहा. मार्च, 73 में वापस आ गया. मेरा कुल फ़िल्मीम जीवन पाँच वर्ष का है. 70 में मुझे ‘फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड’ मिला, जो किसी भी गीतकार के लिए बड़े गौरव का अवार्ड है. इन पाँच वर्षों की अवधि में मैंने फ़िल्म के गीतों में भाषा के स्तर पर तरह-तरह के मौलिक प्रयोग किए. ‘ऐ भाई, जरा देख के चलो..’ जैसी ‘फ़्रीवर्स लिबरे’ कविता को विश्वस्तरीय लोकप्रियता दिलाई. ‘मेघा छाए आधी रात…’ जैसे क्लासिकल और पॉप, फ़ोक, मन्दिर के भजन, कोठे के गीत, नज़्म आदि को पॉपुलर करके दिखा दिया. अक्सर लोग यह भ्रम पाले हुए हैं कि कविता और फ़िल्म के गीत में अन्तर नहीं है. यह धारणा ग़लत है. फ़िल्म का गीत व्यावसायिक संगीत है. उसमें बातचीत आमने-सामने न होती, उसमें पर्दा बोलता है. तीसरी चीज़ कि उसमें अभिनय किया जाता है. चौथी बात कि ढाई-तीन मिनट में उसे कहानी का अंग बनकर प्रस्तुत होना पड़ता है. साथ ही वह सौ-दो सौ के लिए नहीं, लाखों-करोड़ों लोगों के लिए लिखा जाता है. ये गुण, ये बंदिशें उसे कविता से अलग करती हैं.

फ़िल्म में गीत लेखन भी एक टेक्नीक है. श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कवि यदि वह टेक्नीक नहीं जानता तो फ़िल्म के लिए गीत लिखने में सफल नहीं होगा. पंत जी, नरेन्द्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, सोम ठाकुर (एक गीत लिखा उन्होंने) ने भी फ़िल्म में गीत लिखे, पर इस क्षेत्र में हिन्दी के शैलेन्द्र, भरत व्यास, इंदीवर, नीरज ही सफल हो सके. जिसके गीत चल गए, वह ज्यादा बिका. नहीं तो फ़्लॉप, कामर्शियल आर्ट है. जब तक ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा और मुहावरे पर ज़बर्दस्त अधिकार नहीं होगा, कवि को फ़िल्म में सफलता नहीं मिलेगी. मैं हिन्दी के हर कवि से कहना चाहता हूँ कि वह फ़िल्म में गीत लिखने की ओर एक बार ज़रूर झुके, जिससे उसे भाषा की – लोकप्रिय भाषा की अनेक भंगिमाओं, रूपों, पक्षों, अंगों, प्रदेशों आदि का ज्ञान प्राप्त हो सके. फ़िल्म के गीत को मद्रास, बंगाल, केरल, देश-विदेश सब जगह सुना जाता है. आप एक बार में विश्व-स्तर पर पहुँच जाते हैं. ‘कारवाँ गुजर गया…’ को जब रेडियो से पढ़ा तो देश में लोकप्रिय हुआ. किन्तु फ़िल्मी लोकप्रियता प्राप्त करके वह विश्व-प्रसिद्ध हो गया.

अब यह आपकी शक्ति, आपके ज्ञान और व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि आप फ़िल्म-गीत लेखन के लिए नीचे उतरते हैं या फ़िल्म के दर्शकों को ऊपर ले जा सकते हैं -उनकी रुचि परिष्कृत कर सकते हैं. मैंने लगभग एक सौ पच्चीस-एक सौ तीस गीत लिखे, उनमें से अधिकांश-क़रीब एक सौ बीस, लोकप्रिय हुए, जो आज भी बज रहे हैं, ख़ूब सुने जाते हैं और उनकी रायल्टी विदेशों तक से मेरे पास आती है. ये वे गीत हैं, जिनमें साहित्यिकता है, स्तरीयता है. ‘फूलों के रंग से, दिल की क़लम से…’, ‘शोख़ियों में घोला जाए फूलों का शबाब’- जैसे गीतों की भाषा तो देखिए! क्या भाषा है? क्या ब्लेंडिग है? रस कितना है? शोख़ी, फूल, शबाब में ही ऐसा रस है जैसे आम चू रहा है. ‘दिल आज शायर है, ग़म आज नग़मा है…’ नज़्म की स्टाइल है, जबकि ‘काल का पहिया, घूमे रे भइया…’ भजन है. ‘जैसे राधा ने माला जपी श्याम की…’ में भारतीय संस्कृति के अंकन की ख़ूबसूरती है. कोठे का गीत भी लिखा हमने, पर बचाकर काम किया- ‘मेरी नज़रों ने कैसे-कैसे काम कर दिए. मैंने मद्धम चिराग़ सरेशाम कर दिए…’ सेक्सय का संकेत है, पर किस तरह! ‘रेशमी उजाला है, मख़मली अँधेरा. आज की रात ऐसा कुछ करो. हो नहीं, हो नहीं सवेरा…’ पॉप साँग बेहद लोकप्रिय हुआ.

‘प्रेम पुजारी’ के टाइटिल सांग पर एस.डी. बर्मन मुग्ध हो गए थे- ‘प्रेम के पुजारी, हम रस के भिखारी…’ भिखारी पर मुग्ध. उन्होंने दूसरों के लिखे केवल आठ गीत गाए हैं फ़िल्म में. वे औरों के, हर-एक के गीत नहीं गाते थे. मैंने एक हास्य गीत लिखा था बर्मन के आग्रह पर. अपने गीत पर जिद करके उन्होंने मुझसे पैरोडी लिखवाई थी. वह सिचुएशन ऐसी थी कि एक ख़ास स्टाइल में यह पैरोडी लिखी गई- ‘धीरे से जाना खटियन में. ओ खटमल! धीरे से जाना…’ यह पैरोडी बर्मन के बहुत लोकप्रिय हुए गीत- ‘धीरे से जाना बगियन में.. ओ भंवरा! धीरे से जाना बगियन में…’ पर लिखी गई. देखने की बात यह है कि इसमें कविता को कैसे बचाया गया है? आगे पूरा चित्रण खटमल का होना है- ‘सोई है राजकुमारी, देख रही है मीठे सपने, जा, जा, छिपा जा तकियन में!’ मज़ाक है, पर गन्दगी नहीं. ‘छुप-छुप के प्यार करे तू. बड़ा छुपा रुस्तम है तू. ले-ले हमको भी शरण’ – (कमरे की, सोने की ज़िद की, पूरी सिचुएशन की बहुत सारी बातें बताते जा रहे हैं). बहुत बढ़िया जगह है यह लिखने की दृष्टि से. अब ज़रा ध्यान दें! एक गर्भवती है, बच्चे के आने की ख़ुशी में वह कैसे गाएगी. यदि यह नहीं पता तो गीत नहीं लिखा जा सकेगा. एक-एक पंक्ति का खेल! एक-एक पंक्ति का जादू! ‘तेरे मेरे सपने’ का गीत उन्होंने लिखवाया और जब सुनाया मैंने तो उछल पड़े- ‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी… वह तेरा होगा.. थोड़ा हमारा, थोड़ा तुम्हारा, आएगा फिर से बचपन हमारा’? बर्मन जी गद्गद! एक पंक्ति पर टिक गई बात! यह है कला!

एक बार शंकर जी ने कहा कि अब आप हमारी ट्यून पर गीत लिखिए! आपका गीत ठीक नहीं है. मैंने गीत फाड़ दिया और कह दिया कि मैं जूठन नहीं बेचता. उन्होंने बहुत कहा कि मैं इसे किसी और फ़िल्म में लगा दूँगा. इस पर ‘कन्यादान’ के प्रोड्यूसर श्री राजेन्द्र भाटिया ने चुनौती-सी देते हुए कहा कि तुम अब इनका बाजा फड़वा देने को तैयार हो जाओ! तब एक गीत लिखा-‘लिखे जो ख़त तुझे, वो तेरी याद में…’ भाटिया जी ने सुना तो एकदम से बोले-‘बताइए, आपको क्या चाहिए?’ मैंने यूँ ही कह दिया कि कार की चाबी दे दो और भाटिया जी ने उसी क्षण कार की चाबी मुझे थमा दी. सबसे ज्यादा शॉक मुझे तब लगा, जब ‘मेरा नाम जोकर’ फ़्लॉप हो गई. ‘प्रेम पुजारी’ फ़्लॉप, जबकि मेरी ‘शर्मीली’ और ‘पहचान’ सिल्वर जुबली कर रही थीं. ‘चन्दा और बिजली’ पर ‘फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड” मिल चुका था. ‘मेरा नाम जोकर’ बहुत ग़ज़ब मूवी थी और उससे सबसे ज्यादा उम्मीद थी. फ़्लॉप होने ने राजकपूर को आत्महत्या की स्थिति तक पहुँचा दिया था. वे बहुत शराब पीने लगे थे.

हमारे सारे गीत हिट होते थे, पर अधिकांश पिक्चर फ़्लॉप होती थीं. लोग कहने लगे कि यदि गीतों को हिट और पिक्चर को फ़्लॉप कराना हो तो नीरज से गीत लिखवा लो. वहाँ कवि से अधिक संगीतकार को सम्मान दिए जाने को देख मेरे मन को ठेस लगती थी. अख़बार वाले भी छापते तो लिखते कि म्यूज़िक हिट, यह नहीं कि गीत हिट. पहले तो फ़िल्म में गीतकार का नाम ही नहीं देते थे. कवि को भी बराबर का सम्मान दिए जाने के लिए जब साहिर लुधियानवी ने आन्दोलन चलाया, उसके बाद से गीतकार का नाम चित्रपट पर, विज्ञापन और रिकार्ड में देना शुरू हुआ. मेरे वहाँ से आने का एक कारण यह भी रहा कि मैं जिन लोगों के साथ हिट हुआ, धीरे-धीरे वे सब इधर-उधर हो गए. रोशन चले गए, राजकपूर वाला ग्रुप जयकिशन की डेथ के बाद टूट गया. बर्मन बीमार रहने लगे, उन्होंने काम करना बन्द कर दिया. उधर जब ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो सोचा कि अब मुझे यहाँ क्यार करना है?

उस सुबह मैंने नीरजजी का ध्यान उनकी कविता के मूल्यांकन की ओर खींचना चाहा. मैंने जानना चाहा कि उन्हें स्वयं को कवि-सम्मेलनी, श्रृंगारी या व्यक्तिवादी कवि के रूप में देखे-दिखाए जाने पर कैसा लगता है? बिना देर किए वे बताना शुरू कर चुके थे. थोड़ी धीमी-सी आवाज़ और थोड़ा उदास-सा लहजा उनकी शिकायत और उनके मलाल को लगातार गहराते जा हे थे- मुझे श्रृंगारी, कवि-सम्मेलनी कवि कहकर अपमानित किया गया. इससे चिढ़कर मैंने एक गीत लिखा था- ‘विश्व चाहे या न चाहे, लोग समझें या न समझें. आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर – ही उठेंगे.. हम जले हैं तो धरा को जगमगाकर ही उठेंगे..’ मेरी किताबों के बीस-बीस तक एडीशन हुए. सबसे ज्यादा बिकने वाला, पर पढ़ा नहीं गया. अकाल, बाढ़, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, आपातकाल, साम्प्रदायिकता- कौन विषय और कौन समस्या है ऐसी, जिस पर मैंने नहीं लिखा. ‘नीरज की पाती’ में अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ हैं.

आपातकाल पर मैंने कहा-‘फूलों की आँखों में आँसू, उतरा है रंग बहारों का. लगता है आने वाला है, फिर से मौसम अंगारों का. आंतरिक सुरक्षा के भय से बुलबुल ने गाना छोड़ दिया…’. उस समय बुद्धिजीवियों की भूमिका पर मैंने आपत्ति की थी- ‘वह प्रगति हुई, देवालय की पूजा मदिरालय जा पहुँची. सवह्रदय तजकर राजनीति तम के सचिवालय जा पहुँची. सब पात्रों का स्वरूप बदला, यूँ घूमा चाक कुम्हारों का…’ ! रूपक, श्लेष देख रहे हैं आप? सीधे-सीधे भी कहा- ‘संसद जाने वाले राही, कहना इन्दिरा गाँधी से. बच न सकेगी दिल्ली भी अब, जय प्रकाश की आँधी से… उस पर जादू नहीं चलेगा, सत्ता के दीवानों का. अभी समय है शेष, बचा लो खुद को तुम बर्बादी से..’ तब यह स्लोगन बन गया था. जब यही बात ग़ज़ल में कही, तो अलग तरह से, किस तमीज़ से कही- ‘ये तो मालूम है ख़ामोश है महफ़िल सारी. पर न मालूम ये, ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे. इसी उम्मीद पै कर ली है आज बन्द जुबाँ. कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे’. केवल लिखा ही नहीं, उन दिनों में मंच से भी पढ़ा.

एक दिलचस्प वाक़या सुना रहा हूँ. इमरजेंसी में बनारस में एक सम्मेलन हुआ. श्री कमलापति त्रिपाठी भी थे वहाँ. वे आपातकाल के समर्थक नहीं थे. बोले नहीं, पर घुटते रहे. उनसे मेरे न बुलाने की बात करते हुए लोगों ने कहा कि वे इमरजेंसी के खिलाफ कविता पढ़ते हैं. त्रिपाठीजी ने मुझे बुलवाया भी और कहकर ‘फूलों की आँखों में आँसू…’ कविता पढ़वाई. बनारस में कविता का मर्म समझने वाले लोग ज्यादा आते हैं सुनने. मुझे तब किसी ने नहीं पकड़ा, क्यों कि मैं बात कह ही इस ढंग से रहा था. जानने की बात है कि सही कविता का जन्म ही तब होता है, जब उस पर प्रतिबन्ध होता है. वाणी पर प्रतिबन्ध के दौरान ही कवि की पहचान होती है. इस तरह कही जाएगी बात कि पकड़ो, कैसे पकड़ोगे? इमरजेंसी पर कहे गए फ़ना कानपुरी साहब के एक शेर को सुनकर मैं उछल पड़ा था- ‘अँधेरों को निकाला जा रहा है, मगर घर से उजाला जा रहा है. चुभोए जाएँगे तलुवों में नश्तर, अभी काँटा निकाला जा रहा है..’ उर्दू वालों की यह कला सीखनी चाहिए हिन्दी वालों को, कवि कर्म बहुत कठिन है, जिसे आसान समझ लिया है लोगों ने. कवि वही अच्छा होगा, जो कविता की अच्छी आलोचना करेगा. आलोचना-अपनी कविता की भी आलोचना.

पहले लोग कविता कैसे सुनते थे और उस पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, आपको एक उदाहरण दे रहा हूँ. तेनसिंग ने जब सात बार की असफलता के बाद एवरेस्ट पर प्रथम बार पैर रखा, तब मैंने एक कविता लिखी थी. खंडवा में, जहाँ माखनलाल चतुर्वेदीजी अध्यक्षता कर रहे थे, मैंने उस कविता का पाठ किया. पहला चरण पढ़ा- ‘आखिर मुट्ठी भर धूल पहुँच ही गई वहाँ, जा सके न पाँव जहाँ इतिहास, पुराणों के/ आखिर धरती के बेटे ने गूँथ ही दिए, बर्फीले बाल पहाड़ों के चट्टानों के.’ जब अन्तिम चरण पढ़ा- ‘पर ठहर, गर्व का मुकुट न पहना गौरव को. बस, यहीं, यहीं तेरे गिर जाने का भय है. कर सका न प्राप्त विजय खुद पर ही तो. तेरी ये प्रकृति विजय रे, सबसे बड़ी पराजय है’, उसके बाद माखनलालजी बोलने को खड़े हो गए. उन्होंने कहा – ‘कविता का जो प्रथम शब्द आखिर सोना था, लेकिन जिस प्रकार कविता इन्होंने समाप्त की, तो यह कविता पारस बन गयी’. इसमें पहले शब्द ‘आखिर’ की विशेषता क्या है? इसमें पिछली सात असफलताओं की कहानी छिप गई है. अब ऐसे, एक-एक शब्द का अर्थ समझने वाले, व्याख्या करने वाले लोग कितने होंगे? चन्द्रमा पर जब आदमी ने पैर रखा तो एक कविता लिखी मैंने. चार पक्तियों के द्वारा कथन का अद्भुत सौन्दर्य देखिए आप- ‘अमृत-मंथन की बात सुनी ही थी केवल, लेकिन आँखों से अब नभ-मंथन देख लिया. ओ धन्य मनुष्य के साहस, लाख सितारों में, जा जला दिया तूने मिट्टी का एक दीया.’

Author

सम्बंधित

इंटरव्यू | कविता के नशे ने मुझे उम्र-भर बेहोश रखा

इंटरव्यू | कवि के लिए नहीं होते पर्याववाची शब्द


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.