फ़ारसी नहीं पहले उर्दू में लिखा था ‘आधा गांव’, हिन्दी भी राही ने ही कियाः नैयर

श्रीमती राही नैयर से यह लम्बी बातचीत डॉ.राही मासूम रज़ा और ख़ुद नैयर राही की शख़्सियत के बारे में तो बताती ही है, अलीगढ़ के अदबी दायरे में मरहूम राही के बारे में अब तक फैली कितनी ही भ्रांतियों की असलियत का बयान भी है. इंटरव्यू यह दूसरा हिस्सा है. पहला हिस्सा पढ़ने के लिए चाहें तो यहीं लिंक इस्तेमाल कर सकते हैं, या फिर सबसे नीचे.

राही साहब आपको अपने प्यार का अहसास कैसे कराते थे?

मुझे तो था ही अहसास. ख़तों से अहसास कराया. ख़ूब कहते भी रहते थे. मैं बेकार की ज़िद करती थी तो वो मान लेते थे – तो अहसास तो हो ही जाता था. नहीं – उनको ये था कि यहाँ से मैं घर-वर सब कुछ छोड़कर चली गई थी. हालाँकि माँ की इज़ाज़त थी…फिर भी उन्हें लगता था कि मैं तुम्हें वो चीज़ नहीं दे पा रहा हूँ, जैसी तुमने ज़िंदगी गुज़ारी है. हालांकि मैं किसी चीज़ की आदी नहीं थी.

शादी के बाद पहली बार उन्होंने अपनी भावना कैसे व्यक्त की?

फ़ीलिंग तो पहले एक्सप्रेस कर ही चुके थे….वो सब मुझे याद नहीं. हां, शादी यहीं हुई और शादी के बाद यहीं रहे.

आपसे शादी के बाद राही साहब ने क्या अपने जीने के ढंग में कुछ बदलाव किया था?

जी हां, उन्होंने चेंज तो काफ़ी किया था. रेस्तरांबाज़ी, घूमना-फिरना सब रोक दिया था. वहां इतना ज़बर्दस्त काम था कि चौबीस घंटे में बीस घंटे वे काम में लगे रहते थे.

चौबीस घंटे में से बीस घंटे..?

जी, दिन में मिलना-जुलना और फ़िल्म वालों से, डायरेक्टर्स से डिस्कशन आदि. शाम से रात के एक बजे तक फ़िल्मों को लिखना-डायलॉग… . फिर एक बजे से तीन बजे तक अपना सीरियस लिटरेरी काम…यही आर्टिकल्स. तब डी.लिट् भी कर रहे थे. एक ही…लास्ट चैप्टर रह गया था. डी.लिट् – जी, मेरा ख़याल है, मीर अनीस के ऊपर थी. नहीं, पोयम्स नहीं. पोयम्स तो चलते-फिरते, गाड़ी में चलते हुए भी लिखते रहते थे. रात को तो केवल आर्टिकल्स. और क्या लिखते थे मुझे पता नहीं. मैं सो जाती थी.

लिखने के तुरंत याद क्या कभी कुछ आपको भी सुनाने की ज़िद करते थे?

सवाल सुनकर पहले ख़ूब हंसीं. फिर बोलीं – वो मसल है न – भैंस के आगे बीन बजाना… जब कोई चीज़ मेरी समझ में ही नहीं आए तो मैं क्या करूं? मैं नहीं पूछती थी कि क्या लिख रहे हो. घर का और बच्चों का काम करती थी. सुनाने की ज़िद वे करते ही नहीं थे. उन्हें मालूम था कि शायरी से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. हिन्दी की शायरी का मुझे बिल्कुल शौक़ नहीं. समझ में नहीं आती. जब ज़बान ही समझ न आए तो क्या सुनती मैं? लिटरेरी काम उनका बिल्कुल पर्सनल था.

लिखने के लिए क्या उन्हें कुछ ख़ास चीज़ों या किन्हीं विशेष तरह की स्थितियों-मनःस्थितियों की ज़रूरत होती थी? आप उनके लिखने में कैसे और क्या मदद करती थीं?

मैं बिल्कुल मदद नहीं करती थी. लेकिन एक चीज़ आपकी बताऊं – उनके काम करने का ढंग ये था कि जैसे तीन फ़िल्मों की स्क्रिप्ट रख ली सामने. एक पर लिख रहे हैं अब…फिर वहां से दिमाग़ का स्विच ऑफ़ किया और दूसरी स्क्रिप्ट पर काम शुरू. ऐसे लिखते थे. फ़िल्म वालों में आम चीज़ है कि हमारे लिए होटल में कमरा बुक कर दीजिए तब लिखेंगे हम. मासूम का कहना था कि मैं सिर्फ़ घर में लिख सकता हूँ – जहाँ मुझे मेरी बीवी और बच्चों की आवाज़ें सुनाई देती रहें. वो कहीं होटल-वोटल में लिखते ही नहीं थे.

घर पर हम लोग बात भी कर रहे हैं, बच्चे खेल भी रहे हैं, शोर मचा रहे हैं, म्यूज़िक बज रहा है – जब वो स्विच ऑफ कर लेते थे दिमाग़ का तो असर नहीं होता था उन पर. चाय दिन में कम से कम पचास बार – जिसमें न शक्कर, न दूध. शराब – नहीं, पहले पीते होंगे – मेरे सामने नहीं पी. मैं अपना काम करती रहती थी. कहीं आना-जाना होता, चली जाती. मासूम बहुत कम लोगों से मिलते थे….मैं फ़िल्मी दुनिया से बिल्कुल अलग रही. वो सिर्फ़ रोज़ी-रोटी का सवाल था. मासूम जाते थे शूटिंग वगैरह को – मुझे शौक़ नहीं था.

उनकी पसंदीदा, उन्हें ख़ुश करने वाली कुछ चीज़ें-बातें?

मीठा ज़रूर होना चाहिए खाने के बाद – कोई भी मीठा – और पान. तंबाकू-सिगरेट कम पीते थे…एक ये ख़्वाहिश हमेशा से थी कि मैं पैंसठ का हो जाऊंगा तो ये फ़िल्मी काम छोड़कर वापस अलीगढ़ चला जाऊंगा और वहाँ लिटरेरी काम करूंगा और डी.लिट् कंप्लीट करूंगा. पर ये ख़्वाहिश पूरी नहीं हो पाई.

उनका सबसे अधिक लगाव किस बच्चे से था?

सब बच्चों से था. मरियम को बहुत प्यार करते थे.

उनका ग़ुस्सा…?

हाँ – ओह् – कोई बेवकूफ़ी की बातें करता था तो बहुत ग़ुस्सा होते थे. नहीं, मेरे ऊपर तो नहीं होते थे…प्रोड्यूसर्स पर होते थे – छोटे-बड़े भाइयों व बहनों पर भी ग़ुस्सा होते थे. लेकिन वो ग़ुस्सा थोड़ी देर का होता था. चीख़-चिल्लाकर थोड़ी देर में ठीक हो जाता था. नहीँ – मुझ पर चीख़े. कभी नहीं. मेरी ग़लती पर ये ज़रूर कहते थे कि ये ग़लत बात है. ग़लती – ज्यादातर बच्चों को लेकर ही ऐसी नौबत आती थी….लिटरेचर की जिन बातों पर डिसएग्री करते थे, उन पर जल्दी झुंझला जाते थे. वैसे शांत रहते थे. लिटरेचर वालों से हिन्दी-उर्दू को लेकर तो हमेशा झगड़ते रहे.

आप कभी गाज़ीपुर गई हैं?

जी नहीं, मैं कभी गाज़ीपुर नहीं गई. इलाहाबाद से आगे मैं गई ही नहीं. मासूम के वालिद गर्मियों मैं ख़ुद चार महीने को बंबई आ जाते थे. बहनें भी आ जाती थीं. तो बस मिल-मिला लेते थे.

बंबई के ग्लैमर का कितना असर रहा उन पर?

बंबई उन्हें पसंद ही नहीं था. वो सिर्फ़ अलीगढ़-अलीगढ़….अलीगढ़ और गाज़ीपुर को ही याद करते रहते थे.

बंबई में क्या कोई और औरत भी उन्हें अपनी तरफ़ खींच पाई?

प्रश्न सुनकर पहले दाहिने हाथ पंजा इन्कार की मुद्रा में हिलाया. अब ‘न’ में गर्दन हिली. कई बार – नहीं, नहीं – और फिर कुछ देर बाद एक वाक्य – “ये शिकायत तो मुझे कभी हुई ही नहीं.”

अब बातें राही साहब के स्वभाव और सोच के बारे में हो रही थीं. वे सहज, निश्छल भाव से बिना रुके बोले जा रही थीं – “प्रेम के बारे में – उनका असली मक़सद था कि जो भी हो इमोशंस पर – हाँ, सच्चाई हो. औरत – औरत की बहुत इज़्ज़त थी उनके मन में. दो औरत को बिल्कुल बराबरी का दर्जा दिए जाने की बात कहते-करते थे. लड़कियों से इतना लगाव था उन्हें कि किसी को बच्चा होने वाला होता तो उसे हमेशा यही दुआ देते कि उसके लड़की हो. नहीं – मॉडर्न ज़माने से कोई ख़ास लगाव नहीं था. पुरानी विरासत को लेकर ही ज़्यादा खिंचाव-लगाव था.”

बोलते-बोलते रुकीं. जैसे अचानक कुछ याद आया – ‘दो-तीन घटनाएं याद आ रही हैं. उनसे आपको मासूम के सोच का पता चलेगा – हमारे बहुत क़रीब का लड़का है. उसने एक हिन्दू लड़की से शादी की. उसके शहर में हायतौबा मची. उसने मुझे बताया. कहा कि मैं बंबई लेकर आ रहा हूँ लड़की को. आप हमारा निक़ाह करा दें. मैं ना नहीं कर पाई. मासूम से बात हुई तो फ़ौरन से पेश्तर बोले -इस घर में उस हिन्दू लड़की का निकाह नहीं पढ़ाया जाएगा. उस लड़के की बात छोड़िए – अपने बेटे नदीम की शादी का क़िस्सा आपको सुनाऊं – नदीम शूटिंग के सिलसिले में इंग्लैंड गया था. फ़िल्म का नाम याद नहीं आ रहा. उसने वहाँ से मासूम को फ़ोन किया – एक लड़की है यहाँ पार्वती महाराज. वो वेस्ट इंडियन है. मैं उससे शादी करना चाहता हूँ. मासूम ने कहा कि मेरी तरफ़ से बिल्कुल इजाज़त है. पर एक शर्त है कि वो कनवर्ट नहीं होगी. वो जो मज़हब मानती है वो अपने मज़हब पर क़ायम रहेगी.

…मैं तो तब अलीगढ़ थी और मैंने कह दिया था पहले ही कि तुम जिससे चाहो शादी कर लो. दो ने कर ली है – तीसरा – छोटा करता ही नहीं. वो कहता है मैं ऐसे ही बहुत सुखी हूँ. जी, मरियम पर एक बेटा है बारह साल का.

नमाज़ तो वे पढ़ते ही होंगे?

नहीं, नमाज़ नहीं पढते थे. मैंने कहा भी कि मेरी एक ख़्वाहिश ये है कि आप एक वक़्त बस, नमाज़ पढ़ लो. तो बोले कि तुम अपनी ख़्वाहिश अपने पास रखो और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. हम लोगों के यहाँ ईद, बकरीद, होली, दीवाली और क्रिसमस – सब होते थे. मैं भी शुरू से करती थी. उन्हें किसी में कोई ख़ास लगाव नहीं था. मैं बीस तारीख़ से क्रिसमस ट्री बना देती थी. अब क्रिसमस ट्री मरियम बनवाती है अपने यहां.

राही यदि आपसे न जुड़ते तो क्या इतना – ऐसा कुछ कर पाते?

मेरे ख़याल से तब भी वे ऐसे ही रहते. ये सब ज़रूर करते. जहां तक मेरा ख़याल है मेरे आने से ज़िंदगी में सैटिल ज़्यादा हो गए. ज़िंदगी में जो एक ठहराव आना चाहिए, वो आया.

आपको उनके लेखन की कितनी-क्या जानकारी है?

नहीं, सब तो याद नहीं. पर काफी कुछ तो पता है. जी, सबसे पहले वे इलाहाबाद में अपने एक दोस्त – जिनका निकहत पब्लिकेशन था – के लिए लिखा करते थे. नहीं, राही नाम से नहीं -आफ़ाक़ हैदर और शाहिद अख़्तर नाम से रोमानी दुनिया लिखते थे. कोई चालीस-पैंतालीस नॉवेल लिखे. नहीं, पैसे कहाँ देते थे वे. उनका नाम याद नहीं आ रहा. केवल दोस्ती में लिखते थे उनके लिए.

फ़िल्म के दिनों में भी बहुत लोग आते थे उन पर लिखवाने. वे किसी को मना कर दें, पर टेक्नीशियंस को मना नहीं करते थे. एक टेक्नीशियन थे – उफ़, नाम उनका भी याद नहीं आ रहा – आए और बोले कि मेरे पास देने को तो कुछ हैं नहीं, पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दो. आप हाँ कहें तो अभी लाता हूँ. मासूम बोले कि ठीक है, डिस्कशन को आओ तो दो बीड़े ले आया करो. और उनके लिए पूरी फ़िल्म दो बीड़ों पर लिख दी. पैसों का तो उन्होंने कभी किसी प्रोड्यूसर से भी डिस्कशन नहीँ किया. जिसने जो दे दिया, ले लिया.

आपने उनका लिखा कितना कुछ पढ़ा हैं?

बस ‘आधा गांव’ और ‘टोपी शुक्ला’ पढ़ा है. नहीं, हिन्दी में नहीं – इंग्लिश में आ गया है न ऑक्सफ़ोर्ड पब्लिकशन से. पर वो मुझे इंग्लिश वाला ठीक नहीं लगा. शीर्षक ही ग़लत लगा. अब दूसरे एडीशन में ठीक किया है उसका नाम. पहले लिखा था – फ्यूडिंग फ़ेमिलीज़ ऑफ़ गंगोली. और अब आया है ‘द विलेज डिवाइडेड’ नाम से. जी, उर्दू में भी आ गया है.

‘आधा गांव’ क्या पहले फ़ारसी में लिखा गया और फिर उसका अनुवाद…?

“नहीं-नहीं, फ़ारसी में थोड़े ही लिखा था – जो उसका अनुवाद हुआ. अब आप उर्दू को फ़ारसी लिपि कहें तो ये क्या हुआ. ‘आधा गांव’ पहले उर्दू में लिखा था. जी, मेरे पास उसकी स्क्रिप्ट है अभी. हाँ, फिर ख़ुद ही उसे हिन्दी में किया. हाँ…हाँ, हिन्दी में उन्होंने ही किया.”

महाभारत के संवाद लिखे जाने के दौर का ज़िक्र किया तो उनके चेहरे की चमक और भी बढ़ गई. जी, महाभारत मैंने देखी है. महाभारत का ये हुआ कि जब चोपड़ा साहब ने मासूम को लिखने का तय किया तो एतराज़ हुए कि आप मुसलमान से महाभारत क्यों लिखवा रहे हैँ. चोपड़ा साहब ने कहा कि अगर मैँ करूंगा महाभारत तो मासूम करेंगे, नहीं तो आप किसी से लिखवा लीजिए. आप देखिए कि बाद में महाभारत लिखते समय दोनों तरफ़ से ख़त आते थे -कि हमारा त्रिशूल तेरे पेट में भुंकने को तैयार है. उधर मोहम्मद अली रोड से भी इसी तरह के ख़त आते थे. और फिर जब महाभारत चल गई तो-तो जो लोग त्रिशूल भोंकना चाहते थे, वे ही दर्शन करने और पैर छूने आने लगे. मुझे क्या लगता था – अच्छा लगता था.

नहीं, वे औरों की तरह अपनी ख़ुशी नहीं जताते थे. बस, सेटिसफ़ाइड दिखते थे. अपनी तरफ़ से तो वे लिखते ही अच्छा थे. नहीं, कोई डर नहीं लगता था तब, धमकी मिलने पर हमें. जी, तीन साल लगे थे रिसर्च करने में – और लिखने में दो साल लगे. तनाव-दबाव…जिस वक़्त नौ एपीसोड – गीता वाले – लिखे, उसमें थोड़ा टेंस रहते थे कि एक लफ़्ज़ इधर से उधर न हो जाए. आपने देखी है महाभारत? वो जो कृष्ण ने विराट् स्वरूप दिखाया है – तब तो बहुत टेंस थे – हां, ज़रा भी कुछ हिल-हिला न जाए…कोई लफ़्ज़ हल्का या ग़ैर मौजूं न आ जाए. जी, जी, मैंने पूरी देखी है. ये अब वाली जो आ रही है ये नहीं – ये तो बेकार है.

जब श्रीकृष्ण का गीता वाला हिस्सा लिख रहे थे तो एक दिन चोपड़ा साहब का फ़ोन आया कि राही साहब आपको राजीव जी ने बुलाया है. उन्होंने कहा ठीक है. दूसरे दिन ये लोग दिल्ली चले आए. मुलाक़ात के दौरान राजीव गांधी ने मासूम से पूछा कि ये जो आपने जन्म और कर्म की बात की है, तो क्या मेरे ऊपर चोट की हैं? मासूम ने कहा कि पूरी गीता का यही उपदेश है कि जन्म कुछ नहीं होता, असली चीज़ कर्म, और बाद में यह भी कहा कि राजीव जी, अगर आप मेरी जान का ज़िम्मा लें तो मैं दूसरी गीता लिख देता दूं.

उन दिनों के उनके बेहद परेशान होने से जुड़ा एक वाक़या आपको बताऊं. उन दिनों बहुत लोग आते थे उनका इंटरव्यू लेने. लोगों को हैरत होती कि मुसलमान होकर कोई वो सब लिख रहा है. इत्तफ़ाक़न एक दिन मैं मासूम के पास बैठी थी. इंटरव्यू के बीच में उस पत्रकार ने सवाल किया कि मुसलमान होकर आप ऐसा ये सब कैसे लिख या रहे हैं?…और मैंने देखा कि सवाल सुनकर मासूम रो पड़े. और उन्होंने कहा कि आप ये सवाल मुझसे क्यों करते हैं? मैं हिंदुस्तानी पहले हूँ, मुसलमान बाद में हूँ. और ये जो महाभारत है ये हर हिंदुस्तानी का ख़जाना हैं. और हर हिंदुस्तानी का – चाहे वो किसी मज़हब का हो – इस पर हक़ है.

क्या वे कभी आपके सामने फूट-बिफर के भी रोए? ऐसी कोई घटना जब उन्होंने आपकी आंखों के आंसू पोंछे हों?

बिफर-फूट के तो मुझे ख़याल नहीं. वो ज़ब्त करते थे. ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया कि उन्होंने मेरे आंसू पोंछे हों. उनके रोने की एक घटना अभी मैंने बताई. हाँ, एक मर्तबा का उनका रोना और याद आया – उनके बड़े भाई मूनिस रज़ा उनके आइडियल थे. उनकी डेथ मासूम की डेथ के बाद हुई. एक बार अचानक वे बहुत बीमार हो गए थे. ऐसे बीमार कि बचने की उम्मीद नहीं रही थी. उनकी अचानक बीमारी की ख़बर जब मासूम ने सुनी तो उस वक़्त मासूम बहुत रोए थे – और सिर्फ़ एक जुमला कहा था मुझसे कि मेरा भाई ख़त्म हो रहा हैं और मैं उसे बचा नहीं सकता.

एक युवती ने पर्दे के पीछे से झांका तो खिल-सी गईं – ‘जी, ये किरन है, बाबूलाल की बेटी. ग्वालियर से आई है.’ फिर जैसे मेरे वहां होने का उन्हें ध्यान ही नहीं रह गया था. ऐसे बातों में लगी थीं जैसे वो किरन की माँ ही हों – ‘अरे, किरन!’ साथ ही ख़ुद भी उठकर अंदर चली गईं. लौटीं तो उनके दोनों हाथों में फ़ोटो थे. मुझे दिखाने को बेहद उत्सुक, गद्गद, बहुत कुछ कह-बता देने को एकदम प्रस्तुत – ‘देखो, आपको एक यादगार चीज़ दिखाऊँ. देखिए – ये मासूम का 1943 का फ़ोटो हैं और ये है मरियम का बेटा जुहैब. मैं इसे शेख़ू कहती हूँ. देखिए, कितना मिलता है अपने नाना से. आपने देखा – बिल्कुल वे ही इम्प्रेशंस… .

अचानक वे दीवार पर टंगी दूसरी तस्वीरों के बारे में बताने लगीं. पता नहीं क्या ख़याल आया कि उस कमरे में से गैलरी की ओर बढ चलीं – ‘आइए, आपको घर दिखाऊँ – ये है गैलरी. इसी में खुलते हैं दोनों ओर के बेडरूम्स के दरवाज़े.’ गैलरी के दोनों ओर की दीवारों पर कई फ़ोटो लगे हैं. बीच में भी कई जगह बहुत से फ़ोटो रखे हैं. वे गाइड की तरह सब दिखा-बता रही हैं -‘ये यूनुस हैं. अपनी वर्दी में…मासूम, ये मेरी एक दोस्त…ये हॉल है…ये परदादा, ये दादा, ये वालिद, ये सर सैयद, ये उनके पोते…जी, यहां से इस तरफ़ ये ज़नाना और ये वो हिस्सा, जिसमें मैं रहती हूँ. हां, मासूम आते थे तो इसी में रहते थे. ये यूनुस का…ये मासूम का फ़ोटो.’ चुपचाप सुनते हुए मैं इस बात पर चकित था कि उनके घर के गलियारे में बाईं ओर की दीवार पर सबसे पहले फ़ोटो यूनुस साहब का था. यह भी कि राही साहब को बेहद लगाव और सम्मान से याद करते हुए भी उन्होंने एक बार भी यूनुस साहब के बारे में ज़रा भी असम्मान या शिकायत के लहज़े में बात नहीं की थी.

लौटते में गैलरी के बाईं ओर के कमरों की ओर इशारा किया – “इन दोनों कमरों में रहते थे यूनुस… .’ हम लोग अब फिर से अपनी-अपनी जगह आ बैठे थे. मैंने अब हिचकते हुए यूनुस साहब के अंतिम दिनों से जुड़े कुछ सवाल उनसे पूछे थे. “जी, उनकी डेथ यहीं, इस घर में हुई – 1984 में. मैं…बंबई में थी. तीसरे – चौथे दिन आ गई थी. बच्चे पहले आ गए थे. आपने देखा होगा – वो हमारा जो फ़ेमिली ग्रेवयार्ड है, उसी में यूनुस की मज़ार है.”

कैसा लगा था उनकी मौत की ख़बर सुनकर आपको?

जिसके साथ एसोसिएशन हो – तकलीफ़ तो होती है.

उनकी मौत को ख़बर सुनकर राही साहब ने क्या कहा आपसे? वे आए थे क्या तब यहां?

राही ने तुरंत कहा कि बच्चों को फ़ौरन भेज दो. तुम जाना चाहो तो चली जाओ. यहाँ कोई नहीं था. मैं तीन-चार दिन बाद आ गई. राही नहीं आ पाए थे. मरियम के एग्जाम्स चल रहे थे. उनकी वजह से उन्हें रुकना पड़ा. मरियम को आज भी मलाल है तब न आ पाने का. लड़के तीनों आ गए थे.

यूनुस साहब और राही साहब की मौत में से किसने आपको अधिक हिलाया-कंपाया?

ज़ाहिर है…मासूम की मौत ने. मासूम की डेथ के बाद तो ज़िंदगी उलट ही गई न! वो बात ही नहीं रही. ठीक है, बच्चे हैं, सब अच्छा है – पर वो बात ही नहीं रही…. उनकी डेथ के बाद एक वैक्यूम है. अब भी है वो वैक्यूम. इसीलिए मैं यहाँ बंबई से वापस चली आई. छोटी-छोटी चीज़ों पर ख़याल आता रहता है. रोज़ाना ज़िंदगी की बहुत छोटी-छोटी चीज़ों पर – कि मासूम होते तो ऐसा नहीं होता…कि यूं होता. वैसे मेरे चारों बच्चे मेरा बहुत ख़याल रखते हैं. चाहते हैं कि मेरी हर ख़्वाहिश पूरी हो. मेरी दोनों बहुएं भी बहुत ख़याल रखती हैं.

राही साहब की मौत वाले हिस्से को आज कैसे याद करेंगी आप?

कीमियोथेरेपी के रिएक्शन से हिंदुजा हॉस्पिटल में डेथ हुई थी. मैं वहीं अस्पताल में थी. सालों से चीक पर एक नन्हा सा ग्लैंड था. डॉक्टरों ने कहा कि बायप्सी करा लो. नाम याद नहीं आ रहा, पर हां, बहुत ख़तरनाक वाला कैंसर था. मैं समझती हूँ अगर उसे न छेड़ा जाता तो शायद कुछ और ज़िंदा रहते मासूम. 10 दिसंबर, 1991 को ये ऑपरेशन हुआ था. डेथ हुई 14-15 मार्च की रात 1992 को. ऑपरेशन सक्सेसफुल हुआ. घर आ गए थे. मार्च के शुरू में अस्पताल दिखाने गए तो गले के नीचे फिर से ग्लैंड बन गया. उसकी जो कीमियोथेरेपी हुई, उसके रिएक्शन से मौत हुई. जब डॉक्टरों ने मासूम के ऑपरेशन की दिसंबर में तारीख़ तय की तो मैंने सुनील दत्त साहब को कांटेक्ट किया. वो उस ज़माने में दिल्ली थे.

मैंने कहा – दत्त साहब जब तक आप नहीं आएंगे ऑपरेशन नहीं होगा. दत्त साहब 9 दिसंबर को बंबई आ गए और उन्होंने मासूम के साथ हॉस्पिटल में बहुत वक़्त गुज़ारा. 10 की तो सुबह से आकर रात तक वहीँ बैठे रहे. तब तक बैठे रहे जब तक मासूम को होश नहीं आ गया.

मृत्यु से पहले क्या कुछ कहा आपसे उन्होंने?

उस वक़्त उन्हें जो दवाएं दी जाती थीं – उससे पूरी कांशसनेस नहीं थी. दवाओं के असर से हल्की-सी बेहोशी रहती थी. तब कुछ नहीं कहा. हाँ, दो दिन पहले मुझसे ये ज़रूर कहा था कि अगर तुम्हें पैसे की दिक़्क़त हो तो चोपड़ा साहब को कांटेक्ट कर लेना. मैंने कहा कि अभी कोई दिक़्क़त नहीं है, पर अगर होगी तो ज़ाहिर है उन्हीं से कहूँगी. उनको ख़याल ही नहीं था कि वो इतनी जल्दी ख़त्म हो जाएंगे. ऑपरेशन ठीक हो गया था, कोई बात ही नहीं थी….मुझे उनकी डेड बॉडी को दो दिन अस्पताल में रखना पड़ा था कि उनके भाई-बहन सब लोग आ जाएँ. जी, मैं घर गई थी.

उनकी डेथ और दफ़्न होने के बीच के दौर को आपने कैसे झेला?

दिमाग़ी परेशानी तो थी ही, जैसी जो हो सकती थी. लोग आते रहते थे. वैक्यूम तो आज भी है. मैं सबके सामने नहीं रो सकती. पीछे चाहे कितना ही रो लूँ. कुछ पुराने ख़यालात की लेडीज़ को बड़ा ताज्जुब था कि ये रो नहीं रही. शायद इन्हें ग़म नहीं है. अकेले में ज़ाहिर है कि रोना आता था – चीज़ें देखकर ख़याल आता था – वे ये करते थे, वे वो करते थे. जी, उन्हें वहीं दफ़्न किया गया था – जुहू में – सांताक्रूज़ ग्रेवयार्ड में.

उसके बाद…?

फिर हुआ ये कि मासूम की डेथ के उन्नीस दिन बाद मेरी मंझली बहू के फ़ादर का एक्सीडेंट हो गया. ईद के दिन हुई थी उनकी मौत. ज़ाहिर है – मेरा लड़का उनका दामाद था – तो वो जा रहा था. मैंने कहा मैं भी चलूंगी. और मैं रामपुर आ गई. फिर रामपुर से अलीगढ़ आ गई. मैं वापस फिर गई थी बंबई पर… . मेरा मंझला लड़का अलग रहता था. दिन में मैं उसके साथ रहती – रात को अपने फ़्लैट पर आ जाती. रोती-रोतो सो जाती. उसी दौरान अमेरिका में मरियम की तबीयत ज्यादा ख़राब हो गई. और मैं वहाँ चली गई. इरफ़ान और समन से मैंने कहा कि अब बेहतर ये हैं कि तुम मेरे फ़्लैट में शिफ़्ट हो जाओ. वे किराए पर रहते थे.

जी, अब आज तक वहीं हैं. जी, मासूम का चालीसवां अलीगढ़ में किया था. उनके दोस्तों – सारे रिश्तेदारों को इत्तला दी थी तब….

बाहर आते हुए मैं इस विडंबना पर सोच रहा था कि जिनसे तलाक़ हुआ उनकी क़ब्र आफ़ताब मंजिल के ग्रेवयार्ड में है – और जिनसे दूसरी शादी हुई उन मासूम को सांताक्रूज ग्रेवयार्ड, बंबई में दफ़्न होना पड़ा.

हम लोग बरामदे में बड़े दरवाज़े के पास खड़े थे. यकायक दाईं ओर की दीवार पर लगी उस नेमप्लेट पर मेरी नज़र पड़ी – ले.कर्नल.एस.एम.यूनुस ख़ान. हतप्रभ, ठिठका-सा मैं कभी उसे तो कभी ज़रा दूर पर लगी राही साहब की नेमप्लेट को देखे जा रहा था. उन्होंने शायद मेरे मन का आश्चर्य भाँप लिया था – ‘जी, ये यूनुस की नेमप्लेट है -ले.कर्नल साहबज़ादा मोहम्मद यूनुस ख़ान. वे इसी तरफ़ रहते थे. ये अभी तक लगी हुई है. इसी सबको देखकर यहाँ के लोग दुनिया भर की बातें बनाते हैं.

वहाँ से विदा होते समय मैं रिश्तों को मानने-जीने-सम्मान देने के उस अनूठे अंदाज़, उस दुर्लभ साहस और जज़्बे पर हैरान था. और बाहर आकर लगा था कि राही को भले ही मैं बहुत पहले से पढ़ता आ रहा हूँ – पर आज नैयर राही के मन के मासूम से परिचित होना निःसंदेह अद्भुत और मूल्यवान उपलब्धि है. अंदर-अंदर किसी ने कहा – नैयर जी की इसी निष्छलता, साहस और विशाल ह्रदय पर ही तो रीझे होंगे राही साहब.

(यह इंटरव्यू किताबघर से ‘गुफ़्तगूः सरहदों के आरपार’में भी संग्रहित है.)

कवर| बेटे और बहू के साथ राही दम्पत्ति | फ़ेसबुक पेज से साभार

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