मासूम से मैंने ज़िंदगी में एक ही कम्प्रोमाइज़ कियाः नैयर रज़ा राही

एक सदी से अधिक की उम्र जी चुकी वह इमारत और बाईं ओर साधारण-सी एक इमारत की लंबी-सफ़ेद दीवार पर लगी तामचीनी की एक नेमप्लेट. उस पर अंग्रेज़ी में लिखा है – डॉ.राही मासूम रज़ा. मन में सवाल उठता है – यहाँ यह नेमप्लेट, ऐसे इस जगह क्यों?

उनके आने की प्रतीक्षा करती मेरी आंखें अतिथि-कक्ष की एक-एक चीज़ को जल्दी से देख-याद कर लेना चाह रही थीं. जी हाँ, यहाँ उनसे मेरा मतलब नैयर रज़ा राही से है. बहुत कम लोगों को पता है कि इस शख़्सियत के मासूम रज़ा की ज़िंदगी में आने का सच और अर्थ क्या था? राही से जो जितना दूर था, उसने दोनों के जुड़ने को लेकर उतना ही ऊलजलूल सोचा-फैलाया. क़रीबी जानकार लोग अपने-अपने कारणों से चुप्पी-सी साधे रहे. नतीजतन राही के जीवन और लेखन को लेकर अनेक बेसिर-पैर की, अनर्गल, अप्रामाणिक, परस्पर विरोधी बातें जन्मती, पलती, फैलती रहीं. डॉ.फीरोज़ से ज्ञात हुआ कि नैयर रज़ा अमेरिका से यहां आई हुई हैं. मन हुआ कि राही की ज़िंदगी से उनके जुड़ने के सच को उन्हीं से जाना जाए.

गुलाबी कुर्ता, पीली-सी सलवार. एकदम सफ़ेद चुन्नी. दमकता, मुस्कराता, गोरा चेहरा. श्वेत केश. भरपूर चुस्ती-फुर्ती. न कोई श्रृंगार, न बनावट-सजावट. सब कुछ एकदम सादा-शालीन. सादगी भरी ख़ूबसूरती, स्नेह भरा अपनापन. फिर भी मन में संकोच मिला एक डर मेरे साथ था – जो प्रश्न मेरे अंदर घुमड़ रहे थे, उन्हें सुनकर वे कहीं नाराज़ न हो जाएं. मना न कर दें. हिम्मत जुटाकर बाहर लगी राही साहब की नेमप्लेट के बारे में सवाल किया. ज़ोर की हंसी सुनाई दी. हंसते-हंसते बताने लगीं – इसकी अपनी एक कहानी है. जिस हिस्से में हम लोग बैठे हैं, इसे मेरे दादा ने बनवाया था. जहाँ मासूम की नेमप्लेट लगी हैं – इस जुड़े हिस्से को हम लोग डिब्बा कहते हैं और नौकर लोग छोटी कोठी कहते हैं.

इस सामने वाले हिस्से में उर्दू डिपार्टमेंट में चेयरमैन रहे नसीम कुरैशी साहब रहते ये. उनकी डेथ के बाद इस वाले हिस्से को किसी के नाम अलॉट कर दिया गया. मैं दफ़्तरों में गई, अफ़सरों से मिली. उन्होंने कहा कि आप पर तो घर हैं इसलिए यह आपके नाम अलॉट नहीं हो सकता. मैंने कहा कि मेरे हसबेंड के नाम पर घर नहीं है तो उन्होंने उनके नाम अलॉट तो नहीं किया पर छोड़ दिया था. नहीं, वह इसमें बिलकुल नहीं रहे…उनका ऑफ़िस बना दिया था और यह नेमप्लेट लगवा दी थी. नहीं, अलीगढ में मैं और कहीं नहीं रही, यहीं रही.

राही साहब से आपके जुड़ने और उनसे पहले की ज़िंदगी के बारे में तरह-तरह की बातें कही जाती रही हैं. उन तमाम कयासों-अफ़वाहों पर विराम लगाने के लिए ज़रूरी है कि आप उस सबके बारे में कुछ कहें…?

बड़े ध्यान से सुना सब. ज़रा देर कुछ सोचा और फिर बड़े सहज भाव से बताने लगीं – जी, मेरी पहली शादी कर्नल युनुस ख़ान ले हुई थी. वे मेरे कज़िन थे. बुरा रिवाज़ था यह हमारे यहाँ कज़िन के साथ शादी का. इनके फ़ादर सर अब्दुल समद ख़ां हरिसिंह के ज़माने में कश्मीर में होम मिनिस्टर थे. वे मेरे ख़ालू थे. जब हम लोगों ने डायवोर्स करने का तय किया तो मैंने डिसाइड किया कि मैं श्रीनगर में रहूँ. वहाँ बच्चे वन हॉल स्कूल में पढ़ रहे थे. मैं उस समय तक राही मासूम रज़ा को जानती नहीं थी. मैं मासूम से अपने डायवोर्स के दो साल बाद मिली. नहीं, उससे पहले जानती भी नहीं थी. नहीं, नहीं…भागने-भगाने का सवाल ही क्या था! तब तक दिमाग़ में भी नहीं था कि कोई मिलेगा या शादी करनी है या नहीं.

राही साहब से आप पहली बार कब, कहां मिलीं? आप दोनों का वह मिलना शादी करने के निर्णय तक कैसे पहुंचा?

कुछ याद किया है जैसे. उस यात्रा को तय करने में ज्यादा देर नहीं लगी थी – तब कर्नल साहब की डेथ के बाद कश्मीर में रहकर मूनिस भाई से मिलना हो गया था. मासूम रज़ा से तो इत्तफ़ाक़ से मिलना हुआ. तब मूनिस रज़ा की फेमिली वली मंजिल में रहती थी. उस दिन मैं उनसे मिलने गई थी वहाँ. मेरा चचाजात भाई, जिसकी डेथ हो चुकी है, मेरे साथ था. वहाँ मालूम हुआ कि मूनिस भाई तो जा चुके हैं. तो उस दिन वहाँ पहली बार मेरा मिलना मासूम से हुआ. भाई उन्हें पहले से जानता था. उसी ने बताया कि जिन्होंने दरवाजा खोला – ये पढ़ाते हैं, बड़े मशहूर शायर हैं. नहीं, तब बिल्कुल अट्रेक्ट नहीं हुई. फिर मिलना-जुलना, आना-जाना होता रहा. फिर धीरे-धीरे बढ़ता रहा. फिर एक साल बाद हमने शादी का तय किया. मैंने उन्हें अपनी वालिदा से मिलवाया. वालिदा ने अप्रूव किया. बिल्कुल, उनकी इजाज़त से हुआ सब और हमने शादी कर ली.

क्या ख़ास दिखा था आपको उनमें ऐसा कि आपने शादी करने का निर्णय लिया?

ख़ास यह था कि हमारे ख़यालात बहुत मिलते थे. हमने तय यह किया था कि मैं आपकी पहली ज़िंदगी के बारे में कुछ नहीं पूछूंगी और आप मेरी ज़िंदगी के बारे में भी नहीं पूछेंगे. और हमारा यह वादा आख़िर तक रहा. जी हाँ, यूनुस से मेरे तीन लड़के भी थे. मासूम ने उन तीनों को बहुत प्यार दिया – अपने बच्चों को तरह. अब भी बहुतों को मालूम नहीं है कि यह मासूम के बच्चे नहीं हैं और बच्चों ने भी उन्हें बाप की तरह बेहद इज़्ज़त दी. जी, तीन बेटे और एक बेटी हैं अब.

लोग कहते हैं आपसे शादी करने के कारण ही राही साहब को अलीगढ़ छोड़ना पड़ा?

यह मैं क्या कहूँ…उस वक़्त मासूम यहां लेक्चरर थे. टेंपरेरी थे. जहाँ तक मुझे ख़याल हैं उर्दू डिपार्टमेंट में कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ थे. यहाँ अशोक चंद्रा नाम का एक लड़का पढ़ता था. उसके वालिद आर.चंद्रा फिल्मों के मशहूर डायरेक्टर थे. उनसे मासूम की दोस्ती हुई. यह सच है कि यहाँ से वे छोड़ना नहीं चाहते थे. मजबूरन गए वे अलीगढ़ से. चंद्रा साहब ने उन्हें मुशायरा नाम की फ़िल्म लिखने को बुलाया.

इत्तफ़ाक़ ऐसा हुआ कि वह बनी नहीं. बस, फिर चंद्रा जी के ज़रिए भारत जी से, भारत जी के ज़रिए और फ़िल्म वालों से मिलना हुआ. फिर इस तरह फ़िल्में बनती गईं. शुरू की कुछ तो रिलीज़ ही नहीं हुईं पर बाद में बनती गईं. फिर हम मार्च, 1966 में परमानेंटली बंबई चले गए थे. जी, बीच में मासूम आते रहते थे यहां. जी, बेटी मरियम वहीं बंबई में पैदा हुई. अब अमेरिका में है. उसके हसबैंड डॉक्टर हैं. वो मूनिस रज़ा साहब के बेटे हैं. नहीं, यह शादी इन बच्चों ने नहीं की, बड़ों ने मिलकर करवाई थी.

आपने शादी से पहले क्या अपने बेटों से कुछ पूछा था? आपके दूसरी शादी के निर्णय को उन्होंने कैसे लिया और ये बाद में क्या आपके पास ही रहे?

नहीं, बच्चों से नहीं पूछा था. छोटा तीन साल का था. एक आठवीं में और दूसरा नौवीं में यहीं पढ़ रहा था. बच्चे तब पढ़ रहे थे. बच्चों पर यह कोई पाबंदी नहीं थी कि वे मेरे पास रहें या यूनुस के. हम लोगों में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. छोटा क्योंकि छोटा था, इसलिए मेरे पास रहता था. वैसे बच्चे दोनों जगह रहे.

वह क्या था जिसने आपको युनूस साहब से अलग होने और राही साहब से जुड़ने के लिए प्रेरित किया?

थोड़ी देर कुछ सोचती-सी चुप बैठी रहीं. फिर जैसे ज़िंदगी के उन पुराने पृष्ठों को खोल-पलटकर धीमे-धीमे मुझे सुना रही थीं वे – मालूम नहीं, पर ये है कि यूनुस के ख़यालात बिल्कुल अलग थे. मेंटल एडजस्टमेंट नहीं ही पाया था. आर्मी की नौकरी – कभी कहीं, कभी कहीं. काफ़ी अलग रहना पड़ता था. बहुत ख़ुशगवार ज़िंदगी नहीं गुज़री. कोई लड़ाई नहीं हुई – पर जो दिली सुकून होता हैं, वह नहीं मिला. हालांकि उनके साथ रहते उन लोगों से भी मिलना हुआ जिनके बारे में सोच भी नहीं सकते थे. वो देखिए सामने दीवार पर – मेरी तस्वीर राजेंद्र बाबू के साथ है – और ये राजा जी हैं. वे प्रेसीडेंट के डिप्टी मिलिट्री सेक्रेटरी थे. वे राष्ट्रपति भवन में छह साल रहे और मैँ चार साल. ये बताऊं आपको – वैसे बड़े नेक इन्सान थे यूनुस. बहुत ख़याल करने वाले. मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई. बचपन से मेरी परवरिश अलग ढंग से हुई. ज़िद्दी तबीयत थी मैं. शायद उसी वज़ह से हुआ होगा वह सब….

“अपनी ख़ूबसूरती के बारे में मैं क्या बताऊं?…मुझे नहीं लगता कुछ…आप जान लें – मेरा खिंचाव राही से नहीं हुआ. मैं जब शुरू में उनसे मिली तो मुझे उनकी बातों में सच्चाई नज़र आई. और जैसे-जैसे ताल्लुक़ात और बढ़े तो ये बात और भी पुख़्ता हुई कि उस शख़्स में बनावट नहीं थी. एज़ ए पर्सन एक सच्चे आदमी. जो दिल में होता वही कहते. क्यों जुड़ी…मुझे ख़ुद नहीं मालूम. पर मिलते-मिलते ये जानकर कि यह सच्चा, शरीफ़ आदमी है शायद यही देखकर. नहीं, उन्होंने मेरी कोई तारीफ़-वारीफ़ नहीं की. हां, हां विरोध तो इतना कि हम सुन्नी, वो शिया – पूरे माहौल का फ़र्क़ था. उनकी बात मैं क्या बताऊं…मुझे लगता है शायद मेरी बोल्डनेस ने उन्हें अट्रेक्ट किया होगा.

यूनुस और मासूम के ताल्लुकात बहुत अच्छे थे. यूनुस ब्रॉड माइंडेड थे. उनका कहना था कि हमारा एक रिश्ता ख़त्म हो गया, पर दोस्ती का रिश्ता तो क़ायम है. मैं उनके ख़ानदान से मिलती रहती हूँ. उनके परिवार के लोगों से मेरी अब भी बेहद क़रीबी है. यूनुस मरियम को बेइंतहा चाहते थे. एक दिन उन्होंने यहाँ मुझसे पूछा कि मैं मरियम को तीनों बच्चों के बराबर का हिस्सा देना चाहता हूँ. मैंने कहा कि मुझे कोई एतराज नहीं है, पर आप अगर मासूम से पूछ लें तो बेहतर होगा. रामपुर में उनकी ज़ायदाद है. यूनुस ने मासूम को ख़त लिखा. उन्होंने कह दिया कि ठीक है, मुझे कोई एतराज नहीं है. और आप देखिए कि मरियम उस ज़ायदाद में भाइयों के बराबर की हिस्सेदार है और भाई भी उसे बेहद चाहते हैं.”

उनके बोलने का अंदाज़ बता था कि उन्हें अपने इन दोनों संबंधों पर आज भी नाज़ है. मेरी आंखों में शायद उन्होंने कहीं कुछ आश्चर्य जैसा देख लिया था. उस आश्चर्य को और भी बढ़ाती हुई ले बता रही थीं – “मेरा और मासूम का एक ही कहना था कि इन्सानी रिश्ते टूटते नहीं हैं. ये तो दुनियावी रिश्ते हैं कि शादियां हुई या डायवोर्स हुए. लोग एक-दूसरे के बीच तलवारें खींच लेते हैं. डायवोर्स के बाद यूनुस को यहाँ मेडिकल कॉलेज में एक बड़े पद पर नौकरी मिल गई थी. तब मेरी अम्मा और बुआ इस घर में अकेली रहती थीं. उन्होंने यूनुस को लिखा कि तुम आफ़ताब मंजिल में आकर रहो. उन्हें थोड़ा हेज़िटेशन हुआ. उन्होंने मुझसे लिखकर पूछा कि तुम्हें या मासूम को तो कोई एतराज नहीं है? हमने लिख दिया कि नहीं. और वो यहीं रहते थे…’ उंगली उठाकर बताया – ‘ उन बराबर वाले कमरों में. जी, मैं बराबर अम्मा के पास आती रहती. …मासूम को अगर एतराज होता तो मैं आती ही नहीं. हमारी दिमाग़ी एक अंडरस्टैंडिंग थी – एक-दूसरे पर भरोसा था.”

मैं चकित भाव से वह सब सुन रहा था. मन में आए सवाल के कुछ शब्द ही बोल पाया था तब – “यूनुस यदि इतने अच्छे थे तो…?” बड़ा शांत-सा स्वर सुनाई दिया था – “हर वक़्त उलझने-वुलझने से तो बेहतर था कि….”

आपको राही साहब की पहली शादी की बात मालूम थी क्या? आपके या उनके मन में क्या शादी के बाद ग़लती या अपराधबोध जैसा भाव भी कभी आया था?

मुझे मालूम था कि मासूम की पहली शादी बहुत कम उम्र में उनके वालिद ने करा दी थी. हां, बचपन में उनकी टांग में तकलीफ़ थी. पहली बीबी हमारी शादी के वक़्त थीं कहाँ तब? उनका तलाक हो चुका था बरसों पहले. ख़ुद राही बता चुके थे. नहीं, उनसे कोई संतान नहीं है. अफ़सोस की बाबत मैं क्या बताऊँ. मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं. मुझे नहीं मालूम. वैसे मैंने कभी अफ़सोस जैसा कुछ देखा नहीं. कभी कोई ताल्लुक़ात ही नहीं थे उनके. जहाँ तक मेरी बात है, उनस जुड़ने के बाद ग़लती का कभी अहसास नहीं हुआ. हमेशा लगा कि मेरा डिसीज़न सही था…

किस आधार पर?

मेंटल सेटिसफ़ेक्शन देखकर.

राही साहब के साथ गुज़ारे वक़्त के बारे में आज क्या कहना चाहेंगी आप?

“जो वक़्त उनके साथ गुज़रा, बहुत अच्छा गुज़रा. उन्होंने मेरी हर ख़्वाहिश पूरी की. जो मैंने चाहा – वह चाहे ग़लत था या सही – उन्होंने पूरा किया. दरअसल मेरे वालिद ने मुझे इतना बर्बाद किया कि मेरी हर ज़िद पूरी करते थे. मैं ज़िद्दी होती चली गई. मासूम ने मेरी ज़िदें कैसे झेली, ये उनका ही दिल जानता होगा. लेकिन झेली ज़रुर – किसी बात में इन्कार नहीं किया. हम लोगों की ज़िंदगी नॉर्मल थी. आपस में जैसे झगड़े होते रहते हैं, वो सब नहीं. गिव एंड टेक का मामला था. गिव इन मासूम ही ज़्यादा करते रहते थे. मेरा अपना ख़्याल है – यों तो हम लोगों की अपब्रिंगिंग अलग तरह से हुई थी इसलिए हमारी सोचें बिल्कुल अलग-अलग थीं. इसके बावजूद हम लोगों में विरोध जैसा कुछ नहीं रहा.”

देर तक कुछ सुनाई नहीं दिया तो निगाह उठाकर उनकी ओर देखा – उनकी आंखों से एकांत में जलते दीपक जैसा प्रकाश झर रहा था. ऐसा प्रकाश जो किसी एक को संबोधित-निवेदित न होकर अपने सारे आसपास को रोशनी से भर देता है. “एक इन्ट्रेस्टिंग क़िस्सा सुनिए – मैंने पार्टीशन से पहले सन् 1946 में कान्वेंट से सीनियक कैंब्रिज़ किया. उस ज़माने में अंग्रेज़ी का ज़ोर था. मैं पैंट्स में रहती थी. मेरे वालिद ने कहा कि तुम चार चीज़ें मुझसे सीख लो – अरबी, हिन्दी, चेस और हॉर्स राइडिंग. पहली तीन मैंने ख़त्म कर दीं – हॉर्स राइडिंग ज़रूर सीखी. मासूम से मैंने एक ही चीज़ पर कम्प्रोमाइज़ किया था. उन्होंने कहा कि मुझे ये पतलून-जींस पहनना पसंद नहीं – और मैंने मान लिया. ज़िंदगी में केवल एक यही कम्प्रोमाइज़ किया.”

(डॉ.राही मासूम रज़ा की पत्नी नैयर राही से यह लम्बी बातचीत तब की है, जब वह अलीगढ़ आई थीं. बातचीत का यह पहला हिस्सा है. दूसरा हिस्सा पढ़ने के लिए नीचे दिया हुआ लिंक इस्तेमाल करें.)

कवर| डॉ. राही मासूम रज़ा और नैयर राही, जुलाई 1969 | फ़ेसबुक पेज से साभार

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