इंटरव्यू | ग्रामीण पत्रकारिता के लिए ग्राम्य जीवन की समझ ज़रूरी

इन दिनों जब मुख्यधारा की पत्रकारिता से ग्राम्य जीवन और खेती-किसानी के सरोकार नदारद दिखाई देते हैं, ख़ुद अख़बारनवीस भी गाँव की दुनिया के सवालों से गाफ़िल हैं, श्रृंग्वेरपुर के बेरावां गाँव में रहकर शिक्षा और पत्रकारिता से जुड़े डॉ.अनिल की हाल ही में आई किताब ‘ग्रामीण पत्रकारिता सरोकार और सवाल’ बाज़ारवाद के मौजूदा दौर में अख़बारनवीसी के बदले हुए चेहरे और ग्रामीण पत्रकारिता की पृष्ठभूमि और उसकी चुनौतियों की पड़ताल करती है और तमाम पहलुओं पर बात करते हुए कई सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश भी. किताब में छह इंटरव्यू शामिल किए गए हैं, जो दौर-ए-हालिया को समझने में मदद करते हैं. हर हफ़्ते हम इनमें से एक इंटरव्यू यहाँ छापेंगे. इस कड़ी में पहला इंटरव्यू ‘अमर उजाला’ के कई संस्करणों में लंबे समय तक बतौर संपादक काम कर चुके प्रभात का नज़रिया.

ग्रामीण पत्रकारिता क्या है?
ग्राम्य समाज और ग्राम्य जीवन, वहाँ की संस्कृति के बारे में पत्रकारिता के सरोकार को ग्रामीण पत्रकारिता कह सकते हैं. जब मैं ग्राम्य संस्कृति कहता हूँ तो खेती-बाड़ी, रहन-सहन, ओढ़ना-पहनना, मेले-ठेले, तीज-त्योहार, शादी-ब्याह, घर-दुआर, गोरू-गाड़ी यानी जीवन का हर पहलू और परिवेश इसमें समाहित है.

यह मुख्यधारा की पत्रकारिता से कितना और कैसे अलग है?
मुझे लगता है कि बुनियादी फ़र्क समझ का है. जिसे आप मुख्य धारा की पत्रकारिता कह रहे हैं, मैं उसे पत्रकारिता का आधा-अधूरा सरोकार मानता हूँ. पत्रकारिता जनपक्षधरता का पेशा है, जन के हित में जो ज़रूरी हो, उस पर बात करना और जहाँ ज़रूरी हो, अवाम के सरोकार के सवाल उठाना. गुज़रे दो दशकों में यह सनसनी और ग्लैमर पर ज़्यादा केंद्रित हुई है. और हाल के वर्षों में तो इस मुख्य धारा की पत्रकारिता से जनसरोकार का लोप ही देखने में आता है. इस नज़रिये से देखेंगे तो मीडिया के बदले स्वरूप या कहें कि बदली हुई प्राथमिकताओं में ग्रामीण पत्रकारिता का कुल मतलब गाँवों में होनी घटनाएं ही रह गई हैं. इनमें में अमूमन हिंसा, अपराध की ख़बरें हैं या फिर गाँवों की तरक़्क़ी की सरकारी ख़बरें. गाँव के लोग, उनके दुःख-सुख मीडिया से एकदम नदारद हैं. पहले भी उनके बारे में बहुत लिखा-पढ़ा जाता रहा हो, ऐसा नहीं मगर उनके वजूद की इस क़दर अनदेखी नहीं थी.

इसकी एक बड़ी वजह पत्रकारों की ‘लेग-वर्क’ से अरुचि है. गाँवों के बारे में लिखने, उन्हें समझने के लिए गाँवों तक चलकर जाना पहली शर्त है, समझ विकसित करने के लिए लोगों से मिलना-बात करना ज़रूरी है. क़स्बों-शहरों के न्यूज़रूम में बैठे लोगों की फ़ोन के ज़रिये गाँवों तक हुई पहुंच ने उनकी समझ में वहाँ जाने की ज़रूरत ख़त्म कर दी है. दूसरी वजह, घटनाओं-सरकारी घोषणाओं को ही ख़बर मान लेने की भूल है. आप ग़ौर करें तो पत्रकारों को गाँवों तक जाने की ज़रूरत केवल आपदा की स्थिति में लगती है या फिर कोई नेता-वेता गाँव घूमकर फ़ोटो खिंचाने आता है तब.

ग्राम और ग्राम्य संस्कृति के लगातार ख़त्म होने के क्या कारण समझ में आते हैं?
अगर आप गंवार और देहाती जैसे विशेषणों का मनोविज्ञान समझ लें तो इसकी वजह समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं. यह जो देहाती है, वह पिछड़ेपन की निशानी है और जो शहरातू है, वह आधुनिक होने की पहचान. मेरी समझ में गाँवों में परंपराओं-मूल्यों के क्षरण के पीछे यह मनोविज्ञान भी काम करता है. हमारे यहाँ गाँवों को पिछड़ा मान लिया है और यह बिल्ला इतनी शिद्दत से चिपकाया गया है कि वहाँ रहने वालों ने ख़ुद को पिछड़ा-हीन मान लिया. पिछड़ेपन से आशय सहूलियतों की कमी था – बिजली, सड़क, स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाओं का अभाव जो अमूमन शहरियों को मयस्सर हैं. मगर लोगों का मानस यह बन गया कि जो गाँवों में रहते हैं, वे पिछड़े लोग हैं.

और इस भ्रम ने गाँवों में शहर बनने की होड़ पैदा कर दी. जो कुछ भी गाँव का है, वह गंवई है, चाहे खाना-पीना हो, फिर रीति-रिवाज़ या जीवन-मूल्य. रही-सही कसर टेलीविज़न के प्रसार और कुछ बरसों के बाद आए मोबाइल-इंटरनेट की लत ने पूरी कर दी. और यकीन मानें कि इस लत के पीछे भी वहीं मनोविज्ञान काम कर रहा है, जिसके बारे में मैंने शुरुआत में कहा. मोबाइल रखना ऐसी उपलब्धि मान ली गई है, जिसकी बिना पर आप एक झटके में शहरियों के बराबर आ खड़े होते हैं.

और अगर थोड़ा-सा पीछे जाकर देखें, यानी क़रीब तीन-चार दशक पहले तक बुनियादी सुविधाओं से वंचित गाँव के लोग अपनी तमाम ज़रूरतें गाँवों में ही जुटा लेने में समर्थ थे. शहरों पर उनकी निर्भरता दवा-इलाज, ब्याह के लिए ज़रूरी ख़रीदारी और पढ़ाई-लिखाई के लिए हुआ करती थी, बस. अब ऐसा नहीं रह गया है. नूडल्स और चाउमिन के ठेले, बर्थ-डे केक बेचने वाले ठिकाने, और ख़ास मौक़ों पर जुटने वाले डीजे से इसका अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं है.

अख़बारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्रामीण पत्रकार नियुक्त न होने के क्या कारण हैं?
मेरी अपनी समझ तो यही है कि गाँव-देहात में आबाद अख़बार पढ़ने, टीवी या इंटरनेट पर ख़बरें देखने-सुनने वाले लोगों की मांग कभी बाध्यकारी नहीं रही. मीडिया को कभी यह लगा ही नहीं कि गाँव की ख़बरें उनकी ज़रूरत हैं क्योंकि वहाँ के लोग भी अपनी दुनिया से बा-ख़बर रहना चाहते हैं. इसे टेलीविज़न के उदाहरण से भी समझ सकते हैं – जो मेट्रोपॉलिटन शहर टीआरपी तय करते हैं, वहां की छोटी से छोटी घटना भी बड़ी ख़बर बन जाती है. दूसरे शहरों की बड़ी से बड़ी ख़बरें हमें मालूम नहीं हो पातीं. मार्च 2010 की बात है, बरेली में हुए एक बवाल के बाद हालात ऐसे हो गए कि शहर में कर्फ़्यू लगाना पड़ा. क़रीब दस दिनों तक शहर में कर्फ़्यू रहा. मगर शहर के हालात और आम लोगों की ज़िंदगी के बारे में तेज़ या धीमे किसी टेलीविज़न चैनल पर हफ़्ते भर तक कोई ख़बर नहीं आई थी. बरेली कोई गाँव नहीं है, मगर टीआरपी तय करने में इसका कोई योगदान नहीं.

आप ग्रामीण क्षेत्र में संवाददाताओँ की तैनाती की बात कर रहे हैं, मुख्य धारा या राष्ट्रीय कहलाने वाले मीडिया में आप अपने सूबे या देश के कितने शहरों के हालचाल जान पाते हैं. अमूमन पूर्वोत्तर की ख़बरों के बारे में कहा जाता है कि कोई हादसा या हिंसा न हो तो हम वहाँ के लोगों के बारे में मीडिया के मार्फ़त कुछ नहीं जान पाते हैं. मैं पूर्वोत्तर के साथ ही दक्षिण भारत को भी इसमें शामिल मानता हूँ. और अब तो एक ही ज़िले में गाँव और शहर के अख़बार भी अलग-अलग होते हैं. यानी शहर में रहने वालों को अपने आसपास के लोगों के बारे में भी जानने का ज़रिया मीडिया नहीं रह गया है.
मीडिया के लिए गाँव ग्राहक भर हैं, तो टीवी-अख़बारों में विज्ञापन देने वाली कंपनियाँ उनकी रुचि के बारे में मालूम करती हैं. गाँव की ख़बरों को लेकर मीडिया को जब ऐसी ज़रूरत पड़ने लगेगी, संवाददाता भी होंगे. यों क्षेत्रीय अख़बारों के नेटवर्क में तहसील और कहीं-कहीं ब्लॉक के स्तर तक संवाददाता तो रखे ही जाते हैं.

गांवों के ख़त्म होने जाने और बढ़ते शहरीकरण से क्या ग्रामीण संस्कृति रीति-रिवाज़ और परंपराओं के ख़त्म होने का ख़तरा है?
समय के साथ बदलाव बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है. व्यक्ति हो या समाज, उसकी ज़रूरतें बदलाव लाती हैं. और ज़रूरी नहीं कि हर बदलाव सकारात्मक हो. किसी तरह के रीति-रिवाज़ या परंपरा के ख़त्म होने का ख़तरा तभी होता है, जब वे लोगों के बरताव से बाहर चले जाएं. छठ पूजा की परंपरा से इसे बेहतर समझ सकते हैं – बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग देश-दुनिया में जहाँ गए, अपनी इस मान्यता-परंपरा से जुड़े रहे हैं. नतीजा आपके सामने है. गणेश पूजा महाराष्ट्र से और दुर्गा पूजा बंगाल से निकलकर देश भर में जिस तरह छा गई है, उसके मूल में कई कारण हैं पर बहुतेरे लोगों के लिए यह उनके पुरखों की परंपरा है.

जहाँ तक गाँवों के ख़त्म होने का सवाल तो इसकी ज़िम्मेदारी किसी बाहर वाले की नहीं, वहाँ के लोगों की है.

विकास के लिए बनती योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्रों की भूमिका नगण्य रहती है ग्रामों के उत्थान के लिए पत्रकारिता किस तरह योगदान दे सकती है?
योजनाएं बनाने का काम तो ज़ाहिर है कि कार्यपालिका-विधायिका के ज़िम्मे हैं. अलबत्ता इलाक़े के लोगों की ज़रूरतों, सहूलियतों के ख़्याल से पत्रकार ऐसे मुद्दों पर लिखते रहकर उनका ध्यान खींच सकते हैं.

बहुसंस्करणीय पत्रकारिता के दौर में गांव के अपराध की ख़बर ही मुख्य पृष्ठ पर आ आती है. क्या आप मानते हैं कि रचनात्मकता गांव से ख़त्म हो रही है?
रचनात्मकता में गाँव-शहर का अंतर कोई मायने नहीं रखता. न ही अपराध की ख़बर के पहले पेज पर होने का इससे कोई लेना-देना है. यह सवाल थोड़ा जटिल है मगर इसका जवाब पाना बहुत मुश्किल नहीं. अपराध की ख़बरों को महत्व देने का फ़ैसला न्यूज़रूम में बैठे लोग इस तर्क के साथ करते हैं कि लोग यही पढ़ना चाहते हैं. और वे लोग, जिन्हें लगता है कि ख़बर को बहुत तूल दिया गया है, वे इस पर कभी एतराज भी नहीं करते.

आप दुकान से एक रुपये की दियासलाई ख़रीद कर लाते हैं, ख़राब निकल जाए तो अगली बार दुकानदार को टोक देते हैं या फिर कोई दूसरी दियासलाई ख़रीदते हैं. अख़बार पढ़ने या टीवी देखने पर ख़र्च किया हुआ पैसा आपको खलता नहीं है. अख़बारों को पोस्टकार्ड लिखने का चलन तो ख़ैर बीते ज़माने की बात है मगर नए ज़माने में उन्हें लिखने-बताने के इफ़रात तरीक़े मौजूद हैं. अपने आसपास पता करके देखिए, कोई इनका इस्तेमाल करता है? यह नुक्स अगर क़बूल है तो फिर शिकायत किस बात की.

ग्रामीण पत्रकारिता को कैसे बचाया जा सकता है?
थोड़ा ग़ौर से सोचकर देखिए, यह सवाल पत्रकारिता की अस्मिता, उसके मूल्यों को बचाने या उसके गरिमा को फिर से स्थापित करने का है. ग्रामीण पत्रकारिता भी उसी का हिस्सा है. और जब मैं गरिमा की पुनर्स्थापना कह रहा हूँ तो मूल्यों के क्षरण और लोगों के बीच कम से कमतर होते चले गए भरोसे की बिना पर कह रहा हूँ.

ग्रामीण पत्रकारिता कृषि पत्रकारिता से कितनी अलग है?
कृषि पत्रकारिता के लिए भी गाँवों के बारे में न्यूनतम समझ ज़रूरी लगती है. और मेरी राय में तो यह ग्रामीण पत्रकारिता का हिस्सा ही है.

किसानों की आत्महत्या की ख़बरों को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता. मृत्यु की ख़बरें तो छपती हैं, लेकिन इसके पूर्व के उनके हालात पर यदि ख़बर छापी जाए, तो क्या उन्हें मृत्यु से बचाया जा सकता है?
नहीं, मुझे नहीं लगता है. ख़बरें इंतज़ामिया को जगाने भर का काम कर सकती हैं, हालात बदलने में उनकी भूमिका इतनी ही है. विदर्भ और अनंतपुर जैसे इलाक़ों में मैं ऐसे किसानों के घर वालों से मिला हूँ. उनसे बात करके जो कुछ मैं समझ सका हूँ, वो यह कि ऐसे हादसों के पीछे कोई एक वजह नहीं थी और न ही यह कोई यकायक लिया हुआ फ़ैसला.

मानसिक रूप से उनके टूट जाने की वजह बेशक उनकी ख़राब माली हालत थी. अनंतपुर में एक परिवार से मिला, जिसके मुखिया ने बोरिंग कराने के लिए बैंक से कर्ज़ लिया था. खेत में तीन अलग-अलग बोरिंग कराई मगर पानी नहीं मिला. बैंक के अलावा महाजन से भी कर्ज़ लेना पड़ा. रक़म सारी ख़र्च हो गई और खेती की ज़रूरत भी पूरी नहीं हुई. इन दोनों कर्ज़ों को लौटाने के दबाव में उन्होंने जान दे दी. एक बड़ी उम्र के शख़्स से मिला, जिनकी पत्नी ने इसलिए ख़ुदक़शी कर ली कि बैंक का कर्ज़ उनके नाम है तो शायद उनकी मृत्यु से उनके पति को कर्ज़ चुकाने से मुक्ति मिल जाएगी. विदर्भ में ब्याह की उम्र लायक़ युवती इसलिए जान दे देती है कि कर्ज़ के बोझ से दबे उसके पिता को उसका दहेज जुटाने के लिए अगर खेत बेचने पड़े तो परिवार की आजीविका का ज़रिया चला जाएगा.

ये परिवार नज़ीर भर हैं, इनकी रोशनी में आप ख़ुद सोचकर देखिए कि ख़बरें उन्हें किस तरह बचा सकती थीं?

ग्रामीण संस्कृति को प्रिंट माध्यम अथवा फोटो पत्रकारिता में से किस माध्यम से ज्यादा आसानी से प्रस्तुत किया जा सकता है?
मुझे लगता है कि विज़ुअल माध्यम ज़्यादा कारगर है.

अख़बारों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा ग्रामीण पत्रकारों के लिए कभी वर्कशॉप आयोजित नहीं की जातीं. यहां तक कि उनकी अच्छी ख़बरों को भी प्रमुखता से प्रकाशित नहीं किया जाता. ग्रामीण पत्रकारों को किस तरह से पहचान प्रदान की जा सकती है?
किसी भी क्षेत्र में पहचान के लिए जतन की ज़रूरत होती है- यह बात पत्रकारिता पर भी लागू होती है. फिर पहचान दी नहीं जाती, ख़ुद बनाई जाती है. ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना, अपने समय और अपनी दुनिया से वाकफ़ियत रखना अच्छा लिखने के लिए ज़रूरी है. अच्छी ख़बर का मानक आप किसे समझते हैं? यह मानक बहुत सापेक्ष होता है. और अगर ख़बर अच्छी है तो कोई क्यों नहीं छापना चाहेगा? फिर भी अगर लगे कि यही सही है तो इसका मतलब हुआ कि वहाँ ख़राब ख़बरें ही लिखी-छापी जाती हैं, ऐसे में संस्थान को बदलने के बजाय ख़ुद संस्थान बदल लेना ज़्यादा अक़्लमंदी होगी.

वर्कशॉप तो ख़ैर दूसरों के लिए भी नहीं होती. वर्कशॉप ऐसे मीडिया संस्थानों की ज़रूरत होती है, जिन्हें लगता है कि बदलती दुनिया में वे और उनके साथी पिछड़ रहे हैं, या कि उन्हें नया सीखने की ज़रूरत है.

ग्रामीण पत्रकार को किसी ख़बर के लिए यदि रिसोर्स पर्सन माना जाए तो उसको उसके कार्यों के लिए मानदेय न दिए जाने के क्या कारण हैं?
ऐसा कोई कारण नहीं है. मानदेय दिया जाना चाहिए, और दिया जाता भी है. अमूमन यह दोनों पक्षों के बीच सहमति पर आधारित होता है. मानदेय न मिले तो ऐसी किसी जगह काम करने की मजबूरी भी मेरी समझ में नहीं आती – फिर चाहे वे रिसार्स पर्सन हों या संवाददाता.

आजकल अख़बार के संवाददाताओं को संवाद एजेंसियों से जोड़ दिया जा रहा है. ऐसे में ग्रामीण पत्रकार जिस अख़बार के लिए काम करता है, न तो वह उसका सदस्य रहता है और न ही संवाद एजेंसी और से उसका सीधा सरोकार रहता है. इस स्थिति में ग्रामीण पत्रकारों की क्या पहचान बनती है?

ऐसा आप शायद इसलिए सोचते हैं कि अख़बार या टीवी चैनल के तमग़े की हनक किसी नामालूम-से मीडिया हाउस के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा होती है. हक़ीकत तो यही है कि जिन बड़े अख़बारों को मैंने क़रीब से जाना है, उनमें से कोई भी गाँव में अपने स्टाफ़र नहीं रखते थे. छोटे क़स्बों से पत्रकारिता करने वाले लोग भी फ़ुलटाइम पेशेवर नहीं होते हैं. पहचान के बारे में अपनी राय मैं पहले ही बता चुका हूँ.

फ़िल्मों से लेकर संसद तक में ग्रामीण विकास के लिए योजनाएं बनती हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका लाभ कम दिखता है. ग्रामीण परिवेश मात्र लुभाने और योजनाओं के निर्माण तक सीमित है, यही वजह है कि कोई गांव आज तक पूर्णतः विकसित नहीं हो सका. ग्रामीण विकास में राष्ट्रीय पत्रकारिता की कितनी भूमिका शेष है?

फ़िल्मों में ग्रामीण विकास की योजनाएं बनने से आपका आशय मेरी समझ में नहीं आया. फ़िल्मों की योजनाओं से ज़मीनी फ़ायदे की उम्मीद किस तरह की समझदारी है भला? यह बात भी समझ में नहीं आने वाली है कि कोई गाँव पूरी तरह विकसित नहीं हो पाया?

फ़ोटो पत्रकारिता के दौरान ग्रामीण प्रसंग कितना लुभाते रहे. ग्रामीण क्षेत्र की किसी यादगार फ़ोटो के बारे में बताएं.
लोगों से मिलना, उनकी कहानियाँ सुनना और अपनी तस्वीरों के ज़रिये वे कहानियाँ दुनिया को बताना-सुनाना मुझे अच्छा लगता है. इस लिहाज़ से गाँव को मैं अलग नहीं मानता. इंसान जहाँ भी हों, उनकी संस्कृति अलग हो सकती है मगर संवेदनाएं एक जैसी होती हैं. मुझे लगता है कि हर किसी के पास कहानी है, और वह दूसरों से अलग होती है. यह दुनिया देखने के हमारे नज़रिये पर निर्भर करता है.

पत्रकारिता के दौरान ग्रामीण प्रसंग को लेकर अपने जीवन पर्यंत अनुभव को साझा करें.
किसान मुक्ति यात्रा के दौरान मुझे उत्तर से दक्षिण तक तमाम गाँवों में जाने और लोगों से मिलने का मौक़ा मिला. आलू से लेकर अफ़ीम, मिर्च से लेकर मूंगफली और ज्वार से लेकर जीरे तक की खेती करने वाले किसानों से बात करके मुझे लगा कि भूगोल के लिहाज़ से वे अलग हैं तो उनकी मुश्किलें भी अलग तरह की होती हैं. इसीलिए कोई एक नियम या क़ानून उनकी मुश्किलों का व्यावहारिक समाधान नहीं दे सकता.

इसी यात्रा के दौरान एक रोज़ राजस्थान के जिस बिशनगढ़ गांव में हमारा पड़ाव था, वहां ठहरने की जगह कम पड़ गई. दुग्ध को-ऑपरेटिव दफ़्तर के परिसर में एक बरामदा, सामने खुला परिसर. भारी उमस थी. ऐसे में रात को बारिश हुई तो खुले में सो रहे लोग कहां जाएंगे? अभी हम लोग सोच ही रहे थे कि एक सज्जन आगे आए और प्रस्ताव किया कि 30-40 लोग उनके गाँव चल सकते हैं. हममें से कुछ लोगों को अपने साथ वे क़रीब दस किलोमीटर दूर टोडी गाँव ले गए…चारपाइयाँ, तकिया, चादर जुटाए. हम एकदम अजनबी लोगों के लिए अपना घर खोल दिया. इस भावना को मैं कोई उपमा नहीं देना चाहता. बस इसे महसूस करना काफ़ी होगा. तो सुबह गुड़ की चाय पीने के बाद जब हम चलने को हुए तो हमारे टोडी के मेज़बान अड़ गए कि खाने के बिना तो नहीं जाने देंगे. यह बताने पर कि आगे के सफ़र में देर हो जाएगी, हम सबको लेकर बाज़ार तक आए. कचौरी खिलाकर हमें विदा किया.

इस यात्रा में कई जगहों पर हमें किसी सार्वजनिक जगह के बजाय लोगों के घरों में ठहरने का मौक़ा मिला और उनकी निःस्वार्थ मेहमाननवाज़ी के ऐसे बेशुमार तजुर्बे हुए.

कोई ऐसा अनुभव या विषय जो ग्रामीण पत्रकारिता के सरोकार से संबंधित हो?
थारुओं पर अपनी किताब के लिए काम करते हुए पलिया, श्रावस्ती और बलरामपुर में उनके गाँवों में कई बार जाता रहा हूँ. मगर पलिया के मसानखम्भ गाँव में मिल गए एक भर्रा छुट्टन का ख़्याल कभी ज़ेहन से नहीं जाता. छुट्टन ने एक बड़ी-सी कच्ची हॉलनुमा जगह को अपने इलाज का ठिकाना बना रखा था. इसके अलावा चार-पाँच कच्ची कोठरियाँ भी थीं, जिनमें उसके मरीज़ महीनों तक ठहरा करते थे. झाड़-फूंक करने वाले उस आदमी का ऐसा असर था कि लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराने उसके पास आते हैं, जिन्हें रुकना होता है वे अपना राशन-पानी भी साथ लेकर आते हैं.

उस हॉल में राम दरबार, सिख गुरुओं और करबला के कई पोस्टर दीवार पर चिपके हुए देखे, मोर पंख की मोटी-सी झाड़ू से एक किशोरी की पीठ पर लगातार ठोंकते हुए और अस्फुट-सा कुछ बुदबुदाते हुए सुना, कोठरी में ठहरी उस बच्ची की माँ से भी मिला. उस बच्ची का चेहरा, उसकी आँखें कभी नहीं भूलती, जिसे शायद किसी मानसिक रोग के डॉक्टर की ज़रूरत थी और जो इस गोरखधंधे में आ फंसी थी. इस बाबत इलाक़े के कई अख़बारनवीस साथियों को मैंने उस भर्रा के बारे में बताया, बाद में एक वीडियो रिपोर्ट भी बनाई, मगर अख़बारों में मुझे कभी इस तरह की कोई रिपोर्ट पढ़ने को नहीं मिली.

यों लिखने-बताने के लिए हर जगह बहुतेरे विषय हैं. ज़रूरत उन पर निगाह डालने, महसूस करने और सलीके से उसे बताने की है.

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