क़ुर्रतुलऐन हैदर | पावर है जो इन्सान की नफ़्सियात बदल देती है

उनकी भान्जी के घर से लौटा तो छ: बज चुके थे. वे तब भी सोने वाले कमरे में थीं. दोस्त जा चुकी थीं. हिम्मत कर मिलने का थोड़ा-सा समय देने के लिए दो बार ख़बर भिजवाई. उम्मीद छूट चुकी थी, पर अब आना अकारथ नहीं लग रहा था. तभी अचानक वे कमरे से बाहर आती दिखीं – “अरे, यह पंखा नहीं चलाया! उफ़, बिजली क्यों नहीं जलाई? मैँने कहा था न तुमसे!” सोफ़े पर बैठते-बैठते पूछा, “चाय पिलवाई कि नहीं?” बैठते ही प्रश्न, “हाँ तो आप कहाँ हैं?…क्या करते हैं?…क्या करते हैं?…हाँ-हाँ! ठीक है. बताया था.” ख़ुद के बारे में एक-दो शब्दों में उत्तर! समाज, देश या पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में विस्तार और गम्भीरता से जवाब! अपने लेखन या महत्व पर एक शब्द नहीं कहा! सुनना, रोककर फिर से पूछना. बोलना तेज़-तेज़ जल्दी-जल्दी! पूछा तब भी था कि आप क्या लिख रहे हैं? रोका भी था. ‘अज़ाबेजान’ जैसे कुछ शब्दों के याद न रहने की कहकर मैंने सफाई-सी दी थी, “आप देखती हैं कि कितनी बेहूदी बातें आजकल रोज़ छापी-दिखाई जा रही हैं. तो वे बातें, ऐसी अच्छी बातें, जो मैँने यहाँ देखी-सुनी जिनकी लोग कल्पना भी नहीं करते, वे भी लोगों के सामने आनी चाहिए.” ग़नीमत रही कि वे मान गईं. यह सोचकर बड़ा भय-सा लगा कि यदि लिखने से एकदम रोक दिया होता तो?

याद नहीं पहल किस सवाल से हुई थी. लेकिन बेहद स्नेहिल, मुलायम आवाज़ में वे बोले जा रही थीं-

“नहीं मैं कोई बड़ी अनोखी चीज़ नहीं हूँ. मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं कुछ ख़ास या अलग व्यक्ति हूँ. आप इतनी देर से यहाँ मौजूद हैं, क्या मैंने ख़ास की तरह कोई बात की?” “नहीं, बिल्कुल नहीं,” मैंने उत्तर दिया. “आपने आत्मकथा पढ़ी है मेरी? अरे हाँ, हिन्दी में नहीं थी तो आप कैसे पढ़ते? अच्छा, अच्छा! आपने ‘आग का दरिया’ पढ़ा है? हाँ, आत्मकथा में अपना परिवार है, किताबों का ज़िक्र है. सातवीं शताब्दी से शुरू करके 2001 पर ख़त्म किया है. नहीं, नहीं, इसमें ताज्जुब की क्या बात है! तथ्य हैं. मैंने उनके बारे में पढ़ा है और उन्हें इस परिवार की कहानी के बैकग्राउंड के तौर पर पेश किया है. इसमें मेरे माँ-बाप के परिवारों की कहानियाँ हैं. इसमें उत्तर भारत के सात-आठ सौ साल की कहानी शामिल है. और ऐसी कहानी हर व्यक्ति अपने-अपने परिवार के बारे में लिख सकता है. इसके लिए केवल इतिहास की जानकारी ही शर्त है. आप देखिए, ग्रीक्स ने कार्बन डेटिंग शुरू कर दी और हमारे यहाँ पता नहीं चलता कि बहुत-सी पुरानी इमारतें कहाँ गईं! एक्चुअल पत्थर है, ब्रिक भी है, नाम है, किताब है फिर भी! कारण है मौसम! शुरू होता है अजन्ता वगैरह से. ईसाईयत के बाद. साँची है, जिसकी करेक्ट डेटिंग है. अब कर रहे हैं इधर भी कार्बन डेटिंग! अरब लिखते थे, ग्रीक्स लिखते थे. रोजिस्टर स्टोन था कुंजी – हमारे यहाँ भोज पत्र थे, ताड़ के पत्ते. कब तक चलें? पत्र पर लिखते थे. हमारे यहाँ लिखने की परम्परा बहुत बाद में आई. रटे जा रहे हैं उम्र भर! ज़िन्दगियाँ सिम्पिल थीं. दो चपातियाँ बनाईं, खा लीं. करना कुछ नहीं था ऐसा-वैसा. पढ़ने-लिखने का रिवाज़ था. अब वह माहौल नहीं. टीवी आ गया है. किताबों का भविष्य नहीं है ख़ास. ख़ासतौर से उर्दू का!

बहुत से लोग टीवी के आतंक के शोर की जगह इसकी अहम और बेहतर भूमिका की बात भी तो कहते हैं. इसकी भूमिका में यदि कहीं कमी और ख़राबी हैं भी, तो उसे बदलेगा कौन?

सबसे बड़ा मीडियम (माध्यम) था टीवी का! पर वो अच्छी बातें सिखाने को जगह लग्ज़री गुड्स (विलासी उत्पादनों) के इश्तहार दिखाने में लगा है. पूरी क़ौम और पीढ़ियों की बस यही तमन्ना है कि हमारे पास ये चीज़ें ज़रूर हों. पूरे समाज में बहुत अमीर भी हैं, ग़रीब भी. इतनी विषमता है कि पूरा ढाँचा नहीं बदलेगा तो कुछ नहीं बदलेगा. बिल्ली के गले में कौन घंटी बाँधेगा? कौन बदल सकता है? कौन बदलेगा? हम लोग ही बदल सकते हैं. लिखने-पढ़ने वाले लोग. पर उन्हें पढ़ता कौन है? कितने पढ़े-लिखे हैं? कितनों को हिन्दी, बंग्ला, उर्दू, मराठी आती है? नब्बे फ़ीसदी जाहिल हैं. वे सब टीवी देखते हैं. उन्हें पढ़ने-लिखने की ज़रूरत नहीं. तब! बड़ी ख़ौफ़नाक हालत है. अब पढ़ते कितने लोग हैं? किताबों का क्या होगा, अल्लाह जाने! पर हाँ, उर्दू की किताबों का
भविष्य सोचकर ज़रूर तकलीफ़ होती है. उर्दू लिपि ही नहीं रहेगी तो क्या होगा?

एक दौर में इस्मत चुगताई और आपके लेखन ने बड़े-बड़े पुरुषवादियों को चौंकाया, आहत किया था. लोगों को अलग तरह से सोचने को बाध्य किया था. आज के दौर की औरत की ज़िन्दगी को देखकर आप अपनी नारी सम्बन्धी सोच को किस तरह आँकती-नापती हैं?

हां, इस्मत आपा एकदम प्रोग्रेसिव हैं, बोल्ड हैं. वो चौंकाती हैं. ज़ाहिर है, जो चौंकाता है, उसे तवज्जो मिलेगी. पर अब आप वैसा लिखें कोई नहीं चौंकता. उससे भी अधिक लिखा जा रहा है और लोग ध्यान तक नहीं देते क्योंकि ज़माना आगे बढ़ चुका है. और हाँ औरत! किस तरह की औरत? औरत बेसिकली अपने लिए नहीं जीती है. बचपन में माँ-बाप, बहन-भाई, पति, बच्चे फिर पोते-नवासे. आमतौर पर औरत के मिज़ाज में ख़ुदसरी नहीं है. अपने को बड़ा समझने का अहसास नहीं है. कम से कम एशिया की औरत को. इसका कारण पूरा माहौल है. आपकी पूरी हिस्ट्री का असर पड़ता है. अमरीका, इंग्लैंड में भी फ़र्स्ट वर्ल्ड वॉर के बाद उन्हें आज़ादी मिली. क्लब, डांस आज़ादी नहीं है. अपना पैसा, ज़ायदाद में हक़ कहाँ था? अभी थोड़े पहले तक नहीं था. और जहाँ तक इंडिया की बात है, इस लिहाज़ से इंडिया एक जैसा मुल्क नहीं है. कोई औरत फ़्रंटियर में है, वह बंदूक लेकर चल रही है. पंजाब में है, धान बो रही है. हर प्रान्त की औरतों के रिवाज़ और परम्पराएं अलग-अलग हैं. केरल की औरत उत्तर प्रदेश की औरत से भिन्न है.

क्या आपको यह नहीं लगता कि आज औरत की ज़िन्दगी में बड़ा फ़र्क़ आ गया है? उसकी स्थिति पहले से काफी बेहतर हुई है?

हां, यहां बहुत फ़र्क़ आया है. अब औरत की हालत अच्छी हो गई है. अपने पैरों पर खड़ी भी हुई है. अब औरतें ज़्यादा ‘असर्ट’ करने लगी हैं. ख़ुदमुख़्तारी आ गई है. ..पर पहले क्या औरतें काफी दहेज़ न लाने पर ज़िन्दा जलाई जाती थीं? और कोई प्रोटेस्ट नहीं किया जाता था?

पिछले कुछ वर्षों में यह भी हुआ कि सामाजिक जीवन में सक्रिय कुछ औरतों द्वारा आज़ादी, अधिकार और स्थिति के दुरूपयोग के समाचारों ने आम आदमी को भिन्न तरह से सोचने के लिए बाध्य किया है. उसे ठेस पहुँचाई है. आप इस तरह के उदाहरणों को किस तरह लेती रही हैं?

औरत हो या मर्द, असल चीज है पावर! पावर से इन्सान की नफ़्सियात बदल जाती है. आप जानते हैं नफ़्सियात? साइकोलॉजी, टेम्परामेंट! ऐसी औरतों ने प्रमाण दिया है कि नेतागिरी करने वाली औरत भी करप्ट हो सकती है.

ग़ौरतलब है कि आज़ादी, ख़ुदमुख़्तारी और आर्थिक आज़ादी के चलते औरतों में अकेले रहने का चलन बढ़ रहा है. परिवारों के टूटने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. भारतीय समाज और भविष्य की दृष्टि से अकेले रहने की इस प्रवृति से कैसे परिणामों की उम्मीद आप करती हैं?

यह अकेले रहना और बढ़ेगा. एक अरब की आबादी में हर तरह के लोग हैं, हर तरह की क्लास है. औरत की इतने बड़े मुल्क में सब जगह एक-सी हालत नहीं है. हर सूबे की अपनी रवायत. केरल में औरत इंडिपेंडेंट है, और आप पहाड़ पर देखिए, पंजाब में देखिए. नहीं लगता कि भारत में पश्चिम जैसा कुछ होगा. यह भी सही है कि फैमिली टूट रही है और आगे और ख़तरा है. बड़े शहरों में है यह, छोटे शहरों में नहीं. अभी अमरीका नहीं होंगे हम. भारत सारा गाँव है. अभी भी वह शहर नहीं है. शहर सोचना ग़लत है, गाँव ही है. पर गाँव में जहालत बहुत है, लेकिन वहाँ की परम्परा देखिए. अभी दो-तीन वर्ष पहले का वाक़या है, मैं बिजनौर के एक गाँव की पगडंडी से गुज़र रही थी. तभी तीन औरतें खड़ी मिली रास्ते में. मुझे देखा, उनमें से एक गई और झटपट मँजे, चमचमाते गिलास मेँ बग़ैर कहे पानी लेकर आ गई. मैंने पानी पिया. बताइए, शहर में ऐसा कौन करेगा? ये रीयल इंडिया है. हाँ, अच्छा नहीं होगा. पर पूरी सोसायटी का जो हाल है, उसमें यह सब बढ़ेगा. इण्डस्ट्रियल सोसायटी में परिवार कहाँ? छोटे ख़ानों में बँट गए हैं लोग. यह अच्छा नहीं होगा. देखिए, यह बहुत बड़ा मुल्क हैं. इसमें ऐसा नहीं होगा. सारा मुल्क शहर में नहीं आ जाएगा. गाँव, उन्नति के बावजूद गाँव तो रहेगा. फिर भी, पैसों की जो हवस बढ़ रही है, वह ख़तरनाक है. शायद आदमी मशीन बन जाएगा आगे. वैसे अल्लाह ही जानता है कि आगे क्या होगा?

मैंने शायद बाएँ हाथ से उनके खाना खाने का ज़िक्र किया था. एकदम से बाएँ हाथ को आगे करके दिखाती हैं, “सलाख़ पड़ी है इसमें. पैर में फ्रेक्चर हुआ था. एक्सीडेंट हुआ था न!” मैं दीवार पर टंगे फ़ोटो की ओर इंगित करके पूछता हूँ, “ये दाढ़ी में बड़े सरकार की जो फ़ोटो है…” वाक्य पूरा नहीं होने दिया, “आप इन्हें जानते हैं? इनसे मिले हैं क्या? सूफ़ी हैं पूरे. वे भैया जी हैं. ये मेरा भाई है, भावज हैं. ये हमारे बुज़ुर्ग हैं – बड़े सरकार! सूफ़ी! मुझे यह अंदाज़ पसन्द है ज़िन्दगी का!”

बात आगे बढ़ाने के प्रयास में यूँ ही पूछ बैठा, “इस्मत चुगताई तो आपसे बड़ी होंगी? पाकिस्तान आप जब शुरू में गई थीं तब अठारह या उन्नीस साल की थीं केवल? वहाँ रुक न पाने की क्या वजह रही?

हाँ, इस्मत आपा की पैदाइश बारह की है, मेरी सत्ताइस की. अरे नहीं, तब उन्नीस की थी मैं. चार बरस रही पाकिस्तान में. ठीक रही. वहाँ पर हालात – पॉलीटिकल हालात- ठीक नहीं लगे मुझे. ज़्यादातर यू.पी. में रही. हाँ, बम्बई अच्छा लगा था. वे दिन याद आते हैं.

हिन्दी या अन्य भाषाओं के किन रचनाकारों से आप परिचित हैं, किनसे नज़दीकी रही?

धर्मवीर भारती, कमलेश्वर को जानती हूँ. राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, अमृता प्रीतम से मिली हूँ लेकिन उनको ज़्यादा नहीं जानती. क्या नाम है उनका? उनसे करीबी रही है. हाँ कौर, शायद प्रभजोत कौर! नामवर सिंह से परिचित हूँ ख़ूब! कहाँ हैं वो आजकल? अब तो रिटायर हो गए होंगे?

अपने समय के या बाद के किन लोगों के लेखन को आप अच्छा मानती हैं?

बहुत से लोगों ने बहुत अच्छा लिखा है.

सुना था कि आप कभी ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ की एडीटर भी रही थीं? आपने कभी कोई नौकरी भी की है क्या? आप अध्यापन में आ सकती थीं, अध्यापन में आने का क्या कभी मन नहीं हुआ?

‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में फिक्शन एडिटर आठ साल तक रही. उससे पहले ‘इम्प्रिंट’ की मैग्ज़ीन एडिटर और एडिटर रही. नौकरी मैंने की है न! वो क्या है… पब्लिकेशन ऑफ़िसर. नहीं, अध्यापक होने का मन नहीं हुआ. वैसे मैं अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रही हूँ. अमरीका की छह-सात यूनिवर्सिटियों मेँ लेक्चर दिए हैं मैंने.

आपने शुरू में क्या कभी शायरी भी की थी?

शायरी नहीं की. कुछ कविताएँ अँग्रेज़ी में लिखी थीं. छपी भी थीं. उर्दू मेँ नहीं लिखीं. आपने शायरी का कैसे सोचा?

बस यूँ हीं. अक्सर लोग शुरू में कविता लिखते हैं. आपकी अधिकतर किताबों के नाम किसी न किसी शेर पर हैं. इसका कुछ न कुछ ख़ास कारण तो ज़रूर होगा? शायरी और फ़िक्शन में से आप किसे अहमियत देना चाहेंगी?

ज़ाहिर है, उर्दू शायरी में एक शेर या मिसरे में पूरी दुनिया है. एक शेर में पूरी बात आ जाती है. जी, गागर में सागर! शेर – उर्दू शायरी का जौहर! मैं दोनों को अहम मानती हूँ. फ़िक्शन में पूरी बात फैलाकर बतानी पड़ती है. बड़ा फ़र्क़ है. अब यह शेर है – “लाई हयात आए कज़ा ले चली चले/ अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले.” इसके लिए पूरा एक अफ़साना, पूरा एक नॉवेल लिखिए. उर्दू के शेर लाजवाब हैं! इसे देखिए – “अनीस दम का भरोसा नहीं, ठहर जाओ/ चिराग़ लेके कहाँ सामने हवा के चला.” पिक्टोरियल देखिए! तस्वीर बन जाती है. मंज़र देखिए!

सिर्फ़ वजह जानने के लिए पूछ रहा हूँ. सुना है आप इंटरव्यू ही नहीं देतीं. कोई ख़ास कारण या घटना है इसके पीछे क्या?

हाँ, नहीं देती. आप बताइए, मैंने किसी के ख़िलाफ लिखा हो कभी? पर लोग हैं कि अपनी सोच, अपनी ज़हनियत पेश करते रहते हैं. हम क्या कर सकते हैं? हम कैसे गिरें? अरे भई, हम ‘पीस’ से रहना चाहते हैं. पर लोग हैं कि उन्हें कुछ कहना है. उन्हें दिखाना है कि हम उनसे मिलकर आए हैं. सो सनसनीखेज़ बनाकर लिखेंगे. ग़लत लिख देते हैं बहुत बार. अब मैं उन्हें कहाँ-कहाँ ढूँढ़ूँ या मुझे क्या पता कि उन्होंने क्या लिख दिया? वो कहते हैं, ये कहा. वह मैंने कहा नहीं. सनसनीखेज़ चाहिए अख़बारों को भी. अब मैं क्या करूं? मैं इन बातों से, ऐसी बातों से बहुत डरती हूँ.

आप जैसी बोल्ड लेडी डर की बात करे! जो सुनेगा, हैरान होगा!

अरे भाई, लोग अंट-शंट लिखेंगे तो डर तो लगेगा न! मैंने कभी परवाह नहीं की इन चीज़ों की. अपनी पब्लिसिटी की या प्रचार की.

मिले पुरस्कारों का उन्होंने एक बार भी ज़िक्र नहीं किया.मैंने ख़ुद से चर्चा चलाई. बोलीं – “हाँ मिले. पर क्या फ़र्क़ पड़ता है?” “ख़ुशी तो होती है?” “हाँ, ख़ुशी तो ज़रूर होती है.” एक फ़ोटो खींच लेने की इजाज़त माँगी. साफ़ इनकार. घर आने में देर होने की सूचना देने के लिए मैंने जेब से मोबाइल फ़ोन निकाला. एकदम से चौकन्नी होकर बैठ गईं. “अरे भई, ये क्या है? कैमरा है? नहीं! प्लीज़, फ़ोटो नहीं! मैं नहीं चाहती फ़ोटो-वोटो! मुझे पब्लिसिटी नहीं करानी. कभी नहीं कराई.”

इन दिनों अतीत ख़ूब याद आता होगा. क्या कुछ सोचती-याद करती हैं आप इन दिनों?

ज़ाहिर है, आदमी सोचेगा. मैं भी सोचती हूँ. पिछला बहुत कुछ याद आता है. ख़ासतौर से बचपन. लोग याद आते हैं, ज़माना याद आता है. मैं भी सोचती, याद करती हूँ. इसमें अजीब बात क्या है?

अपने किसी ख़ास निर्णय पर क्या कभी अफ़सोस होता है?

नहीं, मुझे कोई अफ़सोस नहीं है किसी निर्णय पर. पर मैं ख़ुश हूँ, ठीक हूँ. ज़ाहिर है, ज़िन्दगी है तो कुछ तकलीफ़ें तो आएँगी ही.

चला तो सुना, “जो लिखें, वह दिखा ज़रूर दीजिएगा.” वही वाक्य, जो फ़ोन पर पहले दिन सुना था.

बाहर आने से पहले, रसोई के सामने खड़े होकर पानी पीते हुए देखा कि मैडम ने गर्दन घुमाकर मुझे देखा था, आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया था. दरवाज़े पर ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ रेहाना ने कहा था. बाहर बादल, बिजली, बरसात, गर्जन-तर्जन और तेज़ हवाओं के बावजूद मौसम ख़ुशगवार था. सामने शिवमन्दिर दिखा तो ख़्याल आया कि मैं जहाँ से आ रहा हूँ वह भी तो एक मन्दिर है. मन्दिर जहाँ कोई बुत नहीं, एक इन्सान सूफ़ियाना अन्दाज़ में जिये जा रहा है. पोदीने जितने क़द वालों के इस युग में ‘बरगद’ या ‘देवदार’ दिख जाना सच में दिव्य और चमत्कारिक तो लगता ही है न!

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