पंडित जसराज | अरसिकों में भी संगीत की ललक जगाने वाले गायक

अंत में मैं अपनी संगीत यात्रा में अपने सहयात्री देश के सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय शास्त्रीय गायक पंडित जसराज का उल्लेख करना चाहता हूं. पंडित जसराज उन नितांत अद्वितीय विरल गायकों में से हैं जिन्होंने शास्त्रीयता के साथ जनचित्त को रंजन करने वाली गायकी को न केवल प्रतिष्ठा दिलाई वरन् उन्होंने ऐसे ‘अरसिकेषु:’ श्रोताओं को भी शास्त्रीय संगीत का श्रोता बना दिया – जो अपने पहले के अनुभवों से शास्त्रीय संगीत से नितांत कटे हुए लोग थे.

पंडित जसराज एक सुदर्शन यष्टि वाले ऐसे गायक के रूप में उभरे जो कठिन रागदारी का संगीत प्रस्तुत करते हुए भी अपनी मुखमुद्रा में सहज ही चित्ताकर्षक मुस्कान बनाए रख सकते थे. वे शिक्षा के नाम पर डिग्रियां बटोरने वाले गायक नहीं थे. कामचलाऊ सामान्य पढ़ाई-लिखाई से निकलकर आए हुए पंडित जसराज देश की कई भाषाएं बड़े कौशल के साथ बोलते थे और उनमें परस्पर संवाद भी कर लेते थे. यही हाल उनका विदेशी भाषाओं के साथ था. उन्होंने अपने गायन का प्रदर्शन अनेक बार विदेशों में भी जमकर किया. उनकी वहां भी लोकप्रियता वैसे ही बनी रही. उनका गायन वहां इतना प्रभावपूर्ण माना गया कि उनकी प्रतिष्ठा में अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में एक ‘चेयर’ का नामकरण ही कर दिया गया है. विदेशों में जो स्कूल हैं, उनमें पंडित जसराज के शिष्यों के द्वारा भारतीय संगीत की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है. उनके शिष्यों की एक अच्छी जमात तैयार हो गई है, जो उनके ‘मेवाती घराने’ की गायकी को विस्तृत फलक देते हैं.

पंडित जसराज से मेरा परिचय सन् 1960 के दशकों में यहीं इलाहाबाद नगर में हुआ था जब वे हमारे ‘म्यूज़िक सर्किल’, ‘रागरंजन’ में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए आए थे. उस समय वे अत्यंत युवा गायक और नवोदित कलाकार के रूप में लोकप्रिय हो रहे थे. उनका गायन उस समय बहुत चमत्कृत न भी करता रहा हो परंतु वह था बड़ा लुभावना. उनकी बंदिशों में एक अलग क़िस्म का आकर्षण था. गायन के बाद पंडित जसराज से मेरी अनौपचारिक भेंट भी हुई और इस बीच में वे दो-चार अन्य कार्यक्रमों के लिए इलाहाबाद अवश्य आते रहे. उनके गायन की प्रसिद्धि और ख्याति उत्तरोत्तर फैलती जा रही थी.

इस बीच ‘अष्टयाम सेवा’ शीर्षक से उनके गाए हुए पदों का एक कैसेट मेरी पत्नी ने बंबई से लाकर मुझे दिया. भक्ति और शास्त्रीय गायन के माध्यम से आत्म निवेदन का जैसा अनन्य अनुभव मुझे उस कैसेट को सुनने के बाद मिला, वह अपने तमाम संगीत सुनने के अनुभव से नितांत भिन्न था. उस कैसेट को मैंने संभवतः पचीसों बार सुना होगा. उन दिनों संगीत के बारे में यदा-कदा मैं हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखा करता था. तभी मैंने दिनमान में एक लेख इस शीर्षक से लिखा – ‘जसराज जब गाते हैं.’ इसमें उनकी गायकी की विशिष्टता और रस के साथ पंडित जसराज की तन्मयता का हवाला देते हुए मैंने कुछ टिप्पणियां की थीं. अगली बार जब पंडित जसराज किसी कार्यक्रम के सिलसिले में बनारस या इलाहाबाद आए तो मेरे उस लेख की चर्चा करते हुए हंसकर बोले कि, ” मेरी पत्नी मधुरा ने आपके उस लेख को पढ़कर कहा है कि आप ही मेरे गाने के सही पारखी हैं और यह कि मजाक में मेरी पत्नी से बोले कि मेरी पत्नी मधुरा केशव जी से मिलने के लिए बेहद उत्साहित हैं. आपको कोई एतराज तो नहीं है?” मेरी पत्नी खूब हंसती रही. बात आई-गई हो गई.

इसी बीच एकाध वर्ष के भीतर ही यूनिवर्सिटी के द्वारा आयोजित एक संगीत सम्मेलन में अपना गायन प्रस्तुत करने के लिए जब वे फिर आए तो श्रोताओं में अनेक विशिष्ट व्यक्तियों के साथ श्रीमती महादेवी वर्मा भी थीं, जो उनके गायन से न केवल विमुग्ध थीं वरन रस में इतनी डूब चुकी थीं कि उनकी आंखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी. मैं उनके पास ही बैठा हुआ था. मुझे स्मरण है कि पंडित जसराज ने उसी अष्टयाम पदावली से ‘चितवन रोके हू न रही’ पूरी रसानुभूति के साथ गाया था. दूसरे दिन महादेवी जी के अनुरोध पर मैं पंडित जसराज को लेकर महादेवी जी के निवास स्थान पर गया. वहां महादेवी जी ने उनका भरपूर सत्कार किया और उन्हें अपने कृति ‘यामा’ की प्रति भेंट की. वह देश के दो शीर्ष कलाकारों की अविस्मरणीय भेंट थी.

फिर भी पंडित जसराज से मेरी अंतरंगता का जो दौर प्रारंभ हुआ वह संगीत की दुनिया से मेरे लिए एक दूसरे स्तर पर घनिष्ठता और आत्मीयता के दरवाज़े खोलने लगा. बंबई मेरा आना-जाना होता ही था. वहां जाकर पंडित जसराज के साथ मिलना, उनसे समकालीन संगीत प्रस्तुतियों पर बातचीत करना और उनकी अनौपचारिक घरेलू गोष्ठियों में संगीत का रसास्वादन करना यह सब सामान्य ढंग से होता रहा. पंडित जसराज का मेरे सांगीतिक अनुभवों को समृद्ध बनाने में जो अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा, वह था बनारस के संकटमोचन मंदिर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले संगीत सम्मेलनों से उनका मेरा आत्मीय परिचय करवाना – भक्ति और संगीत की अन्योन्याश्रित योग की नई दुनिया से साक्षात्कार कराना. वहीं पहली बार मेरी मुलाक़ात श्रीमती मधुरा जसराज से हुई.

मधुरा जी का व्यक्तित्व बड़ा अनूठा और आकर्षक था. वे फ़िल्म जगत के अतिप्रसिद्ध दिग्दर्शक श्री वी. शांताराम की सबसे बड़ी बेटी थीं. बड़ी-बड़ी आंखों वाली सांवले रंग की मधुरा अपने नाम के अनुकूल ही गुणवाली थीं. पंडित जसराज और उनका परिवार संकटमोचन संगीत मेला के उस उत्सव में शामिल हुआ करता था. मेरी पहली भेंट मधुरा जी से वहीं हुई. वे काफी पढ़ी-लिखी महिला थीं – बंबई की संस्कृति से एकदम अलग. उन्होंने रामपुर घराने के उस्तादों से शास्त्रीय संगीत भी सीखा था. संभवतः पंडित जसराज के गायन से अभिभूत होकर ही उन्होंने उनसे विवाह कर लिया था.

मधुरा जी ने बंबई में और फिर देश में इधर-उधर संगीत की कुछ विशिष्ट प्रस्तुतियां भी आयोजित कीं, जिनमें ‘गीत गोविंद’ पर आधारित ऑपेरा और वैष्णव कवियों की रचनाओं पर आधारित अन्य कार्यक्रम भी संपन्न कराए. इससे उनकी परिमार्जित रुचियों का पता तो चलता ही है, पंडित जसराज की सांगीतिक रचनाओं ने उन कार्यक्रमों में चार चांद लगा दिए. मधुरा जी से जब भेंट हुई तब हम लोग बराबर संगीत और काव्य के परस्पर संबंधों पर ही बड़ी देर तक चर्चा करते रहे. उनसे कई प्रसंगों में भेट होती ही रही – कुछ मधुर प्रसंगों में और बाद में एकाध कटु प्रसंगों में भी. अंतरंगता और मोह अक्सर घोषित सिद्धांतों के पालन में समझदार और संकल्पवान व्यक्ति को भी कहीं न कहीं बाधित करते हैं.
अस्तु!

(सुरलोक: ‘बढ़ती उम्र में स्मृतियों के स्वर’ से)

फ़ोटो | prabhatphotos.com

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