सपने में आकर कानड़ा की बंदिश सिखा गया कोईः पंडित जसराज

  • 12:50 pm
  • 28 January 2020

नब्बे के हुए पंडित जसराज. उनके जन्मदिन के मौक़े पर आज उनके लम्बे इंटरव्यू से लिया गया यह अंश मेवाती घराने के अनुशासन के साथ ही उनके व्यक्तित्व और मान्यताओं को समझने में मदद करता है.

आपके व्यक्तित्व का एक विशेष पहलू सबको प्रभावित करता है कि आप एक ओर पुरानी गुरुकुल पद्धति को उजागर कर रहे हैं और साथ ही उसमें आधुनिकता के तत्व को भी संजोए रहे हैं. इसके बारे में आपने कोई विचार किया होगा, आपके वैसे संस्कार होंगे. . .

विचार ज़रूर किया. संस्कार बड़े भाई साहब के दिए हुए हैं. उन संस्कारों पर विचार किया और यह तत्व निकाला कि यदि आप अपने आपको अमरत्व प्रदान करना चाहते हैं तो अपने शिष्यों की ज़रूर देखभाल करिए, उनको संभालिए, उन्हें समझिए और समझाने की कोशिश कीजिए. ये शिष्य आपको अमरत्व दिला देंगे.

क्या शिष्य के चुनाव के बारे में आपका कोई ख़ास दृष्टिकोण होता है, याने वह आपके घराने के लायक़ है या नहीं, इत्यादि के बारे में. . .

पहली बात तो यह कि हम मेवातियों के पास आने से पहले उस साधक के पास संगीत की थोड़ी बहुत समझ का होना ज़रूरी है. दूसरी बात यह है कि उसके मन में शुरू से ही मेवाती घराने के संगीत के लिए प्यार हो. मौक़ापरस्त या ‘ऑपर्चुनिस्ट’ सीखनेवालों पर हमारा भरोसा नहीं. मैं शिष्यों से पैसा नहीं लेता हूं, इसलिए मैँ शिष्यों का चुनाव सोच समझकर ही करता हूं. एक और बात इस संदर्भ में यह है कि उस छात्र या छात्रा के मन में किसी भी प्रकार का अभिमान नहीं रहता कि हमने पैसे दिए हैं तो इतना इतना घंटा सीखने के हम हक़दार हैं. यह तो ‘मार्केटिंग’ जैसी बात हो गई. जब गुरुजी कुछ लेते ही नहीँ, तो शिष्य के मन में पहले से ही समर्पण भाव जाग्रत होता है, जो लौटकर हमारी गायकी के लिए बहुत अनुकूल बैठता है. इस दृष्टि से हम पहले से ही इसका ध्यान रखते हैं कि उसके अंदर समर्पण भाव कितना है. इसलिए हम प्राय: शुरू में शिष्य को 5-6 महीने लटकाए रखते हैं. उसकी लगन को परखते हैं.

शिष्यों से गुरुदक्षिणा न लेने के बारे में आपको कोई ख़ास प्रेरणा मिली है?

संगीत के अंदर तीन गुरु माने गए हैं – ‘देखिया, सीखिया और परखिया.’ यह जो प्रेरणा हमें मिली है वह उस्ताद अल्लाउद्दीन ख़ां साहब को देखकर जागृत हुई. वह प्रेरणादायी घटना सुनाने का मुझे मोह होता है. मुझे इस उस्ताद के दर्शन हुए 1964 में कलकत्ते की एक कान्फ़्रेंस में. वह आख़िरी दिन था. स्टार्टिंग में प्रताप भैया का और मेरा गाना था. मन में उछास भरा धा कि आज उस्ताद अल्लाउद्दीम ख़ां के दर्शन होंगे. आज ऐसे आदमी के दर्शन होंगे, जिसके शिष्य पंडित रविशंकर जी, अली अकबर ख़ां साहब और पन्नालाल हैं. यह शख़्स तो शिष्य से पैसा ही नहीँ लेता है, कहता है कि विद्या दान की चीज़ है, बेचने की नहीं. प्रोग्राम साढ़े आठ-नौ बजे था. लेकिन हम एक घंटा पहले ही चले गए. उस्ताद का आगमन आठ बजे हुआ. छोटा सा क़द, सफ़ेद कपड़े पहने हुए, सफ़ेद लखनवी टोपी. आए. उनके आते ही झट से एक लड़की भागी और उनके पैर पकड़ लिए, प्रणाम किया. वह गलियारा जैसा था, उस्ताद वहीँ बैठ गए और बैठ के उन्होंने ख़ुद उस लड़की के पैर पकड़ लिए! बेचारी लड़की एकदम से सुधबुध खो बैठी कि यह क्या हुआ? उस्ताद ने पूछा ‘मां, तुम गाना-बजाना सीखती हो?’ (बातें बंगाली में हो रही थीं.) लड़की ने हां कहा तो इन्होंने पूछा – ‘किससे सीखती हो ?’ उसने गुरु का नाम बता दिया जो स्वयं उस्ताद के रिश्ते में ही थे. उस्ताद ने कहा, ‘उस सूअर के बच्चे को बुलाओ.’ वह भागा-भागा आया. उस्ताद ने उसे पचास गालियां दीं और डांटकर पूछा, ‘क्या तुझे मालूम नहीं, अल्लाउद्दीन लड़की को मां समझता है? मां कैसे बेटे के पैर छुएगी?’
हम देखते ही रह गए कि यह आदमी क्या है ! मन में ध्यान कैसा है? जितना उन्हें जानता गया, उतना ही उनसे प्यार होता गया और उनके सुपुत्र अली अकबर ख़ां से भी. यह सौभाग्यशाली पुत्र भी क्या तपस्या करके आया होगा… ख़ैर ! लौटकर हम आपके सवाल पर आ जाएं. तो यह वह प्रेरणा थी, जिससे शिष्यों से पैसे लेने के मोह ने मुझे छुआ तक नहीं.

बहुत सी पुरानी बंदिशों में अपभ्रंश हुए हैं, उनमें विकृतियां आ गई हैं, इसके बारे में आपका क्या मंतव्य है?

पं. भातखंडे जी ने बंदिशों के बारे में बुनियादी काम किया है. पं. भातखंडे और पं. विष्णु दिगंबर पलुसकर जी ने जो काम कर रखा है उसमें सुधार करने का दायित्व नई पीढी का है. इसमें उनके प्रति कोई गलत व्यवहार तो होगा नहीं. जो समझदार भाषाविद् व्यक्ति हों वे सामने आएं और इन अपभ्रंशों का शुद्धीकरण करें. हमें लकीर के फकीर नहीं बनना चाहिए. अगर ग़लती से हमारे संगीत में कोई बुराइयां आ गई हों तो उन्हें हटाना हम लोगों का फर्ज़ बनता है.

आपके गायन में विविध प्रकार के राग हम सुनते हैं. सब रागों की तालीम आपको गुरू से मिली या…

नहीं, वह बात नहीं. आदमी जब तक जीवित रहता है तब तक अध्ययन करता ही रहता है. मेरी तालीम जिस प्रकार हुई उसका भी कुछ असर मेरी महफ़िलों के रागों की विविधता पर हुआ है. उन दिनों हम रियासत साणंद में थे. साणंद के महाराजा बापू साहब महाराणा जसवंत सिंह, मेवाती घराने के ही थे. मेरे बड़े भाई साहब पूज्य पं. मणिराम जी और उस्ताद फ़ैयाज़ ख़ां के शागिर्द स्वामी श्रीवल्लभ दास जी, इन तीनों का जमघट हर दसवें-पंद्रहवें दिन बैठता था, रात के नौ बजे से लेकर सुबह सात बजे तक. थोड़ी देर गाना-बजाना होता था. उस वक्त मैं तबला बजाता था. अब जैसे ही गाना बजाना ख़त्म हुआ, बातें शुरू हो जाती थीं. उम्र मेरी कम ही थी. इनकी बातें शुरू होते ही मैँ कहीँ छिप के सोने की कोशिश करता था. क्योंकि वह सब मेरे लिए नीरस वातावरण-सा हो जाता था. मगर हमारे बापू साहब तुरंत पूछते, ‘जसराज कहां है? अरे कौन छे? जसराज ने बोलाओ.’ मैँ उनके पीछे वाले सोफा के पीछे चुपचाप सो जाता था ताकि बुलाते ही हाज़र हो जाऊं. तो बापू साहब मुझे उस चर्चा में बिठाए रखते थे. उस वक्त तो हमारे पल्ले कुछ न पड़ा हो, मगर वो चर्चाएं आज भी हमारे दिमाग में वैसी ही साकार हैं. इसीलिए मैं बहुत सारे रागों को आज भी जानता हूं. उनकी बंदिशें न सही, किंतु राग-रूप दिमाग में बैठ गया है; अब मैं अपने बड़े भाई साहब मणिराम के सामर्थ्य के बारे में क्या बताऊं ! मगर जब वो चर्चा करते थे, तब साणंद बापू भी कहा करते थे – ‘कमाल है बेटा, आप 400 रागों के स्थायी अंतरे को कैसे जानते हैं?’ पं. मणिराम जी मेरे गुरु थे, बड़े भाई थे, मेरे पितासदृश्य थे. इतना विद्वान शायद ही कोई कलाकार हो. उनके गायन में तीन सप्तकों में घूमनेवाली आवाज़ के दर्शन सहज रूप में हो जाते थे. शीघ्रगति तानों की विविधता तथा ताल पर जबर्दस्त हुकूमत उनकी कला की ख़ासियत थी. मेरा यह सौभाग्य रहा कि वहां स्वामी श्रीवल्लभदास के दर्शन भी थोड़ी-बहुत मात्रा में हुए. इन तीन महान् व्यक्तियों से हमें एक तो यह समझ में आया कि गाना-बजाना ख़ाली रियाज़ की चीज नहीं, वह गुरुभक्ति की चीज़ है, गुरु में आस्था की चीज़ है, गुरु के आशीर्वाद की चीज़ है.

बंदिशों की रचना की परंपरा आपके घराने में बहुत पुरानी है या यह उपक्रम इधर के कालखंड में शुरू हुआ?

यह परंपरा हमारे घराने में पुरानी ही है. उस्ताद घग्गे नज़ीर ख़ां साहब से लेकर हमारे यहां बंदिशें बनी हैं. हरेक घराने में बंदिशें बनती हैं, हरेक घराने में कुछ न कुछ बनता है. केवल हमारे घराने में बनता है, ऐसी बात नहीँ. हां, इतना ज़रूर है कि हमारे यहां भगवान् की यह कृपा है कि रचनाएं अच्छे शब्दों की होती हैं.

और आपके गायन का जो ‘स्टाइल’ है, उससे न्याय बरतने वाली बंदिश होनी चाहिए, क्या ऐसा भी कोई मकसद उसमें होता है?

घराने में जब बंदिशें बनती हैँ तो वो गाई ही जाती हैं. नई बंदिशें बनने की एक और भी पृष्ठभूमि है. कानड़े के प्रकार मुझे गाने थे, तो मुझे साणंदबापू के यहां जो गुनचर्चा होती थी, उसका बहुत लाभ हुआ. उस चर्चा के सिलसिले में फलां राग को आगरा घराने में यों गाया जाता है, हमारे घराने में उसका यह ढंग है, ऐसी बातें निकलती थीं. साणंदबापू भी उसमें अपना मंतव्य जोड़ देते. उनके पास तो बहुत-से कलाकार आते थे. जब रागों की चर्चा होती थी, तब वे अलग-अलग प्रकार की बंदिशें सुनाते थे. इस संदर्भ में मुझे एक अद्भुत अनुभव भी मिला. मुझे गुंजी कानड़ा गाना था. इसका चलन तो मालूम था, मगर बंदिश नहीं. किसी ने सपने में मुझे उसकी बंदिश सिखाई. किसने सिखाई, उसकी कोई शक्ल सामने नहीं आई. मुझे अब भी याद है. तानपूरे की झंकार के बीच शब्द निकले थे –
नैया लगा दे, मोरी पार। ख़्वाजा तुम बड़े ग़रीबनवाज़।।
मंझधार भंवर में आन पड़ी है। पार करो सरकार मेरे।।

लयकारी के लिए आपके घराने में जो स्थान है, उसमें लयकारी तो है लेकिन ‘आघात’ नहीं ऐसा दिखाई देता है.

आघात तो हमारे घराने के संगीत में है ही नहीं. उदाहरण के लिए, हम आपको बता दें, जैसे बिहाग की यह बंदिश – कैसे सुख सोवै, नींदरिया. (यहां पडित जी पहली बार सो अक्षर पर आघातवाली सम दिखाते हैं और फिर बिना आघात के सम लेते हैं..) अब देखिए वह भी शास्त्रीय संगीत है और यह भी शास्त्रीय संगीत है. दोनों में ग़लत कोई नहीं. मगर हम दूसरी वाली को एक विशेष भाव के साथ, समर्पण भाव के साथ दरसाते हैं.

क्या इसके पीछे भक्ति-मार्ग का कोई संस्कार है?
इसका पुष्टिमार्गीय कृष्णभक्ति से ताल्लुक है. इस पंथ में मंदिर के अंदर बाल कृष्ण की जो सेवा होती है, उसमें बिहाग गाया जाता है. इसमें समर्पण भाव होता है. संगीत में ख़ाली रागदारी का नहीं, संस्कृति का भी संस्कार चाहिए.

याने आपकी गायकी में पांडित्य प्रदर्शन के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं..

अगर आप सही माने में पंडित हैं तो आपके चेहरे से वह झलक जाएगा. ज़बान से झलकाने की क्या ज़रूरत? विद्या जो है वह विनय से ज्यादा प्रफुल्लित और सुंदर बनती है. अगर आप विद्या को प्रदर्शित करने में पीछे हैं, तो वहां समर्पण भाव नहीं है.

(‘मेवाती घराने की विकास-यात्रा ’ शीर्षक आलेख में शामिल डॉ. श्रीरंग सांगोराम की पंडित जसराज से बातचीत का अंश. ‘मुक्त संगीत-संवाद’ से साभार.)

फ़ोटो | prabhatphotos.com

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