कहानी | भला-सा एक भय

  • 12:29 pm
  • 27 October 2024

ऑटो की आवाज़ तुमने सुन ली थी. इसीलिए मेरे घंटी बजाने से पहले तुम दौड़कर गेट तक आ चुकी थीं. धूप चटख़ नहीं थी, पर तुम्हारा चेहरा एकदम लाल था. ‘आइए’ कहकर तुम्हारे मुस्कराने ने जैसे वहाँ ढेर सारे फूल बखेर दिए थे. गेट खोलने के लिए उठे दाएँ हाथ ने गोलार्द्ध बनाकर क्षण भर को जैसे कोई बन्दनवार टाँगनी चाही थी. यूँ चहक और उत्तेजना को छुपाए तुम वहाँ अकेली मुझे लेने आयी थीं, फिर भी हड़बड़ाहट इशारा कर रही थी कि डर का एक छोटा-सा बच्चा भी अपनी शैतानियों से तब तुम्हें तंग कर रहा था.

घर के अन्दर खड़ा मैं बैठने के लिए कहे जाने की प्रतीक्षा कर रहा था, पर तुमने इत्मीनान से पहले दरवाज़ा बन्द किया, चटख़नी लगाई. तब ज़मीन की ओर देखती हुई, चुप-अबोले, बहुत धीमे चलकर ठीक मेरे सामने आ खड़ी हुई थीं. निगाहों को पैरों की सीढ़ी से आहिस्ता-आहिस्ता, क़दम-ब-क़दम ऊपर चढ़ाया था, जैसे कोई बच्चा गिरने का डर और चढ़ने का जोश लिए सीढ़ी-दर-सीढ़ी ऊपर चढ़ रहा हो. शिखर छूकर लौटी निगाह मेरे चेहरे पर आ थमी थी. पता नहीं, मेरे चेहरे की इबारत को उसने कैसे पढ़ा और उसका क्या अर्थ तुम्हारी बाहों को समझाया? पर अगले पल तुम्हारी बाहों ने बड़ी शाइस्तगी से, पंखुड़ियों की तरह खुलकर मुझे अपने वृत्त में स्थापित कर लिया था. मैंने सीधे, अंकप, अडिग खड़े-खड़े महसूस किया कि तुमने पहले अपने होंठ और फिर अपने कानों को मेरे सीने पर टिका दिया था. होठों की आवाज़ सुनी तो सोचा कि तुमने अपना कोई सन्देश मेरे भीतर प्रेषित किया है और कानों को टिके देखा तो मान लिया कि धड़कन सुनती तुम मेरे भीतर के सच से संवाद कर रही हो. एक हाथ से तुम्हार सिर को दबाता-सा और दूसरे से खुले बिखरे बालों को सहलाता-सम्भालता मैं क्रमशः गहरी लम्बी होती साँसों की आवाज़ को ऊँचाइयाँ चढ़ने जैसी तेज़ी लाते सुन रहा था. तभी अचानक लमहों के ढेर से एक साथ फिसली-सी तुम जैसे नींद से जागी थीं. मुश्किल से याद आयी किसी भूली बात का उल्लास और खनक अपनी आवाज़ में लपेटे तुम बोली थीं—‘अरे, अभी तक आपसे बैठने को भी नहीं कहा! पानी को भी नहीं पूछा!’

ड्राइंग रूम के एक सोफे में धँसा-बैठा मैं, वहाँ की साफ़-सफ़ाई, सज्जा-सम्पन्नता देखने-समझने में व्यस्त हो गया था. दरवाज़े, पर्दे, टी.वी., म्यूज़िक सिस्टम, सी.डी. प्लेयर, फ़ोन, चलता हुआ ए.सी., महकती बेहतरीन गन्ध—बहुत कुछ था, जिसे सराहा जा सकता था.

-‘ऐसे चुप बैठे क्या ढूँढ़ रहे हैं आप? कुछ खो गया है क्या?’ तुम्हारी चुहल के उत्तर में कहना चाहा—‘तुम्हें ढूँढ रहा हूँ. मेरा क्या खोएगा, मैं तो ख़ाली हाथ आया हूँ’, पर शान्त रहा. चाय की ट्रे गोल स्टूल पर रखकर तुम प्लेट्स मेरे सामने लगा रही थीं—फल, ड्राई फ्रूट्स, नमकीन, मिठाइयाँ!

– ‘अरे, यह सब इतना किसलिए? कौन खाएगा इतना? मेरा तो देखकर ही पेट भर गया!’

-‘खाने को कहा किसने है? देखते भी तो रहा जा सकता है!’ मेरे कहने को अनसुना कर, ‘हाँ, हाँ, तो मत खाना न! रखी तो रहने दो इन्हें.’ कहती तुम अपनी धुन में प्लेट्स लगाती रही थीं. इस बीच कई बार तुमने खिसकते साड़ी के पल्लूो को दाएँ हाथ से कन्धे तक पहुँचाया था. लटकती-झूलती लटों को बाएँ हाथ की अँगुलियों ने गर्दन के पीछे धकेला था. और प्रत्येक बार फुर्ती-तुर्शी से दौड़-भागकर तुम्हारी आँखों ने उस सबको देखने से मेरी आँखों को मना किया था.

-‘हाँ, आप चाय शुरू करें! बस, एक मिनिट! मैं एक ग़ज़ल आपको सुनवाना चाहती थी. आपको क्याा, मैं ख़ुद उसे आपकी उपस्थिति में सुनना चाहती थी.’

कैसेट लगाने के बाद चाय का प्याला मुझे थमाया था. तले काजू हथेली पर रखे थे और एक-एक कर मुझे खिलाने लगी थीं. संगीत की स्वर लहरियाँ पक्षी बनकर कमरे का आकाश मापने लगी थीं. हथेली को ख़ाली देख तुम्हारी अँगुलियों ने शर्ट के ऊपर के बटन से खेलना शुरू कर दिया था. तुम्हारा सिर आहिस्ता-आहिस्ता मेरे पेट पर आ टिका था. बन्द आँखों, अबोले दोनों ग़ज़ल सुन रहे थे. ग़ज़ल ख़त्म होते ही तुम झटके से उठकर बैठ गई थीं—‘कैसी लगी ग़ज़ल? नज़रें झुकाए-झुकाए तुमने पूछा था.’

-‘बहुत अच्छी! तुम्हें तो मालूम है यह ग़ज़ल मुझे पसन्द है.’

-‘कब से आपके साथ इसे सुनने का मन था. साथ से अहसास में कितना अन्तर आ जाता हे. दोबारा सुनोगे आख़िर के दो शेर?’

-‘चाहो तो बजा दो. दोबारा क्या कुछ भी पहले जैसा हो सकता है?’

‘अच्छा छोड़ो. एक गीत बाद में सुनेंगे. पहले यह बताओ कि आने में इतनी देर क्योंक की?’

-‘देर? तुम्हें नौ बजे तक आ जाने की ख़ुशी नहीं हुई? पता है, जल्दी जगकर कहीं जाने में मुझे हमेशा दिक्क़त होती है.’

-‘एक दिन मेरे लिए कम सोकर नहीं रह सकते थे? मुझे तो कह दिया था कि एक मिनट भी खाने-पीने के नाम पर बर्बाद न किया जाए. अधिक से अधिक समय साथ गुज़ारने के लालच में, मैं कितने बजे जगी हूँ, आपको क्याु पता?’

-‘इससे जल्दी आने में मुझे दिक्क़त होती न.’

-‘दिक्क़तें तो बस आप लोगों को होती हैं! आपसे आने की कहने के बाद कई बार फ़ोन करते-करते रुकी हूँ मैं. कहने क॑ बाद जैसी घबराहट मुझे अकेले झेलनी पड़ी, उसे आप क्यों दिक्क़त मानेंगे? बर्तन-कपड़े वाली की आज छुट्टी की, आपके आने से पहले काम निपटा लेने के लिए तीन बजे रसोई में पहुँच गई, नहाना-धोना, साफ-सफाई की, इसमें भला क्या दिक्क़त हुई होगी मुझे? बच्चों को सुबह नाश्ता कराया, लंच बॉक्स तैयार किए, पिकनिक पर जाने के लिए स्कूल तक छोड़कर आई, ये कोई दिक्क़त थोड़े ही है? बताइए गर्मी के दिनों में सात बजे बस पकड़ना, दो घंटे बैठे रहना, यहाँ तक आना-दिक्क़तत तो यह कहलाती है. उफ़, कितनी दिक्क़तें झेली हैं आपने आज! मैंने तो धूप की वजह से जल्दी की कहा था?’ मिठास के बावजूद तुम्हारी आवाज़ में चरपराहट थी और चेहरे पर शिकायत को लम्बी तहरीर. मेरा हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारें कन्धों पर जा लेटा था और होंठों ने बिना मुझसे पूछे तुम्हारे माथे की सलवटों को ग़ायब कर दिया था. तुम हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई थीं- ‘अरे, अभी तक आपने घर तो देखा ही नहीं! आइए, आपको घर दिखाएँ.’

मेरे बाएँ हाथ की अंगुलियों को हथेली के बीच दबाए-थामे एक गाइड की तरह मुझे घर के कोने-कोने से परिचित करा रही थीं. घर भर में घूमकर कमरों, दरवाज़ों, अलमारियों को देखता, तुम्हारे पीछे-पीछे चलता मैं जैसे एक छोटा बच्चा हो गया था. ‘आपने इन अलमारियों को देखा? इनका काम, ख़ुलने-बन्द होने का तरीका! ये बाथरूम, ये फव्वारे, ये बाथटब, ये गीज़र, ये रसोई, हर आकार के डिब्बे रखने की जगह, डिब्बों पर चिपकी स्लिप्स, रसोई में ठंडे-गर्म पानी की अलग-अलग व्यवस्था! ये इनका ऑफ़िस, ये कुर्सियाँ, ये मेज़! ये स्टेयर केस, इसकी रेलिंग! और यह देखिए, ये इतनी बड़ी छत! अरे, आपके साथ छत से देखने पर यह कॉलोनी कुछ अलग-सी लग रही है.’ लौटते में एक सीढ़ी पर यकायक तुम रुकी थीं-‘कैसा लगा घर?’

-‘करीने के साथ बना, ढंग से सजा-सम्भला हुआ. बनवाते समय तुम्हारा ख़ास ख़्याल रखा गया है. घर बता रहा है कि तुम धनी और सम्पन्न भी हो.’

-‘यह सुनने को नहीं पूछा मैंने. बताना यह है कि बहुत बार सोचा कि कभी एक बार इस घर में आपके साथ होने को जी सकूँ. ठीक इस सीढ़ी पर आपका हाथ थामे चलते-चलते एक पल को लगा जैसे इस घर के मालिक आप हैं, आप.’ अपनी पहल पर मेरे हाथों ने बढ़कर तुम्हारे सिर को अपने पास किया था. दोनों के मस्तक मिले थे और होठों के द्वारा तुम्हारी नाक के अग्रभाग को छूने के साथ ही एक ध्वनि वहाँ जन्मी थी. तभी फ़ोन की घंटी बजी और तुम तेज़ी से सीढ़ियाँ उतर गई थीं.

सोफ़े पर अधलेटा मैं, फ़ोन पर तुम्हारे बात करते समय के आत्मविश्वास और दर्प को महसूस करते हुए कल के तुम्हारे वाक्यों और बोलने के अन्दाज़ को याद कर रहा था. पति के दो दिन के लिए बाहर जाने की सूचना के साथ बहुत अधिकार और आदेश की भाषा में तुमने कहा था-‘बच्चे भी कल स्कूल की तरफ़ से पिकनिक पर जा रहे हैं. पहली बार इतने लम्बे समय मुझे घर में अकेले रहना पड़ेगा. आप चुप रहकर टाल नहीं जायेंगे, मना नहीं करेंगे. आपको कल आना है! एकदम ज़रूर-ज़रूर!’ वाक्यों में अन्तर्निहित अर्थ और बुलाए जाने का कारण जानने के लिए मैं कई तरह से सोचता रहा. – ‘लो, इसे अब पास में रख लेते हैं. बार-बार का झंझट ख़त्म. इनके एक फ्रेंड का था. पूछ रहे थे कि कब तक लौटेंगे. लेकिन आप क्या सोचने में लग गए इस बीच?’

-‘तुमने इसे अपने पास ही रख लिया. फ़ोन की घंटी बजते ही मुझे लगा था कि जैसे किसी तीसरे ने जबर्दस्ती उपस्थित होकर व्यवधान डालने की कोशिश की है. न पूछना, न पूर्व सूचना देना. आवाज़ बनकर आ धमकना और फिर न जाने किस-किस को बातों के बहाने खींच-पकड़कर लाते रहना!’

-‘ये सब बातें करने के लिए ही मैंने बुलाया था आज?’

-‘फिर क्यात करने को बुलाया था?’

-‘आपने क्या-क्या सोचा इस बीच? आप बताओ पहले. मैं अभी आती हैं पाँच मिनट में. एक चाय पीएँगे साथ-साथ! ठीक है न?’

चाय बनाकर लौटते ही तुमने फिर बताने की ज़िद की थी. अनुमानों की भारी भीड़ थी दिमाग़ में, पर मैं इतना कह पाया-‘बुलाया जब तुमने है, तो मुझे कैसे पता होगा?’

-‘आदमी अगर इतना ही मन समझ ले तो फिर औरतें रोऐंगी किस बात पर. पहले आप चाय खत्म कर लो, तब बताऊँगी मैं.’

प्याले उठाकर रख आने के बाद तुम सोफ़े पर आ बैठी थीं-‘पता है, मैं कितने बजे जगी थी आज? थकी हूँ. नींद भी आ रही है. पहले आप ढंग से बैठिए, हम आपकी गोद में सिर रखकर लेटेंगे. तब बात करेंगे आगे!’

तुम्हारे पैर सोफ़े के बराबर रखी अकेली कुर्सी तक लम्बे फैल गए थे और मेरे हाथों ने तुम्हारे सिर को उठाकर गोद में रख लिया था. सोफ़े से पीठ सटाए बैठा मैं तुम्हारे पर झुकता-सा सुन रहा था-‘बहुत बार टाला है आपने! आज बताओ कि मेरे बुलाने को लेकर आपने क्याद सोचा? क्या कारण ढूँढ़ा?’

-‘बता तो दिया कि नहीं मालूम!’

-‘यह भी कोई बताना हुआ? आप तो अख़बार पढ़ते हैं, ख़बरें देखते-सुनते हैं. अच्छा, यह बताओ कि हमारे शहर में हुए बलात्कार की घटना के बारे में आपको कितनी जानकारी है? आपको पता है कि उस हादसे की शिकार औरत को कैसे चुप रह जाना पड़ा. ख़ुद न होने की बात कहने को राज़ी होना पड़ा. दो पक्षों में बँटकर अख़बारों और टी.वी. चैनलों ने जिस तरह से एक-दूसरे को झूठा, अपराधियों से मिला बताया, वह बेहद फूहड़ और दुखद था. करोड़ों के बल पर धनियों-इज्ज़तदारों के बेटे साफ़ बचाकर निकाल दिए गए. सबको पता है सच का फिर भी झूठ को जिताने में किसी को शर्म नहीं आई. अब तो न्यायाधीश, बड़े-बड़े अधिकारी, मन्त्री, पत्रकार, अध्यापक तक को बलात्कारी कहलाने का ऐसा शौक चर्राया है कि कहने में भी दुख होता है. सरकार चीख़ रही है कि मृत्युदंड ही इसका एक मात्र इलाज है. जैसे हत्या के लिए मृत्युदंड के पहले से मौजूद रहते हत्याओं का होना बन्द हो गया है. जैसे क़ानून बना देने मात्र से आतंकवाद समाप्त हो गया हो. आप हैरान होंगे सुनकर! और औरतों की तो मुझे क्या पता, पर मैं इन दिनों बहुत उद्विग्न रही हूँ, चिड़चिड़ी हो गयी हूँ. पल-पल पुरुष के अनेक बलातों की शिकार कई औरतों के बारे में सोचती रही हूँ. सच बताना चाहती हूँ आपको! कई बार मुझ पर जुनून चढ़ा कि मैं किसी से बलात्कार करूँ. जब-जब यह ख़्याल आया, आपका ध्यान आया. अगर मैं कहूँ कि ऐसे ही जुनून के क्षण में मैंने आपसे यहाँ आने को कहा था, तो आप मुझे क्या कहेंगे? बेशर्म, उद्दंड, पतित या पागल?’

मेरे लिए वह सब सुनना अकल्पनीय था, अप्रत्याशित था. हतप्रभ, सन्नप मैं अवाक था. मेरे कंधे को झकझोरते हुए तुमने ही संज्ञाशून्यता के उस गर्त से मुझे निकाला था-‘अरे आप तो ऐसे डर गये! देह के स्तर का बलात्कार ही तो पाप या अपराध माना जाता होगा. एक-दूसरे के पतित्व और पत्नीत्व का अपहरण किए बिना एक दिन साथ जी लेना भी क्याा वैसा ही पाप या अपराध है? अच्छा, यह सब छोड़ो! मुझे याद की बात बताओ!’

लगे झटके से उबरना बहुत मुश्किल हो रहा था. वह कैसा आमन्त्रण था, कैसा आक्रमण था, कैसा निषेध था-मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. सहज बनने-दिखाने की भरपूर कोशिश मैंने की थी-‘पहले तो हम लोग बता देते थे कि किसने ठीक कितने बजे याद किया है. एक के मन की बात दूसरा सुनाकर चमत्कृत कर दिया करता था. याद स्वयं अपनी संदेशवाहक है. जिसे याद करो, उसे पहले बता आती है. वैसे भी याद कोई पूछकर आती है या उसके आने न आने के समय को क्या हम तय करते हैं?’

-‘बातों में तो पहले भी नहीं जीतने दिया है आपने मुझे! वैसे भी आप थोड़े ही आए हैं, बुलाया तो मैंने है आपको! फिर क्योंन आप कुछ कहेंगे-बताएंगे?’

-‘और कैसे बताऊँ? कटे-फटे, तीर-निशान बनाकर लिखे पृष्ठों को फेयर करने वाला फिर कोई नहीं मिला. फटकार खा-खाकर पढ़ने किताबें मँगाने, चाय पिलाने की ज़िद तुम्हारे बाद किसी ने नहीं की. छोटी-छोटी पर्चियों को काँपती अँगुलियों से मेरी ओर बढ़ाने का मौक़ा तलाशने के लिए फिर कोई इतना परेशान नहीं हुआ. बाद में किसी की आँखों ने धूप-ठंड-बारिश की चिन्ता किए बिना सड़कों पर भटक-भटक कर मुझे ढूँढ़ने का नादान पागलपन नहीं किया. बाद में और किसी की उपस्थिति, किसी के साथ बातचीत इतनी सुखकर कभी नहीं लगी.’

-‘सच?’ तुम्हारी आँखें बन्द थीं-‘और? और बताओ.’

-‘और क््या ?’

-‘आपको पता नहीं है, तब मैं आपसे कितना डरती थी! एक-एक बात के लिए कई-कई दिन तक हिम्मत ज़ुटाती थी. रेखा मेरी बहुत हँसी उड़ाती थी डरने को लेकर-अच्छा तब मैं इतना क्योंे डरती थी आपसे?’

–‘मैं डरावना रहा हूँगा. और क्यान? डर तो मुझे भी बहुत लगता था तब.’

-‘डर? और आपको! उस दिन लाइब्रेरी में किताब निकलवाते समय ‘शुभयात्रा’ कहकर जैसे मुझे चूमा था, कॉपते-घबराते मैं कई दिन तक यही सोचती रही थी कि आप बहुत निडर हैं, दुस्साहसी हैं.’

करवट बदलने के लिए हिलने के साथ ब्लाउज़ में छिपा कर रखा पेन निकाला था. पतली-लम्बी अँगुलियों ने शर्ट के दो बटन खोले थे. हथेली सीने पर ऐसे घुमाई-फिराई थी जैसे कोई बच्चा स्लेलट साफ़ कर रहा हो. ‘आँख बन्द कर लो आप!’ पेन की चलती नोक ने मेरी शिराओं को झंकृत कर मुझे सिहरा दिया था. तुम्हारे बताओ कहने के साथ ही मैंने बोल दिया था—‘दीर्घा. मैं आँख खोलूँ,’ उससे पहले ही तुमने अपना चेहरा छिपाते हुए मेरी गर्दन को बाँहों में बाँध लिया था.

-‘मैंने हरिद्वार में यह सोचा था. तब समय ही नहीं मिला. पहले मैंने जब भी आपसे पूछा, पत्र लिखकर बताने की कहकर आप टालते रहे. मेरा मन है, आज आप यह बताइए कि हरिद्वार से आने के बाद आपने मेरे बारे में क्याख सोचा था? आपको वह सब कैसा लगा था?’

-‘लगा तो अच्छा ही था. पर सच यह है कि तब के बराबर डर मुझे और कभी नहीं लगा.’

-‘डर? क्योंे? किस बात पर?’

-‘उई माँ! याद करके भी फुरफुरी आ रही है. जाने, न जाने की कशमकश! बस मिलने की मुश्किलें! रास्ते में आँधी-तूफान! लगातार बारिश! पानी भरी सड़कें! सीट भर ऊँचाई तक पानी वाले रिक्शे में भीगते-ठिठुरते बताए पते तक पहुँचना! सब डरे-डरे! वह डर था जिसकी वजह से खाना-पानी, चाय की तुम्हारी ज़िद नहीं मानी थी. एक बार कमरे में जाने के बाद आने से पहले तक बाहर नहीं निकला था. आस-पास की आवाज़ें, औरों को दिखाने-बताने के लिए तुम्हारा बाहर आना-जाना, सब कुछ मुझे डरा रहा था. डरी हुई तुम भी थीं. अन्तर इतना था कि तुम्हारा डर तुम्हारे अनुशासन में था. जबकि मुझ पर डर का नियन्त्रण था. याद है, पड़ोसी किराएदार के सुनने के डर से मैंने सोने के लिए नीचे बिस्तर लगवाया था. कमरे में रोशनी नहीं करने दी थी. ठंड में आ जाने की बात कहकर तुमने उस अँधरे में ढूँढ़-ढाँढ़कर मेरे पहनने का इन्तज़ाम किया था. उस अँधेरे सें साड़ी लिपटे, गाउन पहने मेरे रूप की कल्पना कर करके तुम हँसे जा रही थीं. आसपास की आहटों से घबराया मैं तुम्हें आवाज़ें न करने के लिए मनाता रहा था. डर के मारे हम दोनों पूरी रात अनसोये-अनबोले एक चादर में पड़े रहे थे. तब रात भले ही हमें छोटी लगी थी, पर वह चादर कितनी बड़ी लगी थी. सुबह अँधेरे में सीढ़ियों पर तुम्हें सुबकते, बिना पीछे मुड़कर देखे, मैं तब तेज़ी से सड़क पर आ गया था. एक पल को मुझे लगा था जैसे मैं डर के किसी दलदल में से बाहर निकल आया था.’

-‘बस, यही सब? कितना अन्तर है आदमी और औरत के सोचने में! आपके लिए वह डर का दलदल रहा, मेरे लिए आश्वस्ति और सुख का समुद्र. कुछ न खाने, बात न कर पाने, इतने अँधेरे में घर से भेजे देने की सोच-सोचकर वर्षों मैं परेशान होती रही हूँ. मुझे वह रात इतनी याद है कि कभी भूलेगी नहीं. देखने के कोण के अन्तर से दृश्य कितना उलट-पुलट जाता है सच में!’ एक-एक शब्द तुम जैसे तोल-तोल कर बोल रही थीं. कॉल बेल बजी तो तुम हड़बड़ाकर उठीं. उठने में व्यवधान पड़ने का-सा अफसोस था और पर्दा उठाकर बाहर झाँकने में चिन्ता का-सा भाव. ‘बस, अभी एक मिनट में आई! करियर वाला है.’

अकेला होते ही मैं बुलाए जाने के कारण की तलाश में जुट गया था. शादी के सोलह साल बाद मुझे इस तरह बुलाए जाने का आख़िर क्याु कारण हो सकता है? शादी के बाद दस साल तक तो हम लोगों का मिलना ही नहीं हुआ था. तीन साल पहले एक विवाह समारोह में अचानक कुछ घंटों का साथ रहा. पति से परिचय के समय इतना कुछ तुमने बताया था कि मुझे संकोच हुआ था. अपने डरने, पिताजी के विश्वास, अपनी शिक्षा में मेरी भूमिका आदि की ढेर बातें! बाक़ी के समय बातें ही बातें, सवाल ही सवाल. फ़ोन नम्बर का लिया-दिया जाना. फिर कुछ पत्रों का आना-और फिर रात गए देर तक फ़ोन पर बातचीतें. घर-परिवार की, देश-विदेश की, साहित्य की, लेखन की. किसी तरह के अभाव या अतृप्ति का कभी कोई संकेत नहीं. परन्तु पिछले एक वर्ष से मिलने-बात करने की बढ़ती आतुरी ने कई बार शंकित और भयभीत ज़रूर किया है.

दो गिलासों में पेप्सी लिए तुम सामने थीं. खड़े-खड़े एक गिलास में से एक घूँट पेप्सी मुझे पिलाई गई. घूँट भरे गिलास से ख़ुद घूँट भरते हुए दूसरा गिलास मुझे थमा दिया गया. सामने की कुर्सी पर बैठे अपने पैर मेरी गोद तक फैलाकर मेरे पैरों को अपनी गोद में रख लिया गया था. देर तक सहलाने के बाद बाएँ पैर को उठाकर उसकी अँगुलियों पर अपने होंठ टिका दिए गए थे. अपनी बात कहकर होंठ जब लौट रहे थे तो कान के कुंडल के हीरे ने ख़ुशी में हिल-नाचकर कमरे को दमक से रोशन कर दिया था.

बच्चे बहुत ख़ुश होते आपको देखकर! शादी में मिलने के बाद कई बार आपको बुलाने की ज़िद की है. अक्सर पूछते रहते हैं कि मम्मी आपको कैसे डॉट पड़ती थी? आप इतना क्यों डरती थीं? मम्मी की डरने की बात सुनकर विस्मित भी होते हैं, ख़ुश भी!’

-‘विस्मित तो होंगे ही! उन्होंने तो मम्मी से सबको डरते-डाँट खाते देखा है.’

-‘नहीं ऐसी बात नहीं है. आपको मालूम नहीं है, मैं किसी से लड़ती-झगड़ती नहीं हूँ. ग़ुस्से में भी नहीं. ये तो कहते हैं कि कोई दूसरों का ध्यान रखना और सम्मान करना मुझसे सीखे. ये हैरान होते हैं यह देखकर कि इतने संस्कारी परिवार से आने के बावजूद इनके इतने बड़े परिवार में मैंने किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. इनके कहने पर इतनी अच्छी नौकरी छोड़ दी. इनके भाई-भाभियाँ, बहन-बहनोई यहाँ आते हैं तो वे इस घर के अलावा किसी और के यहाँ नहीं रुकते. इनके घर के इन्हें यह कहकर चिढ़ाते हैं कि तुझ जैसे आदमी को ऐसी पत्नी पहले जन्म के किसी पुण्य के कारण मिली है.’

-‘इसमें झूठ भी क्या है? तुम्हें अच्छे संस्कार मिले थे, तुम उच्च शिक्षित, सभ्य हो. घर बता रहा है कि तुमने बहुत बेहतर ढंग से यहाँ एडजस्ट किया है.’

-‘यह मैं क्या सुन रही हूँ? मैंने तो यह मान लिया था कि आप किसी की तारीफ़ कर ही नहीं सकते. आप मुझे अच्छा बता रहे हैं? इतनी अच्छी हूँ मैं कि यदि आपको मिली होती तो आप एडजस्ट कर लेते?’

किसी तीख़ी चीज़ के चुभने जितनी पीड़ा हुई. समझ नहीं आया कि तुम क्या कहना-कहलवाना चाहती हो? ऐसे संकेत तो शादी से पहले भी तुमने कभी नहीं दिए. तुम्हें मेरे घर-परिवार, बाल-बच्चों के बारे में शुरू से सब कुछ पता था. मैं कुछ बोलूँ, उससे पहले ही तुम कह रही थीं-‘स्त्री होकर भी मैं आपसे यह प्रश्न कर पाई, पर पुरुष होकर भी आप ऐसे डर-घबरा गये कि कुछ कहा नहीं गया. यह भी एक अन्तर है. औरत में साहस है तो हर समय है, हर बात पर है. आदमी में कायरता है तो हर समय है, हर बात पर है. बचे-बचे, दूरी से किसी की प्रशंसा कर देने, अच्छा बता देने में ख़तरे की कोई गुंजाइश नहीं होती.’

-‘नहीं, ऐसा तो मेरा मतलब नहीं था. तुम कहाँ तक सोच गयीं. मैं तो सिर्फ़ यह कहना चाहता था कि लड़की में परिस्थितियों के अनुकूल ख़ुद को ढाल लेने की अकूत क्षमता होती है. तुमने कई तरह से स्वयं को एडजस्ट किया है.’

– ‘वाह, खूब! बाध्यता-विवशता को आप स्त्री की क्षमता बता रहे हैं. अगर यह क्षमता है तो पुरुष इससे क्यों डरता-बचता, भागता या चिढ़ता है?’

कॉल बेल के फिर से बजने ने तब मुझे राहत दी थी. झाँककर देखने के बाद चेहरे पर खिंचाव लिए-लिए तुम बाहर गयी थीं. समय का वह हिस्सा बोझिल लगा था. पति और परिवार की प्रश॑ता पाते रहने के प्रयासों ने क्या तुम्हें इतना थका दिया है कि तुम उसे विवशता-बाध्यता मान बैठी हो? बातचीत में बार-बार स्त्री-पुरुष का ज़िक्र लाकर आख़िर तुम क्या कहना चाहती हो? तय किया कि इस विषय पर आगे बात जारी नहीं रहने दूँगा. लिफ़ाफ़े मेज़ पर रखकर तुम कुर्सी पर आ बैठी थीं.-‘दिन भर कुरियर रिसीव करते-करते नाक में दम हो जाता है. सारे दिन घंटी बजती है. अच्छा हुआ दुबे आंटी का बेटा भी अभी आ गया, नहीं तो फिर घंटी बजती! उन्हें तो कोई काम है नहीं. लिखने-पढ़ने, सोचने-समझने से मतलब नहीं. कहीं बम फटे, किसी के साथ बलात्कार हो, उन्हें अपनी मटरगश्ती से काम. आने को पुछवाया था. मैंने कल की कहकर जैसे-तैसे टाला है.’

-‘एक दिन मैं इतने लिफ़ाफ़े! मैं सोचता था कि फ़ोन ने लोगों को पत्र लिखवाना ही भुलवा दिया है!’

-‘ये लिफ़ाफ़े घरेलू डाक नहीं है. इन्होंने एक बिजनिस भी शुरू किया हुआ है न! उसी की डाक आती रहती है. फ़ोन ने जिन्हें भुलवा दिया होगा, उन्हें भुलवा दिया होगा. हमें यह भी याद है कि एक-एक पत्र देने के बदले हमें कितना कुछ सुनना पड़ता था.’

-‘उसी का फल है कि तब से एक अच्छा पत्र पढ़ने को नहीं मिला. न वह भाव, न संवेदना, न भाषा, न अभिव्यक्ति, न वह चाह, न आवेश, न आतुरी.’

-‘अब बस भी करिए.’ घड़ी देखकर बोलते-बोलते तुम उठ खड़ी हुई थीं-‘हद है, बातों में खाना खिलाना ही भूल गयी.’

–‘खाना? पर खाएगा कौन? आया हूँ तब से खा ही तो रहा हूँ.’

–‘आप खाएँगे! और कौन? पता है, अँधेरे में जगकर हमने पर्तदार पराँठे तैयार किए, मेंथी-आलू की भुजिया बनाई, गोभी बनाई और बैंगन का भुरता भी.’

–‘कमाल है, तुम मेरी रुचियों-पसन्दों को अब तक नहीं भूली हो.’

–‘आप तो जैसे सब कुछ भूल गए हो! यह काली पैण्ट और पीली शर्ट पहनते समय मेरा ध्यान थोड़े ही आया होगा. माना आप तारीफ़ करने में कृपण हैं, पर यह आसमानी साड़ी, ये खुले बाल देखकर आपको अपनी कोई पसंद याद नहीं आई?’

-‘आई थी, आई थी, ख़ूब आई थी?’-कहकर मैंने तुम्हें बगल में बिठाकर खाने की ज़िद न करने के लिए मनाया था. तुम्हें स्टूल पर पैर रखने का संकेत किया था. पैरों के फैलते ही मेरा सिर अपने आप तुम्हारी गोद में जा लेटा था. टकटकी लगाए मैं तुम्हारे चेहरे को देख रहा था और तुम अंगुलियों को मेरे बालों में टहलाती-नचाती मेरी आँखों में कुछ ढूँढ़े जा रही थीं. यकायक मेरी आँखों को हथेली से ढंककर तुम बोलने लगी थी-‘माना तुम्हारे पास तराज़ू है, बाट हैं. इस तरह मगर जिस्म के हिस्से न तोलिये.’ दोबारा सुनाने के आग्रह को अनसुना करती जैसे तुम वहाँ थीं ही नहीं-पहले एक और सुनिए-‘पतझड़ की साजिशों की तमन्नाग के बावजूद. हम वो दरख़्त हैं जो हमेशा हरे रहे.’ ‘अच्छा ये सब छोड़ो. मुझे आज जानना है कि आप मेरी शादी में क्यों नहीं आए? बाद में मिलने की कोई कोशिश भी नहीं. बहुत बुरा माना था सबने!’

–‘तुम्हें मालूम तो था उस रिश्तेदार लड़की की हरकतों-धमकियों के बारे में! मुझे डर था कि मेरे आने पर कहीं तुम्हारा कोई अहित न हो जाये. बाद में तुम्हारे बारे में उस लड़की से जो सुना, उससे मन में तुम्हारे लिए इज्जत पैदा हुई.’

-‘मेरा क्या अहित हो जाता? एक बात बताऊँ, इन्होंने मुझ पर कभी शक नहीं किया. शुरू में मुझे कई चीज़ें रास नहीं आईं. घर पर कभी-कभी दोस्तों के साथ ड्रिंक्स लेते थे. एक बार कहा, घर पर बन्द कर दिया. अब तो नीकरी करने को भी प्रेरित करते हैं. दिल्ली जब भी जाते हैं, मेरे पढ़ने के लिए पुस्तकें ज़रूर लाते हैं. घूमने का, कपड़ों का, फंक्शंस अरेंज करने का बेहद शौक़ है. मेरे भाई-भतीजों के व्यवहार पर शुरू में बहुत चिढ़ते थे, अब कुछ नहीं कहते. उन लोगों ने कभी सम्मान से इन्हें आने के लिए नहीं कहा. ये बातें आज तक किसी से नहीं कहीं, माँ से भी नहीं. पिताजी के बाद मायके का एक बड़ा हिस्सा जैसे गुम हो गया है. आपको तो मालूम है. पिताजी के बीन कर लाए फूलों में मुझे एक दाँत मिल गया था. तब से वह मेरे पास है. वह पास है तो मुझे लगता है कि मेरा कभी कोई अहित नहीं हो सकता.‘

मैं इन्तज़ार करता रह़ा कि ख़ामोशी अब टूटे, कि अब टूटे. गर्दन पर एक बूँद की टप्प की आवाज़ सुनकर मैं चौंका. तुम थीं कि झटपट सब कुछ को मेरे देखे जाने से बचाती कह रही थीं-‘आपके लिए सूप भी तो बनाया था मैंने. पहले सूप लाती हूँ, फिर एक गाना सुनवाऊँगी आपको.’ सोफ़े पर साथ-साथ बैठे हम लोग गीत सुन रहे थे. सुनते ही मेरे मुँह से निकला था-‘अरे वाह, यह गीत मुझे बहुत पसन्द है. पर यह भावना है किसकी?’

‘दोनों की’ कहकर तुमने मुझे चुप रहकर ध्यान से सुनने का इशारा किया था…’जो रात हमने गुज़ारी रोकर वो रात तुमने गुज़ारी होती…जहाँ से तुम मोड़ मुड़ गये थे… सिहरते, गुदगुदी-सी महसूस करते मैं बता रहा था-‘इन पंक्तियों का पहले कभी ऐसा असर महसूस नहीं हुआ.’

-‘इसके लिए आप हमें और हमारे साथ को धन्यवाद दीजिए.’

चेहरे को तुम्हारे वक्ष पर टिकाए, अपने सिर पर तुम्हारे हाथों का दबाव महसूस करते हुए मैं फुसफुसा रहा था-‘आभार! बहुत-बहुत धन्यवाद!’ तुम्हारे झटके से उठकर खड़ा होने ने मुझे झकझोर सा दिया था-‘क्यों? क्या हुआ?’

-‘कुछ नहीं! मुझे लगा जैसे किसी ने आवाज़ दी थी. अच्छा, अब खाना खा लिया जाय.’

खाने पर बातें, बातें ही बातें. खाने के बाद थोड़ी देर को हम बेडरूम में थे. एक अलमारी खोलकर तुमने कुछ पुस्तकें दिखाई थीं, कुछ अपने लिखे पृष्ठ पढ़वाए थे. जैसे ही मैंने वहाँ रखी एक डायरी को उठाया, तुमने उसे पढ़ने से मुझे रोकना चाहा था. मेरी ज़िद पर तुम चाय बनाने का बहाना कर घबराई वहाँ से हट गई थीं. डायरी के कई पृष्ठों को मैं इस बीच पलट गया था. हर पृष्ठ पर लिखे जाने की तारीख़ के साथ स्थान और समय का ज़िक्र भी किया गया था…’शादी से पहले भी यही लगता रहा और अब पति व बच्चों के बाद भी लगता है कि सब कुछ सबके साथ नहीं बँटता. देह में क्या सब-सबके अलग-अलग खाँचे और खंड है? यह बच्चों का, यह पति का, यह माँ का, यह बहन का. एक खंड सिर्फ़ हमारा अपना भी होता है, जो सिर्फ़ प्रेम के, एकान्त के क्षणों में खुलता है. एकान्त से, अपने इस केन्द्र से संवाद का, इसे बाँटने का मन सबका होता है. पुरुष का भी, स्त्री का भी. यह बाँटना हमारा सुख होता है. यह संवाद हमारी ऊर्जा होता है. ऑक्सीज़न की तरह, भोजन की तरह ….बिना कुछ तोड़े-फोड़े, बिना किसी का अहित किए, पाप-पुण्य के झमेले से दूर रहकर, नियम-संयम की भूलभुलइयों में बिना भटके, तपन, थकान मिटाने के लिए संवादित हो लेने की चाहत अनुचित, ग़लत आख़िर क्योंऊ हैं? कैसे है? मन तो औरत के पास भी होता है. शादी के बाद मन को नहीं, शायद देह को मारने में लगी रहती है औरत. देह से फिर भी उसका पीछा नहीं छूटता. उसके सारे धर्म-अधर्म देह के कारण हैं. देह अगर उसका बन्धन है तो मुक्ति भी हो सकती है. देह की, वासना की प्यास ही तो औरत का समग्र नहीं है. देह की प्यास अगर पति के पनघट पर पूरी हो जाय तब भी मन की उन प्यासों का वह क्याम करे, जो वहाँ शान्त न हो पाए? नारी के दलन और शोषण का यह कैसा माया जाल है? उसकी देह की एक अलग वर्ण-व्यवस्था है. नारी-देह हर समय, हर जगह न घृण्य है, न अस्पृश्य! देह के एक हिस्से को छोड़कर अन्य का स्पर्श, मर्दन, घर्षण प्रायः न तो दण्ड दिलाने योग्य अपराध माना जाता है ओर न औरत के प्रति एक बड़ा अनाचार. उसकी देह के एक बहुत छोटे हिस्से-जिसके चलते वह ओरत है, जननी है, से उसकी निष्ठा, मर्यादा, शुचिता, कौमार्य जैसी कितनी बातें जोड़ दी गई हैं. यह हिस्सा यदि अस्पर्शित, अप्रहारित, शून्य रहा आए, तो न उसका कुछ लुटा, न वह भ्रष्ट. न अपवित्र, न बर्बाद. यदि यह हिस्सा उसका सर्वस्व है तो उसे बचाकर अगर वह किसी से कुछ बाँट ले, सम्बोधित हो ले, तो हाय-तौबा क्यों? मन की प्यास के लिए किसी चाह की छाया में थोड़ा सा विश्राम कर लेना फिर अपराध कैसे? जब देह की विकलांगता या मृत्यु को मानसिक स्वास्थ्य के शेष रहते ज़िन्दगी माना जा सकता है, तो औरत को देह के आधार पर मृतक जैसा जीवन जीने को बाध्य कैसे किया जा सकता है?’… ‘ये पेड़. पेड़ से गिरते पत्ते. गर्मी में आते-जाते बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े. सम्बन्धों का फूल जब कुम्हलाता है तो कितना कुछ चुभता, बिखरता, गिरता है! डाल से टूटे पत्ते की तरह धीरे-धीरे सब सूखता चला जाता है. सूखते जाने से बचाने के लिए बादल कितना ज़रूरी है! लगता है इसीलिए हम सबको अपने-अपने बादल की तलाश रहती है, प्रतीक्षा रहती है’ …. ‘आज डाल पर बैठी एक गलगलिया देखी तो लगा कि वह एकदम चंचल भी है, भोली भी है. न हिंसक, न आक्रामक. ऊपर से काली, पर पंख फैलाते ही छिपी सफ़ेदी उजागर. ध्यान आया, काला तो कौआ भी होता है. वह कितना ही उड़े, पंख फड़फड़ाए, सफ़ेदी कहीं नहीं दिखती. है ही नहीं तो दिखे कहाँ से? हँसी आई यह सोचकर कि गलगलिया औरत है और कौआ पुरुष. उसकी छिपी सफ़ेदी मुझे औरत के दुख जैसी लगी, उसका अपना एकान्त लगी. मेरा मन हुआ कि मैं उड़ूँ और अपनी सफ़ेदी को किसी अन्य की आँखों से देखूँ. अब उड़ूँ भी तो कब और किसके सामने? मन जानता है कि किसके सामने उड़ना है. और जिसके सामन वह उड़ पाता है, वह अन्य नहीं होता.’

दबे पाँव कमरे में आकर तुमने चाय मेज़ पर रख दी थी. डायरी मेरे हाथ से छीनकर अलमारी में रख दी थी. चाय दोनों ने चुप रहकर समाप्त की थी. थोड़ी देर बाद एक दूसरे को निर्देश दिए जाने लगे थे -‘हम ऑटो तक जाएँगे, आपको मना नहीं करना है! आपको एक बार जल्दी बच्चों के सामने आना है. आपको फ़ोन करना है. बताई गई पुस्तकें आप पढ़ने को भेजेगें.’… ‘तुम्हें ऑटो तक नहीं आना है. गेट तक भी नहीं जाना है. छत से भी नहीं देखना है. कमरे से ही विदा करना है. बाद में परेशान नहीं होना है…’

कुछ देर और, कुछ देर और करते पाँच बज गए थे. मैंने देर होने पर बस मिलने में दिक्क़त होने की बात कही थी. तुम्हारा चांचल्य उदास होने लगा था. बोझिल क़दमों से बाहर की ओर आते तुम धीमे-धीमे बोलती चल रहीं थीं-‘मेरी किसी बात पर बाद में हँसना मत! आदेशों-इच्छाओं पर उम्र भर नाचते रहने वालों के मन में भी किसी से अपने मन के मुताबिक कराने की इच्छा होती है. किसी के चेहरे के, आँखों के दर्पण में अपने दुखों-सुखों का प्रतिबिम्ब देखना बड़ा रोमांचक होता है. औरत से माँगते वक्ते हमेशा चूक हो जाती है. चार दिन माँगे थे. दो बुलाने की आरज़ू में ख़त्म और दो आपके आने के इन्तज़ार में. आठ माँगे होते तो दो में मिल लिए होते और दो आपके जाने के बाद के लिए रख लेते.

जाने से ज़रा पहले दोनों दरवाज़े के पास एक दूसरे के सामने खड़े थे. चटख़नी खोलते-खोलते तुमने चेहरा ऊपर कर कुछ कहना चाहा था. पलकों के भीगेपन के बावजूद पुतलियाँ मछलियों की तरह तैरती-दौड़ती साफ़ दिखाई दे रही थीं. घना होता सन्नािटा वजनी लगने लगा था.

-‘आप एक मिनट चुप, सीधे खड़े हो जाइए.’ तुम्हारी बाहों ने मुझे अपने में बाँध लिया था और होंठों ने आगे बढ़कर मेरे ढेर सारे शब्दों को पी लिया था.

-‘अब कभी मत पूछना कि मैंने आपको क्योंा बुलाया! आपको आना बुरा तो नहीं लगा था?’

-‘बुरा? बिल्कुल नहीं. अच्छा, एकदम अद्भुत लगा. कई बार आज मैं एक छोटा बच्चा हो गया था. छोटे होने के सुख ने बहुत हल्का किया है, ताज़ा किया है.’

-‘यही तो. मुझे भी कई बार लगा कि मैं छोटी-सी बच्ची हो गयी हूँ. गोद में लेटी थी तब लगा जैसे एक बादल ने तपन और थकान का बहुत-सा हिस्सा पी लिया है. पर ताज्जुब है कि आज एक डर भी हर समय मेरे पास, मेरे साथ रहा है.’

-‘डर? डरा तो मैं भी रहा. तुम्हारी व्यवस्थाओं व सावधानियों के बावजूद लगता रहा कि जैसे कोई और भी घर में उपस्थित है.’

–‘डर आपको भी लगा? क्या उस अँधेरी बारिश वाली रात जैसा?’

-‘नहीं, वैसा तो नहीं. पर… .’

तुम खिलखिला कर हँस पड़ी थीं-‘अच्छा, मैं बताऊँ कि हम लोग क्योंा डरे थे? दोनों के भीतर के श्रेष्ठ ने मिलकर एक डर को जन्म दे दिया था. हम दोनों छोटे होना चाहते थे, पर छोटे दिखना नहीं चाहते थे. डर की उपस्थिति के कारण हम दोनों बड़े बने रहे.’

तुम्हारी दोनों भौंहों को मैंने अगूँठों से सहलाया था. ‘अब चल रहा हूँ’- कहकर मैं आगे बढ़ने को हुआ था. होठों का कँपना तुम रोक नहीं पा रही थीं- ‘उस बारिश वाली रात आपने मुझसे शादी के बाद एक दिन साथ जीने का वायदा कराया था. उस रात के विश्वास के बल पर एक अधिकार जी लेने की ज़िद में कुछ ग़लत हुआ हो तो क्षमा कर देना.’

समझ नहीं आया क्या कहूँ? जुड़े हाथों और डबडबाई आँखों के साथ तुम्हें वहाँ खड़ा छोड़कर चलते समय मुझे केवल एक शब्द सुनाई दिया था-‘प्रणाम’. तब मुझे लगा था कि वह प्रणाम सिर्फ़ मेरे लिए नहीं था. उस डर के लिए था जिसकी उपस्थिति ने छोटा दिख सकना सम्भव नहीं होने दिया था. उस भले-से भय को मैं सारे रास्ते दुलार करता आया था.

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