लॉक डाउन डायरी | पता नाहीं का होए वाला बा…

  • 12:37 pm
  • 16 April 2020

बक्शीपुर का नाम आते ही हर गोरखपुरिए के ज़ेहन में एक जैसी ही तस्वीर उभरती है. ठसम-ठस्स गाड़ियां, हार्न की चिल्ल-पों और रिक्शो के एक-दूसरे से लड़ते, उलझते और घसीट-घसीट कर किसी तरह आगे बढ़ते पहिए. दोनों पटरियों पर किताब-कॉपी की दुकानें और उनके सामने खड़े ढेर सारे स्टूडेंट. तीन दशक पहले तक शहर की कई सड़कों पर इक्का-दुक्का मोटर और प्रिया-चेतक स्कूटर, बड़ी मुश्किल से दिखते थे. तब बच्चों को साइकिल चलाना आ गया, इसकी तस्दीक अभिभावक हो या मित्र-रिश्तेदार कुछ इस तरह के सवाल पूछ ही करते थे- बक्शीपुर में साइकिल चला लोगे? यानी बक्शीपुर में साइकिल चला डाली तो यह मान लिया जाता था कि अब आप साइकिल-स्कूटर संभाल लोगे.

शहर के बीच से पुराना गोरखपुर को जोड़ने वाली इस सड़क पर छाया सन्नाटा यूं ही अतीत में पहुंचा देता है. कुछ दिन पहले एक अख़बार में इसी सड़क पर एक पुरानी गैस एजेंसी के दफ़्तर के बाहर सिलिंडर के लिए लगी लंबी लाइन की तस्वीर छपी थी. हाथ में डंडा लिए पुलिस सोशल डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ा रही थी, जिससे उपभोक्ताओं की लाइन खिंचकर पांच सौ मीटर तक पहुंच गई थी. पर चंद रोज में ही यह भीड़ भी गायब. दफ़्तर के बाहर हॉकर बतिया रहे थे. बतिया क्या रहे थे, दरअसल वह डर साझा कर रहे थे, जिसके बीच हर निम्न और मध्यमवर्गीय कुनबे वाला आदमी इस दिनों जी रहा है. मुंह से गमछा हटाकर, चेहरा पोंछते एक ने कहा – गोदाम में सिलिंडर भरल बा और लोग घरे से भगा देत हैं. केहु के पास अब खाली सिलिंडर नाहीं त केहू के पास पइसा नाही. बीस दिन पहिले यहीं सड़की पर मार होत रहल सिलिंडर खातिर.

झुंड से दूसरा बोलने को शुरू ही हुआ कि मुंशी ‌जी की एंट्री ने माहौल बदल दिया. मुंशी जी यानी इस एजेंसी के सालों पुराने मुलाजिम. कहा जाता है कि जब से एजेंसी बनी है, तभी से लेन-देन का हिसाब वही रखते हैं. शायद लॉक डाउन के बीच कई दिन बाद आए थे. तभी तो हर कोई हाल-चाल पूछ रहा था. मालिक भी आगे बढ़े और पूछ बैठे कि कहीं पुलिस ने तो नहीं रोका साथ ही थोड़ी चुटकी लेते हुए यह भी कि घर से निकलने की ज़रूरत ही क्या थी. सुना है बुज़ुर्ग़ पहले कोरोना की गिरफ्त में आ रहे. तपाक से दोनो सवालो के बदले मुंशी जी का एक जवाब – पुलिस और कोरोना मेरा क्या कर पाएंगे? इसके बाद जो अगला सवाल उनकी तरफ बढ़ा, उनके चेहरे की रंगत ही बदल गई. और फिर जवाब सुनकर वहां मौजूद इक्का-दुक्का ग्राहक और हॉकरों की भी – नाहीं बाबू, 60 साल से ऊपर हमार उमर चलत बा. बाबूजी के समय भी कबो नाहीं सुनल गइल कि हवाई जहाज, ट्रेन, बस सब रूक गइल होई. पता नाहीं का होए वाला बा… बात आई गई हो गई. मालिक चैंबर में, ग्राहक घर को चल दिए पर हॉकरों के चेहरे पर चिंता की लकीरें थोड़ी और मोटी हो गईं. कोई गमछे से आंसू छिपाने की जुगत में मशगूल हो गया तो कोई पक्के फर्श को पैर के नाखूनों से कुरेदने की कोशिश में.

कहीं मुट्ठी भर अनाज में हिस्सेदार न बन जाएं

लॉकडाउन में काम-काज क्या ठप हुआ, मुफलिसी ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि जहां घर जाने के लिए कुछ लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल या ठेले से निकल लिए वहीं मजदूरों का एक ऐसा भी तबका है जो बोझ न बढ़े इसलिए घर नहीं जाना चाहता. बाहर से फंसे लोगों की सूची तैयार करने के सिलसिले में सरकारी मुलाजिमों की टीम बिछिया के शिवानंद श्रीवास्तव के हाता पहुंची तो बिहार के सीवान जिले के 25 से अधिक मजदूर वहां मिले. मैली-कुचैली धोती, आंखों के नीचे काले गहरे गड्ढे और थोड़ी ही दूरी पर कच्चे चूल्हों में दो-तीन दिनों की ठंडी पड़ी राख.
कर्मचारियों ने नाम पूछना शुरू किया तो कई हाथ जोड़ खड़े हो गए. विनती करने लगे – ‘साहब घर पर बहुत ग़रीबी है किसी तरह पत्नी-बच्चे गुज़र कर रहे हैं. हम भी घर चले गए तो जो थोड़ा बहुत अनाज बचा है, उसमें हिस्सेदारी बढ़ जाएगी. हम तो यही ठीक हैं. एक टाइम भी खाना मिल जाए तो बहुत है. मेहनत नहीं करनी है तो भूख भी कम ही लग रही.’ सर्वे के लिए गए कर्मचारियों को अपना गला रूंधा हुआ लगा, जब उन्होंने कम्युनिटी किचन में अपने साहब को फोन किया. पूरी दास्तान दोहराई और तब तक बैठे रहे जब तक कि भोजन-राशन आ नहीं गया. यह सब उन मजदूरों को सौंपने के बाद अपना फोन नंबर दिया और कुछ पैसे भी. चलते हुए दिलासा दे गए कि खाने की दिक्कत नहीं होने पाएगी.

…और नदारद हो गए फ़ेसबुकिए मददगार

शहर से कुशीनगर होते हुए बिहार को जोड़ने वाली सड़क पर कुसम्ही के पास विनोद वन यानी गोरखपुर के मिनी जू में एक जनाब मुट्ठी भर चना लेकर हिरणों की भूख मिटाने के लिए पूरे परिवार के साथ पहुंच गए. संक्रमण के खतरे से बेपरवाह पत्नी, चार-पांच साल की बेटी-बेटा सब. मोबाइल के कैमरे की ज़द में पूरा कुनबा आ जाता तो हिरण बेचारे को खाना मिलता. घर पहुंचने के पहले ही फ़ेसबुक-इंस्टाग्राम पर स्टेटस चस्पा. मुस्कुराते हुए पूरा कुनबा और खाने में मशगूल हिरण. अगले दिन सुबह उठकर लाइक्स और कमेंट जांचते कि बज्रपात हो गया जब पता चला कि फ़ेसबुक वाली फ़ोटो तो अख़बार में छप गई…और हेडलाइन यह कि मदद तो बस बहाना था, पिकनिक जो मनाना था.

ख़बर पर शायद कलेक्टर की नज़र भी पड़ गई. फिर क्या था, अगले दिन उनके हवाले से फिर एक ख़बर छपी कि बिना प्रशासन की इज़ाज़त के कोई मदद नहीं बांट सकेगा. और साथ ही यह भी कि मदद बांटते किसी ने सेल्फ़ी या फ़ोटो खिंचाई तो ख़ैर नहीं, उन पर कार्रवाई होगी. असर यह हुआ कि दो-चार पूड़ी के पैकेट लेकर फ़ोटो खिंचाने के लिए निकलने वाले फ़ेसबुकिए मददगार ही ग़ायब हो गए.

सारे जतन ग़रीबों के हिस्से, अमीरों की अब भी मौज

कुछ दिन पहले शहर की ही एक मोहतरमा ने ट्वीटर पर सीएम को टैग करते हुए दो पोस्ट डालीं. पहली – माननीय मुख्यमंत्री जी किराने की दुकान वाले खुलेआम पान मसाला, तंबाकू और गुटखा बेच रहे. इनकी बिक्री पर रोक लगाइए. दूसरी पोस्ट – माननीय मुख्यमंत्री जी आपके अपने शहर गोरखपुर में ब्लैक में अल्कोहल बिक रहा है. गोदाम में पड़ा स्टॉक अपने परिचितों के ज़रिये घर-घर भेजा जा रहा. लॉकडाउन का उल्लंघन हो रहा.
यह तो बानगी है. कई जगहों से शिकायतें आने लगी कि अंग्रेजी के भाव में देशी बिक रही. हजार वाली विलायती बॉटली ढाई हजार में बिक रही. शिकायतें बढ़ने लगी तो गर्दन फंसती देख आबकरी की टीम ने अब ज़िले की सभी दुकानें सील करनी शुरू कर दी. उधर जब प्रधानमंत्री ने 20 अप्रैल तक और सख्ती के साथ लॉक डाउन का पालन कराने के लिए सभी राज्यों की सरकारों से कहा तो बुधवार को देर शाम शहर के कंट्रोल रूम मे एक ऐसी शिकायत आई कि अफसरों के कान खड़े हो गए. बेतियाहाता के एक अपार्टमेंट में एक व्यापारी अपने बच्चे की जन्मदिन पार्टी मना रहे थे. शहर के तमाम बड़े और रसूख वाले भी पहुंचे थे. न संक्रमण का डर न सोशल डिस्टेंसिंग की फ़िक्र. वायरल हुई फ़ोटो में सब एक-दूसरे से सटकर खाने का लुत्फ़ उठाते दिख रहे थे.

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