पंजाब | सरकारी वादे और मजदूरों के इरादे

  • 4:10 pm
  • 27 May 2020

महामारी के ख़ौफ़ के दो महीने बीत चुके हैं. इस बीच एक और महामारी ख़ामोशी पूरे देश में फैली – बेरोज़गारी और उससे उपजी बदहाली! कामगार इसके सबसे बड़े शिकार हैं, ख़ासतौर पर घर से दूर जाकर दूसरे सूबों में रोज़ी कमाने वाले मजदूरों का तबका. यों महामारी के चलते दुनिया भर में फैक्ट्रियों पर ताले पड़ गए, काम-धंधे एक झटके से ठप हो गए और करोड़ों मजदूर एकाएक बेरोजगारों की क़तार में आ खड़े हुए. गाढ़े वक़्त के लिए जो कुछ बचा के रखा था, रफ़्ता-रफ़्ता वह भी काम आ गया. मजदूर अब ‘मजबूर’ हो गए. किसी को कुछ नहीं सूझ रहा है, सिवाय इसके कि जहां से आए हैं, वहीं लौट जाएं. यह कोई योजना या कोई उम्मीद नहीं है, भावना के वशीभूत है, मजबूरीवश है.

अर्से से पंजाब में खेती और उद्योग काफी हद तक बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के मजदूरों पर निर्भर रहा है. बेशुमार मजदूर यहीं बस गए थे. उनकी तरह ही लाखों की तादाद उन लोगों की भी है, जो हर बार सीज़न में आकर लौट जाते रहे हैं. स्थिति यह है कि जालंधर, लुधियाना, अमृतसर, बठिंडा, पटियाला और पठानकोट से चली स्पेशल ट्रेनों से पांच लाख के क़रीब मजदूर लौट चुके हैं. और इससे ज्यादा अभी लौटने के इंतज़ार में हैं. हर शहर के रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों के बाहर उनकी लंबी कतारें देखकर लौटने वालों के हाल का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

लॉकडाउन में बंद हुए पंजाब के तमाम उद्योग सरकारी हिदायतों के बाद खुल चुके हैं. धान की रोपाई का समय भी आ ही गया है. ऐसे में उद्योगों के मालिक और किसान तो नहीं चाहते कि मजदूर अब वापस लौटें, सूबे की सरकार भी नहीं चाहती. सरकार ने भी मजदूरों से अपील की है कि वे अब नहीं जाएं क्योंकि हालात बदल रहे हैं और रोज़गार की उन्हें दिक्कत नहीं होगी. यों कुछ मजदूर रुकने को राज़ी हो गए हैं मगर ज्यादातर ने अपना इरादा नहीं बदला है. और इसकी वजह लॉकडाउन के दिनों के उनके तजुर्बे के सिवाय और कुछ नहीं. बीतों दिनों में उन्होंने जो कुछ झेला और जख़्म खाकर जो सबक पाए, वे उनके इरादा बदलने में आड़े आ रहे हैं. उन्होंने महसूस किया है कि मुसीबत के दिनों में आसरे की कौन कहे, उनके साथ इंसानों जैसा सलूक नहीं हुआ, उल्टा बेइंतहा ज्यादतियां झेलनी पड़ीं. उनका कसूर यह था कि वे भूख से आज़िज़ आकर वे खाना और काम मांग रहे थे. उनकी मांग और प्रदर्शनों ने उन्हें मुसलसल बेगाना बना दिया. इस बीच प्रताड़ना का जो सिलसिला उनके साथ चला, उसने वापसी के लिए उन्हें मानसिक तौर पर पुख़्ता कर दिया.

सरकार ने तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया था. कोई सुध नहीं ली. सुनने वालों ने ही उनकी कोई अपील-दलील नहीं सुनी. जिन कमरों में सालों से वे रह रहे थे, उनका महीना भर का किराया नहीं दे पाए तो रातों-रात बेदख़ल कर दिए गए. सड़क पर आ गए. बहुतेरों का तो सामान भी जब्त कर लिया गया. पुलिस से मदद की कौन कहे, मार मिली.
अब भी चौतरफ़ा अनिश्चितता के हालात हैं. ऐसे में रुकने के लिए दिए जा रहे भरोसे का कोई असर दिखाई नहीं देता. रुकने का फ़ैसला केवल उन्होंने ही किया है, जिनके पास यही ‘अख़िरी रास्ता’ है.

सम्बंधित

पंजाब | उफ़ नहीं की उजड़ गए, लोग सचमुच ग़रीब हैं

अमरीक की डायरी | सच्चाई से आंख चुराती सरकारें


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.