मेरे अनुभव के हिस्से के से. रा. यात्री

  • 9:14 pm
  • 17 November 2023

(वरिष्ठ साहित्यकार से.रा.यात्री का शुक्रवार की सुबह निधन हो गया. 91 वर्ष के यात्री जी लंबे समय से बीमार चल रहे थे. तक़रीबन 18 कहानी संग्रह, 33 उपन्यास, दो व्यंग्य संग्रह और संस्मरण लिखकर उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया. उनको श्रद्धांजलिस्वरूप हम कथाकार प्रेम कुमार का 2011 में लिखा हुआ संस्मरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं)

से.रा.यात्री जी के बारे में लिखने की कोशिश की इस कशमकश के बीच आज फिर मैं संबंधों के उगने-बनने, पलने-पनपने, बढ़ने-फलने या झर-भर जाने के कारणों-रहस्यों के बारे में कुछ भी न जान-समझ सकने को लेकर हैरान-परेशान हो रहा हूँ. कितना अजीब है कि आदमी कुछ भी दावे के साथ नहीं कह-बता सकता अपने किसी रिश्ते या संबंध के बारे में. किसी से कब कैसे हम जुड़ेंगे, कब तक जुड़े रह पाएंगे, जुड़ने के बाद की दिशा या परिणति क्या होगी या कि उस जुड़ने-टूटने के चलते किसको कितना सुख-दुख जीना-पीना पड़ेगा- सब कुछ जीवन की अन्य अनेक गुत्थियों की तरह ही अबूझ, अनसुलझा, रहस्यमय और रोमांचक है. किसी संबंध के बनने-बिगड़ने की प्रकृति या प्रक्रिया से अधिक जटिल-दुर्बोध और उलझावपूर्ण होता है अपने किसी संबंध को जान-समझ पाना या फिर उसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कह पाना. यदि संबंधों को जान-समझ लेना एकदम आसान होता तो एक ही व्यक्ति के साथ अलग-अलग रूप में संबंध जी रहे लोगों के अनुभव, निष्कर्ष नितांत भिन्न या विरोधी-से न होते. सचमुच अत्यंत संवेदनशील, चुनौतीपूर्ण और चमत्कारिक-सा लगता है यह जान-सोचकर कि किसी के लंबे साथ और सामीप्य के बावजूद किसी को हमेशा न समझ-समझा सकने का मलाल रहता है, जबकि बहुत लोग हैं जो किसी के बिना ख़ास नैकट्य और साथ के उसके बारे में काफ़ी कुछ जान-समझ लेने के भाव से भरे होते हैं तथा अपने द्वारा समझे-जाने गए के बारे में कुछ कहने-बताने के समय पर्याप्त निःशंक, दृढ़ और आश्वस्त होते हैं.

अपने हिस्से में आए से.रा.यात्री के बारे में लिखने के इन क्षणों में बहुत याद करने पर भी सब कुछ साफ़-साफ़ विस्तार से याद नहीं आ रहा. पर हाँ, उतने पहले के उस दिन के उस हिस्से का बहुत कुछ ऐसा भी है, जो इतने इन वर्षों में सदैव मेरे साथ बना रहा है. ग़ाज़ियाबाद, कविनगर, से.रा.यात्री या अपनी एक कहानी ‘छलावा’ का कहीं किसी प्रसंग में ज़रा नाम आते ही उतने पहले के उस दिन की कई तस्वीरों-स्मृतियों की रौशनी अचानक उजली और चमकीली हो उठती हैं, अनेक बातों-धारणाओं में जैसे जान पड़ जाती है- उनकी ताक़त बढ़ जाती है. उस दिन की सीमा में प्रवेश करने के साथ कविनगर या से.रा.यात्री जी से जुड़ा काफ़ी कुछ तो याद आता ही है पर उसके साथ यह ध्यान आना भी नहीं भूलता कि उस दिन की उस यात्रा की वापसी ने अगले ही दिन मुझ से ‘छलावा’ शीर्षक से एक कहानी लिखवा दी थी.

1976 की जुलाई के पहले हफ़्ते का कोई एक दिन था वह. दिन क्या- एक शाम थी वह. दिन का दोपहर वाला हिस्सा तो पाल भसीन के साथ बिताया था हम लोगों ने. हम लोग-यानी कि ‘शिलापंख’ के संपादक डॉ.राजेंद्र गढ़वालिया और मैं- उस पत्रिका का एक उपसंपादक. पहले से तय था कि पत्रिका के सहायक संपादक डॉ.रामस्वरूप शर्मा जी कालकाजी से आकर ग़ाज़ियाबाद बस स्टैंड से हमारे साथ हो लेंगे. तब ग़ाज़ियाबाद और उसका कविनगर आज जैसा नहीं था. तब के उस शहर की आबादी से बहुत दूर एकदम खुले में नया-नया बन-बस रहा था कविनगर. बस स्टैंड से इतनी दूर कि रिक्शेवाला तो रिक्शेवाला उसमें बैठी सवारियाँ भी बांय कर जाएं. धुंधला चली स्मृतियों को यदि फ़िलहाल बिसरा भी दें तो यह ढंग से याद है कि रिक्शे में बैठकर बहसों-बातों में व्यस्त, तरह-तरह के अनुमानों-अंदेशों में उलझते-झूलते हम लोग कविनगर जाते समय अच्छी-सी उस उत्तेजना के साथ एक डरा-डरा-सा संकोच भाव भी जी रहे थे. ‘शिलापंख’ के से.रा.यात्री विशेषांक की तैयार सामग्री हमारे साथ थी और हम तेज़ी से उत्कर्ष की ओर बढ़ रहे कथाकार से.रा.यात्री से मिलने उनके आवास पर जा रहे थे. याद है कि वे वहाँ जिस कमरे में बैठे थे, उस तक पहुँचने के लिए हमें एक ज़ीने की सीढ़ियों से होकर जाना पड़ा था. पहली सीढ़ी पर पैर रखते ही सिगरेट की जिस तीखी-ताक़तवर गंध से उस दिन मुलाक़ात हुई थी, नाक उसे आज तक नहीं भूली है. कमरे में से उड़ते-दौड़ते-से भाग-भागकर बाहर आ रहे उन ख़ूब दमदार-मस्त-निश्चिंत ठहाकों की आवाज़ को भी कान आज तक विस्मृत नहीं कर पाए हैं. यह भी अच्छी तरह याद है कि उनके उस साफ़-अच्छे, खुले-से कमरे में सफ़ेदी का साम्राज्य था. पर्दे, फ़र्श पर बिछी चादर, मसनद के कवर- और हाँ, शायद यात्री जी कुर्ते का भी-सबका-ज़्यादातर रंग सफ़ेद था.

एक यह स्मृति भी अभी धुंधली नहीं हुई है कि अपने कमरे में बैठे जिस एक व्यक्ति से यात्री जी ने काफ़ी अपनत्व के साथ दोस्त बता-बताकर हमारा परिचय कराया था- उनक नाम श्रीराम विद्यार्थी था. बी.बी.सी. के कार्यक्रमों के बहद प्रशंसक रहे हम तीनों पर तब अच्छा-ख़ासा रौब यह पड़ा था कि बी.बी.सी. से संबद्ध एक व्यक्ति से यात्री जी के इतने निकट संबंध हैं- दोनों इतने अच्छे दोस्त हैं. इतनी लंबी इस अवधि में और बहुत कुछ के विस्मृत हो जाने के बाद भी जो आज तक अभूला है, बार-बार और अक्सर लगभग उसी तरह उसी रूप में याद आता रहता है, वह है- से.रा.यात्री से मिलकर लौटने के समय का कमरे के बाहर का उस रात का अंधेरा, उस गहरे-घने अंधेरे में से चलकर ज़ीने तक आना, ज़ीने की वह अंधेरे से भिड़ती उजली दूधिया रौशनी. रौशनी से बाहर क़दम रखते ही फिर वैसा ही वो अंधेरा, हमारे इंतज़ार में पेड़ के नीचे अकेला खड़ा हमारा वह रिक्शेवाला- उसकी काया, उसका वेश और उसका मुट्ठी बनाकर उंगलियों के बीच फंसी उस बीड़ी को सूंते जाना. वह कच्ची-पक्की सड़क…ज़रा आगे बढ़ते ही उस ठंडी-तेज़ हवा का और असह्य होते जाना. काले-काले बादलों का घिरते आना, गरजना, बिजली का तड़कना- और फिर धुंआधार बरसने लगना. बहुत देर होती रही वह धारासार बारिश…और उसमें भी सड़क पर के उस घुटनों-घुटनों पानी में रिक्शा आगे बढ़ाने के लिए हांफता-कांपता दम लगाता दुबला-पतला, बीमार-बदहाल-सा दिखता वह रिक्शे वाला…और रिक्शे में सटे बैठे कांपते-झुंझलाते रिक्शे वाले को न जाने क्या-क्या बोलते-सुनाते हम तीनों…

उसके बाद बरसों-बरस तक यात्री जी से न कैसी ही कोई बातचीत, न पत्र-व्यवहार, न मुलाक़ात. दस-पंद्रह साल पहले की बात होगी. प्रदीप माण्डव जी-जो गाँव के नाते से मेरे ‘चचा’ लगते हैं, तथा जिन्हें सबको यह बताना-जताना ज़रूरी और अच्छा लगता है कि मैं उनका भतीजा हूँ- से पता चला कि उनकी पुत्री का विवाह यात्री जी के पुत्र के साथ हुआ है. जानकर अच्छा लगा. कुछ तो था ही कि उसके बाद मन में अपने आप बिना कुछ कहे-बताए यात्री जी के साथ और अधिक अपनत्व और आदर का एक रिश्ता जीना शुरू कर दिया. दिलचस्प बात यह कि तब तक मेरे पास यात्री जी से 1976 में हुई उस भेंट का या उनके किसी स्वभाव-व्यवहार विशेष का कहने-बताने योग्य कोई निशान-प्रभाव शेष-सुरक्षित नहीं था. …लेकिन इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में दुनिया-जहान में जहाँ जो हुआ वो अपनी जगह, पर ‘शऊर की दहलीज़’ के प्रकाशित होने के बाद मेरे साथ बहुत कुछ ऐसा घटा-हुआ, जिसने मुझे ख़ुशी भी दी, हैरान भी किया, साहित्य और साहित्यकारों के बारे में यूँ ही कह-बोल दिए जाने वाली अनेक बातों के प्रति सजग-सावधान रहने की सीख भी दी.

कविनगर की उस मुलाक़ात के दिन के अलावा ‘एक और दिन’ है, जिसकी याद इस तरह मेरे साथ-पास है कि उसे मैं भुलाना नहीं चाहता या कहूँ कि भुलाना भी चाहूँ तो भुला नहीं सकता. पहली उस भेंट के बाद उस दिन तक फिर दोबारा मिलना नहीं हुआ था. तब तक क्या आज भी उनसे दोबारा मिलने के नाम पर केवल एक बार देख भर लेने जैसा मिलना और औपचारिक से दो-चार वाक्यों का आदान-प्रदान आज ही हुआ है. कुछ बरस पहले के एक दिन एक कार्यक्रम में अलीगढ़ आना हुआ था. प्रदीप माण्डव जी के साथ उसी दिन उन्हें जल्दी लौट भी जाना था. वे कार्यक्रम में देर तक बोले थे, धाराप्रवाह लगातार बोले थे, गहराई-समझदारी के साथ बहुत कुछ साफ़-साफ़ कह सकने वाले एक बहुपठित, अभ्यस्त-अनुभवी वक्ता की तरह बोले थे. उस संक्षिप्त-सी मुलाक़ात ने भी यात्री जी को समझने-जानने का एक मौक़ा मुझे दिया था….लेकिन उस तरह नहीं, जितना और जिस तरह का दशकों बाद के एक साल पहले के उस ‘एक और दिन’ ने दिया था या कि फिर उसके बाद मिले उनके कुछ पत्रों और फ़ोन पर हुई ख़ूब-ख़ूब लंबी बातचीतों ने दिया था. तो पहले उस ‘एक और दिन’ की बात. उस दिन अप्रत्याशित ढंग से जैसा जो मेरे साथ हुआ वैसा प्रायः नहीं होता है- और आज के इस दौर में तो वैसा होना लगभग अकल्पनीय ही है. आज तो आलम यह है कि किसी पत्रिका के एक ही अंक में छपे दो रचनाकारों को पता नहीं होता कि उसमें वह दूसरा भी छपा है. अगर बीसियों साल से लिख रहा कोई वयोवृद्ध रचनाकार हाल-फ़िलहाल लिखना शुरू करने वाले किसी लेखक को फ़ोन करे, अपन नाम बताए तो वह युवतर रचनाकार अपरिचित होने का नाटक करते-करते ऐसे बात करता है जैसे उसमें प्रेमचंद, मुक्तिबोध आदि की आत्माएं एक साथ आ बसी हों और उस जैसा लिखने वाला दूसरा कभी कोई हुआ ही न हो.

तो हाँ, उस ‘एक और दिन’ हुआ यह कि मैं अपने विभाग में बैठा कुछ पढ़ रहा था कि मोबाइल बजा. उठाया. आवाज़ से पहचानने की कोशिश में था कि सुनाई दिया- ‘हाँ, प्रेम कुमार, मैं से.रा.यात्री बोल रहा हूँ…’ सुनकर चौंकना था, चौंका. फिर ‘शऊर की दहलीज़’ की छपी एक समीक्षा की बातें. फिर अपनी ओर से उस को पढ़ने, उस पर लिखने की व्यक्त की गई वह इच्छा और किताब को जल्दी भिजवा देने का आदेश… सब कुछ इतना ऐसा कि जिसे सुनकर अपने आप में लौटने में मुझे समय लगा. उसके बाद फ़ोन पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हुआ. बातें-अपनी, अपनों की, ग़ैरों की. सीधी-साफ़ दो टूक बातें. जीवन और साहित्य के मूल्यों-सरोकारों से जुड़ी एक सुविज्ञ-वरिष्ठ साहित्यकार की बातें. उनके जो थोड़े कुछ पत्र मेरे पास आए हैं, उनमें ज़्यादातर पोस्टकार्ड हैं. पोस्टकार्ड की लंबाई में लिखी इबारत. ऊपर बाईं और कोड नंबर सहित लैंडलाइन फ़ोन और मोबाइल नंबर. दाहिनी ओर सबसे ऊपर से.रा.यात्री, फिर आवास का पता और सबसे नीचे तारीख़. पूरा भरा पोस्टकार्ड. इधर-उधर की ख़ाली जगह का भी यथावश्यक उपयोग. पत्र अगर लिफ़ाफ़े में आया है तो इतना यह सब अंदर भी लिखा होगा और ऊपर लिफ़ाफे के बाईं तरफ़ भी. आज के इस दौर में जब लोग पत्र लिखना लगभग भूल या छोड़ चुके हैं, तब यात्री जी जितनी उम्र और हैसियत के लेखक द्वारा पत्र लिखकर संपर्क-संवाद बनाने या बनाए रखने का यह उत्साह-भाव और अभ्यास उन्हें अन्य रचनाकारों से भिन्न-विशिष्ट तो साबित करता ही है.

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उनके ऑपरेशन के बाद फ़ोन पर की बातों का सिलसिला पहले की तरह लगातार जारी नहीं रहा. यदा-कदा मैं ही फ़ोन करके राज़ी-ख़ुशी पूछ लिया करता था. अक्तूबर के शुरू की एक शाम अचानक बैठे-बैठे उनका ध्यान आया. वह भी इस शिद्दत से कि उनका फ़ोन नंबर ढूंढने-मिलाने में जुट गया. लैंडलाइन वाले नंबर पर कोशिश की, वह शायद अब चालू नहीं था, मोबाईल नम्बर उठा नहीं. दूसरे दिन भी जब नहीं उठा तो उनके पत्रकार पुत्र का नंबर मिलाया. उन्होंने घर पर पहुंच कर बात कराने का आश्वासन दिया लेकिन यात्री जी से सीधे-सीधे बात तीन-चार दिन तक नहीं हुई.

उस शाम, हाँ, 10 अक्तूबर 2023 की शाम जब उनके पुत्र का नंबर मिलाया तो उधर से नारी स्वर सुनाई दिया. यात्री जी से बात करने की इच्छा जताई. उनके स्वास्थ्य के ठीक न होने की बात कह कर क़रीब-क़रीब न होने ही वाली थी कि मैंने पूछ लिया कि आप कौन बोल रही हैं. मालूम हुआ कि वे उनकी पौत्री थीं. मैंने ख़ुद के बारे में बताते हुए इस बार थोड़ा स्नेह और आग्रह के साथ कहा तो सुनाई दिया-“ठीक है एक मिनट, मैं फ़ोन उन्हें देती हूं पर वो साफ़ बोल नहीं पाएंगे.” मैंने कहा- “मेरे दो-तीन वाक्य आप उन तक पहुँचा देना.” उन्होंने मेरा नाम बताते हुए फ़ोन यात्री जी को थमाया लेकिन उनकी आवाज़ उनके कहे को मेरे पास तक नहीं पहुंचा पाई. मैंने उनकी नातिन से फिर आग्रह किया- “बेटे फ़ोन का स्पीकर ऑन करके उनके कान के बिल्कुल करीब ले आओ बस मैं उन्हें प्रणाम कर लेना चाहता हूं.” उधर से कहा गया हां-हां बोलिए! मैंने नाम और अलीगढ़ की याद दिला कर प्रणाम निवेदित किया, शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की, इस बार उधर की आवाज़ मंद-मंद ही सही, सुनाई भी दी, समझ भी आई- “बहुत बहुत धन्यवाद प्रेम कुमार!” पौत्री ने उनका कहा दोहराया- “उन्हें अच्छा लगा है अंकल, सुन कर ओंठ थोड़ा मुस्कुराए हैं, ख़ुश हो कर धन्यवाद कह रहे हैं और हां, लेटे हाथ के पंजे को उठाने की कोशिश कर रहे हैं शायद आशीर्वाद देने के लिए.”

पौत्री को कई बार धन्यवाद दिया, इतना यह सब कहने और सुनने के बाद देह भर में अजीब-सी एक ख़ुशी भर गई थी. देर तक बैठे-बैठे दिल की बढ़ चली उस धड़कन को सुनने के साथ मन के सिहरने के एहसास को चुपचाप जीता-पीता रहा था.

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(से.रा.यात्री के कुछ चुनींदा ख़त पढ़ने के लिए बस कल तक इंतज़ार कर लीजिए.)


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