सैम बहादुर | जांबाज़ फ़ौजी को ख़ूबसूरत श्रद्धांजलि

  • 11:59 am
  • 2 December 2023

अपने कारनामों से अपनी ज़िंदगी में ही किंवदंती बन गए फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की शख़्सियत को पूरी तरह पर्दे पर उतार पाना यों मुमकिन नहीं लगता, फिर भी मेघना गुलज़ार की फ़िल्म ‘सैमबहादुर’ उनकी बहादुरी, फ़ौजी चतुराई और बेबाक किरदार को ख़ूबसूरत श्रद्धांजलि है. और इस ख़ूबसूरती का बड़ा श्रेय विक्की कौशल को जाता है, जिन्होंने पर्दे पर सैम का किरदार बड़े असरदार तरीक़े से निभाया है.

निर्देशक के रूप में मेघना गुलज़ार 2002 में आई फ़िल्म ‘फ़िलहाल’ से बहुत आगे निकल आई हैं, ‘तलवार’ और ‘राज़ी’ जैसी फ़िल्मों के मुक़ाबले यह बायोपिक कहीं बड़ी चुनौती थी. फ़िल्म इस चुनौती की गवाही है, टुकड़ों-टुकड़ों में यह प्रभावशाली लगती भी है मगर कहीं-कहीं इस टुकड़ों को जोड़ने में झोल और हड़बड़ी भी ज़ाहिर होती है.

फ़िल्म 1933 से शुरू होती है, जब समूचा यूरोप आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, दूसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ा था, भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत की मुख़ालफ़त उफान पर थी. 1936 में जापान के बर्मा पर हमला कर देने के बाद ब्रिटिश इंडिया की तरफ़ से सैम और उनकी पलटन को मोर्चे पर भेजा गया. सैम जंग लड़ते हैं, चार दिन से भूखे सैनिकों को लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं, पांच गोलियां खाते हैं और जंग जीतकर लौटते हैं. ग़ुलाम भारत से आज़ाद भारत के फ़िल्म के इस सफ़र में याह्या ख़ान, अंदरूनी साज़िशें, कश्मीर का मसला, भारत-चीन युद्ध, बुज़ुर्ग पंडित नेहरू और युवा इंदिरा गाँधी और बांग्लादेश शामिल हैं.

फ़िल्म का पहला हिस्सा चौंकाने वाला है, रोमांचक और दिलचस्प भी. नीरज कबी (पंडित नेहरू) और गोविन्द नामदेव (सरदार पटेल) के बीच के संवाद भी ख़ूब रोचक हैं. इस पहले हिस्से में कहानी स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ती है, जंग के दृश्य रोमांच बढ़ाते हैं, और अंदरूनी साज़िशें कहानी को नाटकीय बनने से बचाए रखती हैं. जे.आई.पटेल का कैमरा सचमुच टाइम मशीन की तरह काम करता लगता है.

‘सैमबहादुर’ फ़िल्म के पहले हिस्से की चुस्ती और निरंतरता बाद के हिस्से में मद्धिम पड़ने लगती है. इंटरवल के बाद कुछ दृश्य ऐसे हैं, जो ग़ैर ज़रूरी मालूम पड़ते हैं, कहन में सुस्ती का असर दिखाई देता है. सम्पादन की कमज़ोरी उजागर होती है, एक्शन रचने में काफ़ी समय लगता है. हालांकि कलाकार मुतासिर करते हैं. सैम की पत्नी के रूप में सान्या मल्होत्रा एक फ़ौजी की बीवी होने के खौफ़ (जिसे नहीं मालूम कि उसके पति जंग से वापस लौटेंगे या नहीं) और फ़ख़्र के जज़्बात ख़ूब संप्रेषित करती हैं. एक संवाद है, जो उनकी मनःस्थिति का बयान है, “जंग फ़ौजियों को बहुत क़िस्से देती है मगर उनकी बीवियों को सिर्फ़ डर”.

याह्या ख़ान के किरदार में मोहम्मद ज़ीशान अयूब हैं, इंदिरा गाँधी की भूमिका में फ़ातिमा सना शेख़ हैं. फ़ातिमा फ़िल्म के बाद वाले हिस्से में कमज़ोर लेखन की शिकार भी होती हैं. विक्की कौशल के लिए सचमुच यह भूमिका करना चुनौतीपूर्ण रहा होगा, लोगों की उम्मीदों का दबाव भी ज़ाहिर है कि सबसे ज़्यादा उन पर ही रहा होगा. लोगों की उम्मीदों को उन्होंने पर्दे पर जिस तरह जिया है, वह देखने वालों के लिए इसे एक ख़ास फ़िल्म तो बना ही देता है.


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.