कैटलॉग | नेति-नेति चित्रकार सिद्धार्थ की प्रदर्शनी

  • 5:10 pm
  • 27 April 2020

स्कूल में मास्टर चमकीले रंगों की शीशियां दिखाता, लगता था ऐसा कि हमारी मिट्टियों के रंग कुछ ख़ास नहीं हैं. बाहर के संसार की चमक-दमक देखकर मन तो करेगा ही उसे जानने को.

रंग-बिरंगी शीशियां, बने बनाये रंग, न घोटने का झंझट, न इंतज़ार, न सबूरी. बस कुछ-कुछ बनाते मिटाते चले जाओ जो भी बन पाये. उन रंगों को देखकर कुछ गुदगुदी तो होती ही है अंदर, कुछ पहचान भी बनती है बहुत सी वस्तुओं से, बहुत से आकारों से जो इंसान द्वारा निर्मित हैं, जैसे दवाइयों के रंग, प्लास्टिक की गेंदे, कारें, खिलौने इत्यादि. उनका बदलाव रूप इंसान और प्रकृति पर भी दिखाई देता है चित्रों में, जो कि बाज़ार की प्रकृति को ही प्रतिबिम्बित करेगा, स्वंय को नहीं. फिर उन रंगों से आत्मीयता प्रयास से बनानी पड़ती है, सहज बनती नहीं.

कम्प्यूटर स्क्रीन पर रंग की बहुत सारी अलग-अलग प्लेट्स हैंऔर वह सारी की सारी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी से संबंधित हैं और सिन्थेटिक रंग टोन्स हैं. रंग शेड और टोन्स की भरमार है, गिनती से बाहर. वैज्ञानिक अरेंजमेंट सुंदर और बहुत उपयोगी है, प्रयोग का तरीका भी बहुत आसान और झट से इस्तेमाल करने के लिए सामने डिस्प्ले पर रहता है.

ऐसा ही मैंने भी किया है, अपने स्टुडियो में. सारे रंग की प्लेट्स और टूल्स सामने डिस्प्ले पर रखता हूं और चित्रपट ऐन बीच में. रंगों के बहुत सारे शेड और उनके एक से दस तक के टोन्स भी ख़ुद ही बना लिये हैं. मैंने उन रंगों का चुनाव किया है जो सदियों-सदियों से हमारे पूर्वज प्रयोग करके उनकी सार्थकता हमें दिखा चुके हैं. रंग को घोटने व परिपक्व करने के लिए जिन-जिन गोंदों का प्रयोग पारंपरिक रूप से किया जाता रहा है, मैंने लगभग वैसा ही किया है. चीनी सूमी, जापानी पाउडर, तिब्बतन थांग्का, पहाड़ी, राजस्थानी व मुगल-चित्र शैलियों के विश्लेषण करके मैंने अपने चित्रों में उनका प्रयोग कर लिया है.

सांगानेर के परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही पेपर बनाने की कला-विधि जानने वाले अस्सी वर्षीय बुजुर्ग़ सण से और स्थानीय गोंदों से निर्मित करके, वसली तैयार करते हैं जिस पर मैं चित्र बनाता हूं. सदियों-सदियों से मुगल और राजस्थानी चित्रकार इस काग़ज़ का प्रयोग करते रहे हैं और इसे समय के साथ परख लिया गया है.
लामा गुरू रंग घोट रहा है.
खरल में बट्टी घुमाते साथ-साथ जाप करता है – ‘ओम मणि पद्मेहम्’
पानी मिलाता है – ‘ओम मणि पद्मेहम्’
गोंद मिलाता है – ‘ओम मणि पद्मेहम्’
रंग को प्रेम से उंगलियों में लेकर चमकीली आंखों से देखता है – ‘ओम मणि पद्मेहम्’
पट पर रेखा खींचता है, रंग भरता है – ‘ओम मणि पद्मेहम्’

ऐसे ही बैठे होंगे भूत के मनीषी किसी नदी के किनारे, बूंद-बूंद रंग बनाया होगा पत्थरों को घोंटकर, फल-फूल, पत्तियों का रस निकालकर अपना स्वयं उतार दिया होगा रंगों की तहों में. उनके पल-पल से उपजा होगा एक-एक रंग. फिर सम्हाल लिया होगा भोज-पत्रों पर, लिख दिया होगा इंसान की मनीषा का भूत, भविष्य और वर्तमान. प्रकृति की महान ध्वनि, गूंज, वनस्पति, जल-थल-आकाश समा गये होंगे उन चित्रों में.

मैं जब भी किसी चित्रकार की कल्पना करता हूं बस ऐसे ही कर पाता हूं…बेशक आज के वैज्ञानिक युग में भी. रचना तो ऐसे ही होगी प्रकृति को स्वयं में से गुज़रने का मौक़ा देना होगा, बेशक कम्प्यूटर के सामने बैठे होवो.

दूसरों का अनुभव कहीं पहुंचा देने वाला नहीं, दूसरे दर्जे का अनुभव भी कहीं पहुंचा देने वाला नहीं. दूसरे के जूते हमें पूरे नहीं आयेंगे. अपने रंग के साथ भी हम ऐसा नहीं कर सकते हैं. हमें अपना रंग खोजना होगा, हम कलाकार नहीं जानते हमारा रंग कहां बना, कैसे बना, कहां का है और कहां की मिट्टी है. हमारी उससे कोई आत्मीयता, पहचान है ही नहीं. हमें पहचान होती है तो बस इतनी कि कौन से ब्राण्ड के हैं – ‘कैमल’ हैं कि ‘विंसरन्यूटन’ इत्यादि…

इस युग में हमारा संबंध जितना मैटीरियल से टूटा है उतना शायद ऐसा कभी भी हुआ नहीं पिछली कई सदियों में. कहने को हम ‘मैटीरियलिस्टिक’ होते जा रहे हैं. असल में हमारा मोह, प्यार, अनुभव मैटीरियल के साथ अपनत्व का रहा ही नहीं. आज हम सक्षम हैं किसी भी वस्तु को कूड़े में फेंक देने के. अगर अपना संबंध होता कैसे फेंकते! हम चित्रकारों ने भी कौन सी कदर की है अपने रंगों की, काग़ज़ और कैनवस की. कब की है पूजा. जब-जब भी की है, तब-तब उस कला का तीर्थ भी उपजा है.

मुझे मेरी मिट्टियों के रंगों की आवश्यकता है. उसी से अपने आकारों की पहचान हो सकती थी, जो स्मृतियों के मानस से बहुत कुछ सीखा, देखा, जाना, सुना, निकाल कर बाहर सामने रख सकती थीं, जिसको मैं पहचानता हूंगा. वह स्मृतियां जो बेचैन किये हैं – कहीं गहरे में, जिनको जान लेना ज़रूरी है. जिनको आज में लाकर तुलनात्मक खोज ज़रूरी है तभी तो शायद मुक्त हो पाऊंगा मूर्त्त से, विचार-प्रवाह से, जो अशांत किये है, जो बाधा है मेरे और अमूर्त्त के बीच. फिर टिकेगा गहरा नीला शांत समुन्दर जिसके मानस पर एक भी लहर नहीं होगी.
न कला, न कलाकारी. कब होगा ऐसा नहीं जानता.
कलाकारों में एक और कलाकार ….सिद्धार्थ.

(चित्रकार सिद्धार्थ की प्रदर्शनी ‘नेति-नेति’ 12-23 अप्रैल 1999 में हुई थी. ये सभी तस्वीरें और टेक्स्ट इसी प्रदर्शनी के कैटलॉग से साभार.)


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