मौरावां लाइब्रेरी | दिन भर को आए, हफ़्ते भर रुक गए निराला

उन्नाव की एक पहचान साहित्यकारों की धरा की भी रही है. यहां के कई पुस्तकालयों में साहित्य की बेशुमार धरोहर किताबों और पाण्डुलिपियों की शक़्ल में सहेजी हुई हैं. मौरावां क़स्बे में ज़िले का सबसे पुराना हिंदी साहित्य पुस्तकालय ऐसा ही है, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ और मौलाना हसरत मोहानी जहाँ आते रहे थे.

सन् 1935 में निराला इस पुस्तकालय में आए थे. बैलगाड़ी से मौरावां के सफ़र पर निकले तो एक दिन के लिए ही थे, लेकिन ग्रंथों और पुराणों में इतना खो गए कि हफ़्ते भर तक यहीं रह गए. यहां का गढ़ाकोला गांव निराला की कर्मस्थली रही.

कुछ लोग मानते हैं कि हिंदी में पढ़ने और लिखने की उनकी झिझक दूर करने में इस पुस्तकालय का बड़ा योगदान था. 20 अक्तूबर 1935 को यहाँ से जाते हुए निराला जी ने पुस्तकालय की अतिथि पुस्तिका में लिखा:

हिंदी साहित्य पुस्तकालय में आकर मुझे खुशी हुई. लेकिन इसकी विशालकायता को देखते हुए कहना पड़ता है कि पुस्तकालय का रूप अभी बहुत सुंदर है.

हिंदी साहित्य पुस्तकालय की स्थापना 3 सितंबर 1917 को यहीं के अधिवक्ता जय नारायण कपूर ने बीएमजे लाइब्रेरी नाम से की थी. वह युवाओं को साहित्य और क़ानून की किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे. उनके दो सहपाठियों मेड़ीलाल त्रिपाठी और बालकृष्ण पाठक ने भी इस काम में सहयोग किया. बाद में 1 जुलाई 1918 को इसका नाम बदलकर हिंदी साहित्य पुस्तकालय हो गया. समय बीतने के साथ ही पुस्तकालय समृद्ध और प्रसिद्ध होता गया.

विविध विषयों पर सवा लाख किताबें
हिंदी साहित्य पुस्तकालय में 1.25 लाख किताबों का संग्रह है. यहां प्राचीन पत्रिकाओं से लेकर काव्य- महाकाव्य ग्रंथों की लंबी श्रृंखला है. यहां उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों में चार वेद, उपनिषद, छह शास्त्र, 18 पुराण, हस्तलिखित महाभारत सहित संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी, मराठी, अंग्रेज़ी भाषा के बेशुमार प्राचीन ग्रंथ और हिंदी साहित्य का भंडार है. यहाँ भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल का अनूठा संग्रह है.

पुस्तकालय भवन के लोकार्पण कार्यक्रम में 13 नवंबर 1961 को राज्यपाल बीराम कृष्ण राव आए थे. इसके बाद 7 जनवरी 2002 को आचार्य विष्णुकांत शास्त्री वाचनालय का लोकार्पण करने यहां आए.

मौरावां के इस पुस्तकालय की अतिथि पुस्तिका में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी, पं.गया प्रसाद सनेही, डॉ.रामविलास शर्मा, डॉ.सूर्य प्रसाद दीक्षित के दस्तख़त और उनकी टिप्पणियां भी दर्ज मिलती हैं.

ज़िले के पहले सांसद और स्वाधीनता संग्राम सेनानी विश्वंभर दयालु त्रिपाठी ने 8 जनवरी 1984 को विज़िटर बुक में लिखा है,
मुझे आज फिर हिंदी साहित्य पुस्तकालय को देखने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ. संस्था की जो उन्नति इसके प्रबंधकों ने की है वह सर्वथा सराहनीय है. इस समय इसकी सबसे बड़ी आवश्यकता निजी भवन की है. स्थान बहुत कम होने के कारण इस संस्था की पूर्ण उपयोगिता में बाधा पड़ती है. मैं हृदय से इसकी सफलता चाहता हूं.

लेकिन बजट का संकट
पुस्तकालय के अध्यक्ष राजेशचंद्र त्रिपाठी के मुताबिक लखनऊ में शिक्षा विभाग के लाइब्रेरी सेल से हर साल 10 हज़ार रुपये की इमदाद मिलती है. यह रक़म इतनी नाकाफ़ी है कि बिजली का बिल भी पूरा नहीं पड़ता. सदस्यता शुल्क 60 रुपये सालाना है, जो हर महीने पांच रुपये जमा होता है.

महामारी की वजह से लॉकडाउन में पुस्तकालय रहने का असर यह हुआ है कि इसके सदस्यों की तादाद घटकर केवल 90 रह गई है.

कुछ और समृद्ध पुस्तकालय
◆ कचहरी के पास प्रधान डाकघर मार्ग पर विश्वंभर दयालु त्रिपाठी राजकीय ज़िला पुस्तकालय भी ख़ासा समृद्ध है. प्रभारी सुरभि श्रीवास्तव के मुताबिक 1982 में स्थापित इस लाइब्रेरी में डिज़िटल लाइब्रेरी के साथ ही विश्वकोष, शब्दकोष, धर्मग्रंथ, संस्कृत, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी की 60 हज़ार किताबों और 250 हस्तलिखित पांडुलिपियां का संग्रह है.

◆ मोहल्ला शाहगंज में कमला भवन स्थित महात्मा गांधी पुस्तकालय 1971 में बना था. सचिव अतुल मिश्र ने बताया कि यहां करीब 50 हज़ार से ज्यादा किताबें हैं. शासन से 12 हज़ार रुपये और नगर पालिका से 5 हज़ार रुपये सालाना मदद मिलती है.


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