स्मरण | हँसी की दवाई देने वाले डॉ. अशोक अश्विनी
चार्ली चैप्लिन की अदाकारी को अपनी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा मानने वाले और हज़ारों लोगों को मुस्कुराहट और ख़ुशियाँ बांटने वाले डॉ.अशोक अश्विनी नहीं रहे. चार्ली क्लब के अध्यक्ष अमृत गंगर ने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में उनकी बेटी के हवाले से 23 नवंबर को उनके निधन की ख़बर दी है.
कच्छ के छोटे-से शहर आदिपुर को बाहर की दुनिया में गाँधी की समाधि के लिए पहचाना जाता है या फिर अनूठे ढंग से मरीज़ों का इलाज करने वाले डॉ. अशोक अश्विनी के नाते. आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. अशोक चार्ली चैप्लिन के इतने घनघोर प्रशंसक रहे कि अपने मरीज़ों को दवाओं के साथ ही चैप्लिन की फ़िल्में देखने की सलाह भी दिया करते थे. और जब यूट्यूब नहीं था, वह फ़िल्मों की सीडी या डीवीडी अपने मरीज़ों को देते थे.
चैप्लिन की फ़िल्म ‘द गोल्ड रश’ ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था. 1966 में ‘गोल्ड रश’ देखने के बाद ही उन्होंने पहली बार चार्ली को जाना था, हालांकि पहली बार फ़िल्म देखने पर उन्होंने बिल्कुल मज़ा नहीं आया था. उन्होंने इस फ़िल्म के लगातार तीन शो देखे. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि पहली बार तो बिना संवाद की यह फ़िल्म देखकर कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा. तो दूसरे शो का टिकट ख़रीद लिया, इस बार फ़िल्म का मर्म समझ में आया तो हँसते-हँसते लोटपोट हो गया. उसी आनंद की अनुभूति के लिए तीसरे शो का टिकट ख़रीदकर उसी सीट पर जाकर बैठा, जहाँ बैठकर पिछले दो शो देखे थे. चैप्लिन की दुनिया से यह उनका पहला परिचय था. और यही वह दिन था, जब टाइपिस्ट की उनकी नौकरी चली गई थी.
फ़िल्म देखकर लौटने के बाद भी वह उसके असर से मुक्त नहीं हो पाए थे. वह मानते थे कि ईश्वर और चैप्लिन दोनों ही ज़िंदगी में हँसी के सही मायने समझाते हैं. अभिनय का शौक उन्हें बहुत कम उम्र से ही था. उन्होंने पूना के फ़िल्म इंस्टीट्यूट में दाख़िला भी लिया था मगर वहाँ के तौर-तरीक़ों में ख़ुद को ढालने की मशक्कत के बजाय इंस्टीट्यूट छोड़कर वह आदिपुर लौट आए थे. अभिनय के अधूरे छूट गए सपने से हताश होने के बजाय उन्होंने बच्चों और रंगकर्म में दिलचस्पी रखने वालों के लिए मूक अभिनय की कार्यशालाएं आयोजित करनी शुरू कीं.
फिर चैप्लिन का जन्मदिन आया, तो वह केक बनवाकर घर लाए और बाक़ायदा जन्मदिन मनाया. हालांकि इस उत्सव में उनकी बहन और भाई ही शरीक थे. यह 1973 की बात है. 1977 में जब उन्होंने जब रेडियो पर चार्ली के निधन की ख़बर सुनी तो रुलाई छूट गई. उनसे मिलने की ख़्वाहिश भी अधूरी रह गई. तो उनकी स्मृति बनाए रखने के लिए उन्होंने चार्ली की परंपरा में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को शामिल करने का इरादा किया ताकि लोग उनके नाम और काम को जान सके, साथ ही ज़िंदगी में हँसी की सार्थकता और इसके मायने समझ सकें. लोगों को हँसाना उनकी ज़िंदगी का सबसे अहम् मकसद बन गया. 1980 में दोस्तों की मदद से उन्होंने चार्ली के जन्मदिन के जश्न में और लोगों को भी बुलाना शुरू किया, और 1984 में बाक़ायदा चार्ली सर्किल फ़ाउण्डेशन बन गया.
चैप्लिन के जन्मदिन वाले रोज़ यानी 16 अप्रैल को चार्ली का प्रतिरूप बनकर आदिपुर के सैकड़ों शहरी एक परेड निकालते हैं, हैट पहने, छड़ी लिए, वैसे ही परिधान में सजे टूथब्रश मूंछों के चेहरे वाले बच्चे, बूढ़े और नौजवान शहर की सड़कों पर होते हैं. साथ में ऊंटगाड़ियाँ होती हैं, लोक नर्तकों के दल होते हैं और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है और पूरा शहर इसमें शिरकत करता है. इस अनूठे जश्न को इतनी ख्याति मिली कि देश ही नहीं, दुनिया भर से चार्ली चैप्लिन इसमें शरीक होने के लिए आदिपुर पहुँचने लगे हैं. चार्ली का रूप धरने के लिए ख्यात कलाकार जेसन एलिन भी इस परेड में शामिल होने के लिए एक बार कनाडा से आए थे.
डॉ.अशोक की ख़्वाहिश चार्ली चैप्लिन को समर्पित ऐसा भवन बनाने की थी, जिसमें एक छोटा-सा संग्रहालय, पढ़ाने-सिखाने और प्रदर्शन के लिए जगह के साथ ही कलाकारों और चैप्लिन के प्रशंसकों के ठहरने का इंतज़ाम भी हो. इसके लिए जगह भी उन्होंने ख़रीद रखी थी.
वह कहा करते थे कि लोग भले मुझे दीवाना समझें, मगर देखना कि एक रोज़ सब पर यह नशा ज़रूर चढ़ेगा. कहते कि जब तक मैं ज़िंदा हूँ, चार्ली की याद में उत्सव की यह परंपरा बनी रहेगी, और मेरे बाद मेरे नाती-पोते, दोस्त और शहरी इसे चलाते रहेंगे.
कवर | डॉ.अशोक के फ़ेसबुक पेज से
दूसरी तस्वीर 16 अप्रैल की परेड की है.
यह फ़ोटो अमृत गंगर की वॉल से साभार
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प्रसंगवश | द ग्रेट डिक्टेटर का समापन भाषण
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