मिंजर मेला | चंबा की लोक परंपरा की नायाब मिसाल

चंबा | चौगान में लहराता झंडा, दिन भर खेल-कूद और शाम को लोक-संस्कृति की नुमाइश और शहर भर में जगह-जगह लहराती मिंजर सावन का ऐसा उत्सव हैं, जो आनंद के साथ ही लोक को एकसूत्र करने की भावना से संचालित होता आया है.

मिंजर मेले की शुरुआत के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. कुछ लोग 16वीं तो कुछ 17वीं सदी के मध्य इस मेले की शुरुआत मानते हैं. शाहजहाँ से जुड़ा क़िस्सा अगर दुरुस्त है तो इसे 17वीं सदी का मेला मान सकते हैं, यानी कम से कम चार सौ साल की लोक-परंपरा का प्रतीक.

चंबा का मिर्ज़ा परिवार के लोग भगवान लक्ष्मीनाथ और रघुनाथ के लिए मिंजर बनाते हैं, उन्हें अर्पित करते हैं. फिर ऐतिहासिक चंबा चौगान में मिंजर का झंडा लहरा कर मेले की विधिवत शुरूआत होती है. एक हफ़्ते का यह मेला सावन के दूसरे इतवार को शुरू होता है. मेले के दौरान बहनें अपने भाइयों की पोशाक के ऊपरी हिस्से में एक अटकन बांधती हैं.

मिर्ज़ा परिवार के बुज़ुर्ग एजाज मिर्ज़ा मेले की रवायतों के बारे में दिलचस्प क़िस्सा बताते हैं. उनके मुताबिक, चंबा रियासत के राजा पृथ्वी सिंह वर्मन दिल्ली के शासक शाहजहां के जिगरी दोस्त थे. कांगड़ा रियासत के राजा को हराने में शाहजहां ने भी अहम् भूमिका निभाई थी.

पृथ्वी सिंह उनसे मिलने अक्सर दिल्ली जाया करते थे. एक मर्तबा वह दिल्ली गए हुए थे. उन्हीं दिनों शाहजहां ने खेलों के मुक़ाबले का फ़ैसला किया. उन्होंने शर्त रखी कि जो सबसे कम समय में जीत दर्ज करेगा, उसे मुंह मांगा इनाम देंगे.

उस रात को जब राजा पृथ्वी सिंह वर्मन गहरी नींद में थे तो भगवान रघुनाथ ने सपने में उन्हें दर्शन देकर इनाम के तौर पर उन्हें अपने साथ ले जाने को कहा. अगले रोज़ पृथ्वी सिंह ने मुक़ाबले में हिस्सा लिया और काफ़ी कम समय में ही मुक़ाबला जीत लिया.

शाहजहां ने पृथ्वी सिंह की पीठ थपथपाते हुए उनसे अपना इनाम मांगने को कहा. इस पर पृथ्वी सिंह वर्मन ने शाहजहां से उनके ख़जाने में रखे हुए भगवान रघुनाथ के चिह्न को इनाम के रूप में देने को कहा. शाहजहां ने उनकी बात फ़ौरन ही मान ली.

शाहजहां के दरबारियों में शरीक मिर्ज़ा अमीर और मिर्ज़ा शफ़ी बेग ने भगवान रघुनाथ के चिह्न के साथ उन्हें भी पृथ्वी सिंह वर्मन के साथ जाने देने की इज़ाज़त ले ली. सो पृथ्वी सिंह के संग ही मिर्ज़ा भाइयों का कुनबा भी चंबा रियासत आ गया.

एजाज मिर्ज़ा बताते हैं कि मिर्ज़ा अमीर और मिर्ज़ा शफ़ी बेग उस दौर के नायाब कलाकारों में थे और पोशाकों पर सोने की महीन कसीदाकारी में निपुण थे. पृथ्वी सिंह वर्मन के चंबा पहुंचने पर लोगों ने उन्हें मक्की की (भुट्टे की मूछें, अटकन, झालर) अटकन भेंट कीं.

मिर्ज़ा बंधुओं ने सोने के पतले तारों से एक नायाब झालर मिंजर के रूप में बना कर राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की. उनके कौशल और कलाकारी से राजा इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने मिर्जा परिवार के हाथ की बनी मिंजर कुलदेवता रघुनाथ को अर्पण करने के बाद मेले का आग़ाज करने की बात कही. तभी से यह परंपरा चली आ रही है.

वक़्त के साथ मिंजर का स्वरूप भी बदला है. सोने की तारों से बनाई जाने वाली मिंजर की जगह अब रेशम के धागे, ज़री-गोटा और डोरी के साथ ही रंग-बिरंगे धागों से भी मिंलजर बनाई जाती है. कहा कि भगवान रघुनाथ और लक्ष्मीनाथ को अर्पित की जाने वाली मिंजर आठ सरी ‌रहती है.

मिंजर मेले के समापन के मौक़े पर पहले भैसे को रावी नदी में उतारा जाता था. भैंसा अगर नदी पार कर जाता तो इसे चंबा के लोगों की ख़ुशहाली औऱ सुख-समृद्धि का संकेत माना जाता. इसके उलट भैंसा अगर रावी के प्रवाह में बह जाता तो उसे अपशकुन माना जाता था. समय के साथ पशु-‌बलि पर रोक के चलते अब भैंसे की जगह पर नारियल के साथ मिंजर बांध कर रावी में प्रवाहित किया जाता है.

मिंजर मेले के दौरान दोपहर के समय ऐतिहासिक चंबा चौगान में खेल-कूद के मुक़ाबले होते है. रात को कला केंद्र के मंच पर देश के कोने-कोने से आए कलाकार अपनी संस्कृतिक विरासत से लोगों को परिचित कराते हैं.

हालांकि कोरोना की वजह से दो बार से मिंजर मेले का स्वरूप और उसकी भव्यता सिमटी हुई रही है और ज़रूरी रस्में ही अदा की गईं.


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