बहेड़ी वाले मुकर्रम भाई नहीं रहे

  • 10:19 pm
  • 30 January 2024

बहेड़ी में रोडवेज़ बसें रुकने के ठिकाने के सामने ही अहद भाई का चाय का होटल. ये ठिकाना था, इलाक़े भर के तमाम सियासतदानों के जुटने का. सुबह से लेकर देर रात तक यहाँ सियासी और समाजी लोगों की महफ़िलें जमतीं. काँग्रेस के नेता मुकर्रम अली ख़ाँ भी उन नेताओं में से एक थे, जो इस होटल के आबाद रहने तक यहीं अपनी चौपाल जमाते रहे. लोगों को बुला-बुला कर चाय पिलाना उनके शौक़ का एक हिस्सा बन गया था. अहद भाई का होटल तो काफ़ी बरस पहले बंद हो गया था, और आज मुकर्रम ख़ाँ भी इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए.

मुकर्रम खाँ की गिनती उन खाँटी कांग्रेसियों में होती है, जिन्होंने आख़िरी दम तक कांग्रेस का दामन नहीं छोड़ा. 1996 में जब नारायण दत्त तिवारी ने कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस(तिवारी) बनाई और बहेड़ी-नैनीताल लोकसभा सीट से चुनाव लड़े, तब बहेड़ी के तमाम कांग्रेसी नेता तिवारी जी के साथ हो गए थे, लेकिन मुकर्रम खां ने कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा, और अकेले दम पर पोलिंग स्टेशन के बाहर बस्ता लगा लिया. कांग्रेस का कोई भी प्रोग्राम हो, बहेड़ी-बरेली या फिर लखनऊ, वह हर प्रोग्राम में शामिल होते. ज़मींदार घराने के मुकर्रम ख़ाँ गन्ना समिति के डायरेक्टर रहे. जनता से जुड़े छोटे-छोटे मुद्दों से वह पूरी शिद्दत के साथ जुड़ते. शासन-प्रशासन तक चिठ्ठी-पत्री वह बिना रुके करते. अक्सर उनकी जेब में पोस्टकार्ड रहते, और दिन भर जो भी जानने वाले मिलते, उनका नाम-पता पोस्टकार्ड पर दर्ज कर उससे दस्तख़त कराते, और सामने वाले को यह भी बताते कि फलां मांग को लेकर फलां अफ़सर या नेता को ये पोस्टकार्ड भेजा जाएगा.

उस दौर में भी पोस्टकार्ड भेजकर अपने क्षेत्र की कोई मांग उठाने वाले कुछ गिने-चुने ही नेता हुआ करते थे, जिनमें यहां तो मुकर्रम भाई का नाम ही आता. शाम ढ़लते वह अपना मांग-पत्र तमाम अख़बारनवीसों तक पहुंचाना भी नहीं भूलते.

मुकर्रम ख़ाँ का रोज़नामचा अगर देखें, तो लोगों से मिलना-मिलाना ही उनका मुख्य शग़ल था. साइकिल से वह पूरा शहर घूम लेते. रास्ते में मिलने वालों से सलाम-दुआ, और कुछ के ठिकानों पर पहुंचकर हाल-चाल ले लिया. शहर में चाय के कुछ होटल उन्होंने चुन रखे थे, जहाँ उनके पहुंचने का वक़्त लगभग मुकर्रर था. होटल पर बैठे हुए, रास्ता चलता पहचान का जो भी उनको दिखता, वह आवाज़ देकर उसे बुला लेते, चाय पिलाते. हर होटल पर उनके साथ बैठकी लगाने वाले कुछ साथी भी रोज़ाना ही वहां पंहुचते. शाहगढ़ में अपनी बैठक पर पहुँचने वालों की ख़ातिरदारी भी वह बहुत अच्छे से करते. साल में कई बार सिवई की दावत करते, तो सर्दी के दिनों में दोस्तों और साथियों को रसावल ज़रूर खिलवाते. गन्ने की फांदी लाकर रस पेरवाना और फिर उसकी रसावाल बनवाना उनका शौक़ था, और उससे ज़्यादा शौक़ लोगों को न्योता देकर उसको गर्म दूध के साथ खिलवाना. कभी मूँगफली और रेवड़ी से भी ख़ातिर करते. बैठक पर भी चाय और कभी-कभार साथ में पापे भी.

पिछले कुछ दिनों से उनकी सेहत उनका साथ नहीं दे रही थी, फिर भी वह अपनी बैठक में चौपाल लगाना उन्होंने नहीं छोड़ा. हाँ, रात ज़िन्दगी ने उनका साथ अलबत्ता छोड़ दिया. मंगलवार को उनको सुपुर्दे ख़ाक़ करने को बड़ी तादाद में उनके चाहने वाले जुटे. सभी उनकी भल मनसाहत और उनकी ख़ातिरदारी करने के जज़्बे की बातें करते नहीं थक रहे, और शायद यही उनकी शख़्सियत की पहचान थी, और उनके लिए ख़िराज़े अक़ीदत भी.


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