किताब | चिनहट 1857 के बहाने नए सवाल

आगरा में 25 जून को रंगलीला की ओर से आयोजित समारोह यों तो राजगोपाल सिंह वर्मा की किताब ‘चिनहट 1857’ के विमोचन और किताब पर विद्वानों के बीच गंभीर संवाद के निमित्त था लेकिन यह सामान्य लोकार्पण और संवाद से अलग एक परिघटना थी, जिसमें 30 जून 1857 को चिनहट के विद्रोह के बहाने उस ऐतिहासिक घटना की उपेक्षा के तमाम पहलुओं की चर्चा हुई. इसमें सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी का था. कोलकाता विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो.चतुर्वेदी ख्यातिलब्ध आलोचक भी हैं. उनके वक्तव्य के अंश-

राजगोपाल सिंह वर्मा की किताब ‘चिनहट 1857 संघर्ष की गौरव गाथा’ (2022) इस संग्राम के कई अछूते पक्षों पर रोशनी डालती है. इस किताब की ख़ूबी है कि इसमें इतिहास को कहानी के माध्यम के ज़रिए प्रस्तुत किया गया है. इसलिए इसमें कहानी, इतिहास और स्थानीयता का संगम मिलता है. यह किताब पूरी तरह उस दौर के अंग्रेज़ अफ़सरों और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के दस्तावेज़ों के अध्ययन के आधार पर लिखी गई है. चूँकि लेखक ने कहानी के फ़ॉर्मेट को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है अतः बीच-बीच में गल्प का असर भी दिखता है. साथ ही इस विद्रोह से जुड़े विवरण-ब्यौरों का व्यापक रूप में इस किताब में इस्तेमाल किया गया है.

राजगोपाल सिंह वर्मा ने प्रस्तावना में लिखा, ’30 जून 1857 को चिनहट-इस्माइलगंज में ऐसा युद्ध हुआ था, जहाँ कम्पनी के सैन्यबलों और फ़िरंगी अभिमान के प्रतीकों को नेस्तनाबूद कर दिया गया था.’

‘यह युद्ध इतनी अल्प अवधि का था (मात्र कुछ ही घंटों का), कि पूर्वान्ह्न नौ बजे से लेकर 11बजे तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी की तोपों, हाथियों, घोड़ों और हथियारों से सज्जित इस सेना के बचे हुए लोग पूरी तरह पराजित होकर रेजीडेंसी की ओर भागने और स्वयं को सुरक्षित करने में लग गए थे.’ यानी चिनहट की जंग कुल दो घंटे चली.

‘चिनहट के संग्राम के इस घटनाक्रम में क्रांतिकारी बरकत अहमद के साथ 22वीं बंगाल नेटिव इन्फ़ेंट्री के सिपाही, वाजिद अली शाह के सैनिक, अवध इररेगूलर इंफ़ेंट्री के लोग भी शामिल थे. साथ ही थीं महोना, अयोध्या और आसपास के अन्य ताल्लुकेदारों की छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ियाँ.

इस लड़ाई में बरगवाँ के शिवआधार और शेरपुर गाँव के दयाशंकर समेत 175 भारतीय योद्धा भी शहीद हुए थे. इन जुझारू योद्धाओं की स्मृति में चिनहट की कठौता झील के निकट के एक स्थान पर 1973 में भारत सरकार ने एक छोटे-से शहीद स्मारक का निर्माण कराया था’

वर्मा ने लिखा, ‘एक सामान्य अनुमान के अनुसार 118 यूरोपियन अफ़सरों और उनके परिजनों की इस लड़ाई में मृत्यु हुई और 184 देसी सैनिक या तो मारे गए अथवा, ग़ायब हो गए. जो यूरोपीय अधिकारी अथवा सैनिक ग़ायब हुए थे उनमें से किसी का कोई पता नहीं चला, 54 यूरोपियन अधिकारी और 11 देसी सैनिक रेजीडेंसी में घायल अवस्था में पहुँचे थे, ऐसा उस समय के आँकड़े बताते हैं.’ (पृ.140)

‘चिनहट के इस युद्ध का विवरण निम्न प्रकार समझा जा सकता है- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की यह सेना जिसमें उनकी विभिन्न इकाइयाँ शामिल थीं और जिनके पास हथियार थे, पीछे-पीछे चली आ रही थी. यह पूरी सेना लगभग पन्द्रह हज़ार की संख्या की रही होगी. कुल 300 सिख, 80 घुड़सवार, 1200 बर्क़-अंदाज़ और तिलंगों की पाँच कम्पनियाँ, गोरों की 11 कम्पनियाँ, 50 तोपें और उससे जुड़ी सामग्री जिसमें घोड़े, हाथी और बैलगाड़ियाँ थीं.’ (पृ. 110)

लेखक के मुताबिक, ‘इस प्रकार चिनहट का युद्ध और उसमें ब्रिटिश सैन्य बलों की हार एक ऐसी घटना थी जिसने मात्र एक दिन, या कुछ घण्टों के युद्ध को इतिहास में प्रभावी युद्ध के रूप में दर्ज कर दिया था…यदि फिरंगियों के प्रभावी मुक़ाबले के लिए उन्हें आसपास की रियासतों और विद्रोहियों से भरपूर मदद मिली होती तो चिनहट व्यापारी के वेश में इस देश की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करने आए ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भेड़ियों का नक़ाब नौ दशक पूर्व ही उतार फेंकता. पर, सैन्य बल, परिस्थितियों और संसाधनों की कमी, कुछ रणनीतियों में उचित तालमेल न होने से चिनहट में ब्रिटिश बलों को दी गयी करारी शिकस्त को पूरी तरह भुनाया नहीं जा सका.’ (पृ.195)

सवाल यह है अवध के इलाक़े पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा क्यों और किन कारणों की वजह से स्थापित हुआ? सन् 1857 के विद्रोह के क्या कारण हैं? ख़ासकर अवध में अंग्रेज़ों की विजय के क्या कारण हैं? सन् 1857 के विद्रोह की शक्ति, सीमा और संभावनाएँ क्या हैं? अवध के विद्रोहियों, ख़ासतौर पर चिनहट के क्रांतिकारियों ने सैन्य मुठभेड़ के ज़रिए क्या संदेश दिया? कौन-सी चीज़ें हैं जो हमारी नज़रों से ओझल हैं?

सद्भाव-सहिष्णुता मॉडल और 1857
‘चिनहट 1857’ में विस्तृत विवरण और ब्यौरों में जो चीज़ उभरकर सामने आई है और जिस मॉडल के आधार पर इस किताब का विश्लेषण किया जाए, उस मॉडल का नाम है, ‘सद्भाव-सहिष्णुता मॉडल’. भारत में ख़ासकर अवध के इलाक़े में विभिन्न समुदायों, सामाजिक समूहों, धार्मिक समूहों के बीच किस तरह सद्भाव और सामाजिक एकता थी, इस तथ्य को यह किताब बड़े सुंदर ढंग से 1857 के आख्यान के ज़रिए सामने लाती है. दिलचस्प बात यह है कि लेखक ने कहीं पर भी सद्भाव या सहिष्णुता की कोई परिभाषा पेश नहीं की है. लेकिन समूचा चिनहट आख्यान सद्भाव-सहिष्णुता बनाम ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में सामने आता है.

सवाल यह है कि सन् 1857 के बाद से सद्भाव-सहिष्णुता का सामाजिक जीवन में विकास हुआ या ह्रास हुआ? समाज में सद्भाव और सहिष्णुता का विकास होता है तो दुनिया, आसपास के समाज, सत्ता के चरित्र और विभिन्न सामाजिक वर्गों की भूमिका को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं. यथार्थ की सही समझ बनाने में यह सबसे बड़ी शक्ति है. सद्भाव ही है जो पीडितों-वंचितों और शोषितों के प्रति प्रेम, प्रतिबद्धता और सहानुभूति पैदा करता है.

इन तत्वों को सतही ढंग से देखने ज़रुरत नहीं है. सद्भाव-सहिष्णुता के मॉडल की ख़ूबी है कि इसके आधार पर ‘अन्य’ या ‘अदर’ को बेहतर ढंग से देख सकते हैं. हमारे यहाँ ‘अदर’ या हाशिए के समुदाय और वर्ग इसलिए बहस से ग़ायब रहे क्योंकि हमने सद्भाव-सहिष्णुता के मॉडल का व्यवहार में पालन नहीं किया. ये सिर्फ़ शब्द मात्र नहीं हैं. लेकिन हमारे यहाँ उनको मात्र शब्द बनाकर रख दिया गया. विडम्बना यह है कि जो विचारक अन्य या हाशिए के लोगों के पक्ष में लिखते रहे हैं उन्होंने भी इन को त्याग कर लिखा है. इस मॉडल को जिस राजनेता ने स्वाधीनता आंदोलन का मूल मंत्र बनाया वह हैं महात्मा गांधी. जिन लोगों ने इस मॉडल की उपेक्षा की वे हाशिए पर चले गए और गांधी पूरे स्वाधीनता संग्राम की धुरी बन गए.

सद्भाव-सहिष्णुता की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा संभव नहीं है. दो भिन्न विचारों या विचारधाराओं के व्यक्तियों में सद्भाव-सहिष्णुता संभव है. सद्भाव-सहिष्णुता रहेगी तो प्रेम पैदा होगा, नफ़रत पैदा करना मुश्किल होगा. लेकिन यदि सद्भाव-सहिष्णुता ग़ायब हो गई तो नफ़रत आसानी से पैदा की जा सकती है. सद्भाव-सहिष्णुता के कारण ही शांति और सुरक्षा को विभिन्न स्तरों पर सुनिश्चित किया जा सकता है.

इस मॉडल के विकास के लिए ज़रूरी है अपने आप से ही प्रेम करने से बचें. जिस तरह शरीर बदलता है, उसी तरह सद्भाव-सहिष्णुता भी बदलती है. इस मामले में ‘परिवर्तन’ और ‘अनिश्चितता’ दो चीजें अनिवार्य हैं.

अक्षमता और प्रतिरोध
एक अन्य पहलू है जो 1857 के संग्राम में उभरकर आता है वह है अनेक मामलों में भारतीयों की अक्षमता. सवाल यह है अक्षमता से सक्षमता की ओर जनता को कैसे ले जाएँ? 1857 के संग्राम के समय जनता और विद्रोही अपनी अक्षमता से अनभिज्ञ थे. यह बात सामान्य जीवन पर भी लागू होती है कि आम आदमी अपनी अक्षमता से अनभिज्ञ होता है. ऐसी अवस्था में हमें सबसे पहले अक्षमता को जानने की कोशिश करनी चाहिए. इससे सचेतनता और अक्षमता के विकास की संभावनाएँ खुलेंगी. जो बातें हम नहीं जानते उन्हें जानने की कोशिश करेंगे.

सन् 1857 के विद्रोह के समय विद्रोही सिपाहियों और क्रांतिकारियों में प्रतिरोध भावना नज़र आती है, साथ ही वे अपने इलाक़े की जनता के अंश को समझा-बुझाकर अपने साथ सक्रिय करने में सफल रहे. प्रतिरोध का अर्थ है कि जो आदेश दिया जाय उसे अस्वीकार किया जाय. किसी विचार को स्वीकार न करना भी प्रतिरोध है. प्रतिरोध हमेशा क्षमता के अनुसार किया जाता है. ‘मैं पसंद नहीं करता’, ‘मैं विश्वास नहीं करता’,‘मैं नहीं मानूँगा.’ ये उस के सरलतम रूप हैं. इनसे प्रतिरोध के संस्कार बनते हैं.

चिनहट 1857 का विमोचन

नई संस्कृति और राजनीति
सन् 1857 की पराजय का सबसे बड़ा नुकसान यह था कि उसने विभिन्न स्तरों पर सद्भाव और सहिष्णुता को क्षतिग्रस्त किया. विभिन्न रूपों में विभाजन पैदा किया. इसकी पहली अभिव्यंजना तो उस दौर के बुद्धिजीवियों के नज़रिए में व्यक्त हुई. 19वीं शताब्दी के बुद्धिजीवियों में अधिकांश ब्रिटिश परस्त थे और उन्होंने 1857 के संग्राम में विद्रोहियों की भूमिका की तीखी आलोचना की. इसके विपरीत कार्ल मार्क्स ने विभिन्न सरकारी रिपोर्टों के आधार पर लिखे प्रसिद्ध निबंध ‘1857 में भारत से आने वाले समाचार’ (14 अगस्त, 1857, न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून) में इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ रेखांकित किया. वहीं फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘भारत में विद्रोह’ निबंध में इसे ‘महान विद्रोह’ की संज्ञा दी. सवाल यह है कि भारत के तत्कालीन बुद्धिजीवियों को यह चीज नज़र क्यों नहीं आई? यह एक तरह से भारत के मार्क्स-एंगेल्स की पक्षधरता की अभिव्यक्ति है. इन दोनों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की भूमिका को लेकर और भारतीय समाज की सच्चाई को लेकर जो कुछ लिखा है, वह बहुत ही मूल्यवान है, ख़ासकर अवध के विद्रोह को लेकर एंगेल्स के लेख इस किताब के संदर्भ में अधिक प्रासंगिक हैं.

मार्क्स-एंगेल्स ने 1857 के विद्रोह के प्रसंग में जिन बातों को रेखांकित किया, उनमें प्रमुख चीज़ों को समझने की ज़रूरत है. ब्रिटिश शासकों ने ‘राष्ट्र-राज्य’ के स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया को बाधित किया. इसमें दूसरी बाधा बने राजे-रजवाड़े, जागीरदार और ज़मींदार. सन् 1857 के संग्राम के बाद एक नए क़िस्म के गठबंधन का जन्म होता है जिसे ‘एशियाई निरंकुशता’ और ‘यूरोपीय निरंकुशता’ के गठबंधन के रूप में देखा जाना चाहिए. इन दोनों ने मिलकर ग्राम्य जीवन से लेकर शहरी जीवन तक विभिन्न रूपों में बर्बरता और निरंकुशशाही को पाला-पोसा. जो लोग यह मानते हैं कि ब्रिटिश शासन आधुनिकता लेकर आया, उनसे हम असहमत हैं. ब्रिटिश शासक यूरोपीय निरंकुशशाही लेकर आए. इसने भारतीय निरंकुशशाही से गठजोड़ बनाया. जातिप्रथा और ग्राम्य बर्बरता को सम्प्रसारित किया. हम सन् 1857 के विद्रोह के बाद पैदा हुए निरंकुशशाही के इस गठबंधन पर बातें नहीं करते. विद्रोह पर बातें करते हैं, लेकिन जिनकी वजह से यह विद्रोह असफल हुआ, उन कारणों की जड़ में जाने की कोशिश नहीं करते.

सन् 1857 के विद्रोह के बाद से निरंकुशशाह और ग्राम्य बर्बरता में इज़ाफ़ा हुआ है. इन दोनों को हमने कभी बहस का मुद्दा ही नहीं बनाया.

मार्क्स-एंगेल्स ने उस दौर में पैदा हो रही नई संस्कृति की भी चर्चा की है. जिस पर भारत में बहस एक सिरे से नदारद है.मसलन, ‘राजनीतिज्ञों में चालबाज़ी’, ‘व्यापारियों की सर्व-भक्षीलिप्सा’, ‘स्वेच्छाचारी’ और ‘बर्बर सरकार.’ ‘यूरोपीय निरंकुशशाही’ और ‘एशियाई निरंकुशशाही’ का गठजोड़,एवं उसके गर्भ से ‘दैवी दैत्यों’ से भी भयानक ‘राक्षस समाज’ का जन्म हुआ. धर्म में विलासिता और पीड़ा का सम्मिश्रण है. अंधविश्वासों की आंधी और बर्बर अहमन्यता. मनुष्य के मस्तिष्क को संकुचित सीमाओं में बांधे रखना. अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दुस्तान की जनता का उसकी परंपराओं और इतिहास से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद, पुराने संसार के छिन जाने एवं नए आधुनिक संसार के न बन पाने की अवस्था, जमीन के आँकड़े से प्रेम एवं आक्रमणकारी ताक़तों का विरोध न करने की मनोदशा, अवर्णनीय अत्याचारों को चुपचाप दर्शक की तरह देखते रहने की मानसिकता और इसके साथ ही निरंतर हताशा-निराशा में जीने की मनोदशा पैदा हुई. जनता के सामने जो घट रहा था उसकी ओर उसने कभी आँखें खोलकर देखा तक नहीं. प्रतिष्ठाहीन, गतिहीन, सर्वथा जड़ समाज संरचनाएं. साथ ही उद्देश्यहीन, अनियंत्रित एवं असीमित शक्तिशाली ताक़तों का उदय. फलतः मनुष्य हत्या को धर्म बना दिया गया.

1857 के विद्रोह की असफलता के अनेक कारण हैं, इनमें प्रमुख हैं- आधुनिक युद्धास्त्रों का अभाव, विभिन्न सामाजिक वर्गों में एकता का अभाव, आधुनिक दूरसंचार प्रणाली का अंग्रेजों द्वारा प्रभावशाली उपयोग. इसके विपरीत विद्रोही पूरी तरह संचार के परंपरागत तरीक़ों पर निर्भर थे. समाज में विभिन्न वर्गों के बीच एकता क्यों टूटी? इसके तीन प्रमुख कारण हैं– गुलाम मनोदशा, जातिप्रथा और पूर्वजन्म की धारणा और अंधविश्वासों के प्रति गहरी आस्था. नए आधुनिक सामाजिक वर्गों, ख़ासकर व्यापारी, मजदूर वर्ग और मध्य वर्ग का विद्रोह से दूरी बनाए रखना. इन नए वर्गों को साथ लिए बिना स्वाधीनता प्राप्त करना संभव नहीं था. जबकि विद्रोही पूरी तरह राजे-रजवाड़ो, ज़मींदारों, और उनके सैनिकों पर निर्भर थे. जबकि ऐतिहासिक तौर पर ये वर्ग अपनी शक्ति खो चुके थे, इनके बल पर कोई भी क्रांति संभव नहीं थी. इन के बल पर अंग्रेज़ों को परास्त करना संभव नहीं था. समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक विभाजन की चेतना विभिन्न रूपों में सक्रिय थी.

बुनियादी सवाल यह है कि भारत में विगत दो हज़ार सालों में बुनियादी सामाजिक या राजनीतिक क्रांति क्यों नहीं हुई? सन् 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह का कोई ठोस वैचारिक कार्यक्रम आधुनिक सामाजिक वर्गों के पास क्यों नहीं था? सन् 1857 के आसपास भारत में 100 क्रांतियां हुईं, लेकिन ये सब राजनीतिक या सैन्य प्रतिरोध तक सीमित होकर रह गईं. वे बुनियादी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को जन्म क्यों नहीं दे पाईं? जनता में व्याप्त अकाल, महामारी और कृषि दासता की मुक्ति के लिए कोई ठोस कार्यक्रम या आंदोलन समाज में पैदा क्यों नहीं हुआ? खासकर कृषि दासता से मुक्ति को राजनीतिक लड़ाई का एजेंडा बनाने में भारतीय समाज क्यों असफल रहा?


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