कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा ‘दियासलाई’ का लोकार्पण कल

जयपुर | नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित भारतीय मूल के पहले शख़्स कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा ‘दियासलाई’ का लोकार्पण बृहस्पतिवार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में होगा. आत्मकथा में उन्होंने अपने संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी साझा की है. साथ ही, उन्होंने भारत और दुनियाभर के बच्चों के कल्याण और मुक्ति के लिए किए गए प्रयासों का भी उल्लेख किया है. आत्मकथा राजकमल प्रकाशन ने छापी है. यह नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किसी हस्ती की मूल रूप से हिन्दी भाषा में प्रकाशित होने वाली पहली आत्मकथा है.
दियासलाई में भरी होती है अनन्त संभावनाएँ
कैलाश सत्यार्थी ने कहा, ‘दियासलाई’ में मेरे बचपन की शरारतों से लेकर अब तक की कहानी है. इसमें सबसे प्रमुख वह विनम्र प्रयास है, जब मैंने यह महसूस किया कि बच्चों की गुलामी, उनका शोषण और उनके साथ अत्याचार, सभ्यता के विकास के साथ नहीं चल सकते. मैंने ठान लिया कि इस बुराई को खत्म करना है. यह लंबा संघर्ष था जिसमें बहुत लोगों ने मेरा साथ दिया.
इस राह में बहुत मुश्किलें आईं, हमारे ऊपर हमले हुए, तीन साथी शहीद हो गए; लेकिन अब मुड़कर देखता हूँ कि वह कौन सी ताकत थी जिसने मुझे लड़ते रहने का माद्दा दिया. मैं पाता हूँ कि मेरे पूरे जीवन-संघर्ष की कहानी करुणा से प्रेरित है. करुणा कोई कमजोर भावना नहीं है. करुणा दुनिया को बदलने की शक्ति रखती है. एक बेहतर दुनिया बनाने की अगर कोई ताकत है तो वह करुणा है. जहाँ हम एक-दूसरे की समस्या को अपनी समझें, महसूस करें और उसको दूर करने के लिए जुट पड़ें, यही मेरी ज़िन्दगी रही है.
मैंने अपनी आत्मकथा का नाम ‘दियासलाई’ इसलिए रखा क्योंकि दियासलाई में अनन्त संभावनाएँ भरी होती हैं. दुनिया को रोशन करने की संभावनाएँ. वह खुद जल जाती है, मगर वह एक भी दिए को जला देती है तो वह दिया अनगिनत दियों को जला सकता है और सारी दुनिया प्रकाशित हो सकती है.
कई दशकों की इस लंबी यात्रा के बारे में लिखना आसान नहीं था लेकिन आप सभी के प्यार और भरोसे ने मुझे यह लिखने को प्रेरित किया. अब ‘दियासलाई’ आपके हाथों में आने के लिए तैयार है. मुझे उम्मीद है कि यह पुस्तक आपको अँधेरे से उजाले की ओर आने के लिए प्रेरित करेगी ताकि हम सब मिलकर एक दुनिया बना पाएँ और करुणा का वैश्वीकरण कर सकें.
हिन्दी भाषा भाषियों के लिए यह एक अभूतपूर्व क्षण
राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, यह हमारे लिए गौरव की बात है कि नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा का प्रकाशन हम कर रहे हैं. यह पहली बार है जब किसी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हस्ती की आत्मकथा का प्रकाशन मूल रूप से हिन्दी भाषा में हो रहा है. हम हिन्दी भाषा भाषियों के लिए यह एक अभूतपूर्व क्षण है.
उन्होंने कहा, कैलाश सत्यार्थी का जीवन हम सबके लिए प्रेरणादायी है. हम उनके सामाजिक कार्यों और योगदान से परिचित हैं, इस किताब के माध्यम से उनके अनथक संघर्ष के ब्योरों से भी परिचित होंगे. उन्होंने दुनियाभर में बालश्रम और बंधुआ मजदूरी की जकड़ में फँसे बच्चों को मुक्त कराने और उनकी शिक्षा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. कई बार उन्होंने अपने ऊपर जानलेवा हमले भी झेले. उनके इस लंबे और निरंतर संघर्ष की कहानी किंचित पहली बार इस किताब में विस्तार से सामने आ रही है.
किताब के बारे में
‘दियासलाई’ नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित और भारत समेत पूरे विश्व में बच्चों के प्रति संवेदना को एक आवश्यक लोकतांत्रिक मूल्य के रूप में स्थापित करनेवाले कैलाश सत्यार्थी की आत्मकथा है. अपनी इस आत्मकथा में वे हमें अपने संघर्षपूर्ण जीवन की कथा भी बताते हैं और अपने उन प्रयासों की भी जानकारी देते हैं जो उन्होंने भारत और विश्व-भर के बच्चों की मुक्ति और कल्याण के लिए किए.
वे ही थे जिन्हें ‘ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर’ जैसे महा-आन्दोलन का विचार आया और जिसके तहत उन्होंने दुनिया के 186 देशों की यात्रा करते हुए लाखों बच्चों से सम्पर्क किया और उन्हें आजादी के विचार से अवगत कराया. शिक्षा के लिए भी उन्होंने विश्व-स्तर पर कैम्पेन चलाया.
अपने मानवीय और सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें अनेकों बार पुरस्कृत भी किया गया लेकिन अपना वास्तविक पुरस्कार वे उन बच्चों की मुस्कराहट को मानते हैं, जो उन्होंने हर ओर से निराश और समाज के क्षुद्र स्वार्थों की भेंट चढ़े बच्चों को दी.
सहज और सम्प्रेषणीय भाषा में लिखी हुई उनकी यह आत्मकथा हमें प्रेरित भी करती है, संवेदनशील भी बनाती है और उन भीषण तथ्यों से भी परिचित कराती है जाे हमारे सामने दुनिया के विराट नक़्शे पर बिलखते बच्चों का पता देते हैं.
लेखक के बारे में
कैलाश सत्यार्थी का जन्म 11 जनवरी, 1954 को विदिशा, मध्य प्रदेश में हुआ. उन्होंने भोपाल विश्वविद्यालय (अब बरकतुल्ला विश्वविद्यालय) से बी.ई. और उसके बाद ट्रांसफ़ॉर्मर डिज़ाइन में मास्टर्स डिप्लोमा किया.
किशोरावस्था से ही सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध मुखर रहे. छुआछूत, बाल विवाह आदि के ख़िलाफ़ अभियान चलाया. उनकी अगुआई में 1981 से अब तक, सवा लाख से अधिक बच्चे बाल मज़दूरी और ग़ुलामी से मुक्त कराए जा चुके हैं. इस क्रम में छापामार कार्रवाइयों के दौरान कई बार जानलेवा हमले भी झेले.
1998 में ‘बालश्रम विरोधी विश्वयात्रा’ का आयोजन किया जो 103 देशों से होकर गुज़री और लगभग छह महीने चली. परिणामस्वरूप ख़तरनाक क़िस्म की बाल-मज़दूरी रोकने के लिए अन्तरराष्ट्रीय क़ानून बना जिसे सभी राष्ट्र लागू कर चुके हैं.
विश्वभर के बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए 1999 में ‘ग्लोबल कैंपेन फ़ॉर एजुकेशन’ की शुरुआत की. शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए 2001 में ‘भारत यात्रा’ की. परिणामस्वरूप देश के संविधान में संशोधन हुआ और शिक्षा का अधिकार क़ानून बना.
भारत में बाल यौन शोषण और ट्रैफ़िकिंग के ख़िलाफ़ 2017 में 11 हज़ार किलोमीटर की ‘भारत यात्रा’ की जो यौन अपराधों के लिए सख़्त क़ानून के निर्माण में उत्प्रेरक बनी. बाल मज़दूरी और दुर्व्यापार रोकने के लिए भारत और दक्षिण एशियाई देशों में कई मार्च आयोजित किए.
ग़ुलामी और बाल मज़दूरी से मुक्त कराए गए बच्चों के पुनर्वास, शिक्षा और नेतृत्व निर्माण के लिए मुक्ति आश्रम, बाल आश्रम और बालिका आश्रमों की स्थापना की.
मानवता के प्रति उल्लेखनीय योगदानों के लिए उन्हें ‘नोबेल शान्ति पुरस्कार’ (2014), ‘डिफ़ेंडर्स ऑफ़ डेमोक्रेसी अवॉर्ड’, ‘मेडल ऑफ़ इटैलियन सीनेट’, ‘रॉबर्ट एफ़. कैनेडी ह्यूमन राइट्स अवॉर्ड’, ‘हार्वर्ड ह्यूमैनिटेरियन अवॉर्ड’ आदि कई पुरस्कार और सम्मान प्रदान किए जा चुके हैं. कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें पी-एच.डी. की मानद उपाधि देकर सम्मानित किया है.
उनकी आधा दर्ज़न से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं.
(विज्ञप्ति)
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