मेज़ॉक | देर तक गूँजती एक बेचैन पुकार
बरेली | ‘मेज़ॉक’ कहानियों का ऐसा कोलाज है, जिसमें प्रकृति है, प्रेम है, ज़िंदगी की नैसर्गिक सहजता और उन्मुक्तता और ख़्वाहिशें हैं, महानगरीय ज़िंदगी की चुंबकीय चकाचौंध और उसकी भूलभुलैया है, रोज़गार के सवाल हैं और व्यवस्था के मकड़जाल भी, सैलानियों को खींचते पहाड़ हैं, और पहाड़ से गए लोगों की बाट जोहती मद्धिम पुकार है, मगर जिसकी अनुगूँज देखने वालों को अपने अंदर सुनाई देने लगती हैं, न जाने कहाँ-कहाँ से टकराकर बार-बार लौटती हुई. देखने वाले ख़ुद भी उन कहानियों में दाख़िल हो जाते हैं, और कितनी ही जगह ख़ुद को बैठा हुआ, दौड़ता हुआ, फुसफुसाता हुआ, सपने देखता हुआ या चीख़ता हुआ पाते हैं.
विंडरमेयर आर्ट्स की ओर से शनिवार की शाम को विंडरमेयर थिएटर में ज्योति डोगरा के नए नाटक ‘मेज़ॉक’ का मंचन हुआ. जो लोग उनके काम और काम के तरीक़े से वाक़िफ़ हैं, वे जानते हैं कि ज्योति के नाटकों में कथ्य और कहन ही सबसे महत्वपूर्ण होता है, लगभग अनुपस्थित प्रॉपर्टी और न्यूनतम संगीत बल्कि मामूली ध्वनियों के बीच दर्शकों का तादात्म्य सिर्फ़ मंच के अभिनेताओं से होता है, उनकी काया और भंगिमाएं ही कहानी कहती जाती हैं और देखने-सुनने वाले बिंधे रह जाते हैं. हाँ, उनकी कहन का ढंग पूरे समर्पण की माँग करता है, कई बार इशारों में तो कई बार अमूर्त ढंग से वह जो कहती हैं, उसे महसूस करने के लिए एकाग्रता और चौकस बने रहने के सिवाय और विकल्प नहीं. मसलन मेज़ॉक में मंच पर सिर्फ़ एक मेज़ है, जो अलग-अलग कहानियों में किरदार की तरह भी पेश आती है.
हिंदी और अंग्रेजी के साथ ही कन्नड़, गढ़वाली, लद्दाखी और सिरमौरी ज़बान में बुनी गई ये कहानियाँ एकरेखीय ब्योरों की तरतीब के बजाय भावनात्मक रूप से बेचैन करने वाले तमाम प्रसंगों से ऐसा आख्यान रचती हैं, जिनसे हमारी पहचान तो है मगर जिनको हम भूल बैठे हैं.
मंच पर कितने ही दृश्य हैं, जो हमारे पूर्व अनुभवों से जुड़ जाते हैं, हमारी स्मृतियों को पोंछ कर आईना बना देते हैं. एक दृश्य है, जो कायाओं और प्रकाश के संयोजन से जो छवि रचता है, वह झट से गाज़ा पट्टी से आई तस्वीर की उस फ़लस्तीनी महिला इनास अबू ममार की याद दिला देती है, जो पाँच साल की भतीजी की देह को गोद में भींचे हुए सिर झुकाए ख़ामोशी से सुबक रही थीं. लालफ़ीताशाही और संख्याएं, लंच और अर्ज़ियों के साथ इंसानों की दौड़ बिरले ही किसी के लिए अनजानी हो सकती है.
मेज़ॉक ज्योति डोगरा ने लिखा और निर्देशित किया है. इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में वह लिखती हैं – मेज़ॉक की शुरुआत छह अभिनेताओं, एक मैनेजर, एक ख़ूबसूरत रिहर्सल स्पेस और एक भूलभुलैया (एक मेज़) से हुई. बिना किसी पाठ और बिना किसी विचार के, तब तक हम यह तय नहीं कर पाए थे कि हम क्या करेंगे, किस रास्ते जाएंगे, और फिर कुछ ही हफ़्तों में हमने ख़ुद को एक पहाड़ पर पाया.
एक पहाड़ जहाँ बर्फ़ गिरती है
एक पहाड़ जो आपको देखने से पहले आपको देख लेता है
एक पहाड़ जिसे कोई अपने भीतर समेटे रहता है
एक इच्छा का पहाड़ और एक इच्छा जो पहाड़ को हिला देती है.
अपनी एक पोस्ट में उन्होंने लिखा कि यह पहला मौक़ा है, जब उन्होंने दूसरों के लिए लिखा और निर्देशित किया है. ‘और अगर मेरे अभिनेताओं और मैनेजर की हिम्मत, दृढ़ता और ख़ुद को निडरता से इस काम में समर्पित करने का भरोसा न होता, तो मेज़ॉक नहीं होता.’
मेज़ॉक का एक और शो कल यानी 15 दिसम्बर को शाम छह बजे विंडरमेयर थिएटर में होगा.
फ़ोटो | सिद्धार्थ रावल
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