निर्मला जैन | स्त्री-विमर्श ख़ारिज करने वाली पहली आलोचक

नई दिल्ली | हिन्दी आलोचना की परंपरा को नई दृष्टि और वैचारिक दृढ़ता देने वाली विदुषी डॉ. निर्मला जैन का साहित्य, संस्कृति और शिक्षा में अप्रतिम योगदान रहा है. वे उस आलोचना परंपरा की प्रतिनिधि थीं, जो केवल प्रशंसा नहीं, विवेक के आधार पर मूल्यांकन करती है. अपनी बेबाक, स्पष्ट दृष्टि और अनुशासन के लिए प्रसिद्ध डॉ. जैन ने दिल्ली विश्वविद्यालय में चार दशकों से अधिक का अकादमिक जीवन बिताया. वह अपनी अकादमिक और प्रशासनिक उपलब्धियों के लिए जितना प्रसिद्ध थीं, उतनी ही अपने प्रेमभाव और खुलेपन के लिए भी पहचानी जाती थीं. वह दिल्ली की प्रतिनिधि शख़्सियत थीं. उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक ‘ज़माने में हम’ और संस्मरणात्मक कृति ‘दिल्ली:शहर-दर-शहर’ न सिर्फ़ उनके अनुभवों का दस्तावेज़ हैं, बल्कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की दिल्ली और साहित्यिक परिवेश का भी जीवंत चित्रण करती हैं.
बुधवार की शाम को साहित्य अकादेमी सभागार में डॉ. निर्मला जैन को याद करते हुए एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया. आयोजन राजकमल प्रकाशन और हंस मासिक पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में हुआ. इस मौक़े पर अनेक साहित्यकारों, शिक्षकों और चिन्तकों ने डॉ. जैन को एक ऐसी विदुषी के रूप में याद किया, जिन्होंने अपने साहित्यिक और अध्यापकीय जीवन में साहस, सादगी और स्वायत्तता का आदर्श प्रस्तुत किया.
स्मृति-सभा में अब्दुल बिस्मिल्लाह, दिविक रमेश, पुरुषोत्तम अग्रवाल, प्रेम सिंह, रामेश्वर राय, संजय जैन, विभास वर्मा, अशोक महेश्वरी समेत अनेक साहित्यकारों और विद्वानों ने निर्मला जैन को याद करते हुए अपने वक्तव्य दिए. सभा का संचालन प्रो.संजीव कुमार ने किया.
सभा की शुरुआत करते हुए प्रो. संजीव कुमार ने पहलगाम में हुए वीभत्स हत्याकांड पर शोक व्यक्त किया. डॉ. निर्मला जैन को याद करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ.जैन ने भारतीय काव्यशास्त्र से लेकर पाश्चात्य काव्यशास्त्र तक, प्राचीन से अर्वाचीन साहित्य तक, कविता से लेकर कहानी, आलोचना और अनुवाद तक हिन्दी आलोचना में उल्लेखनीय काम किया. उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन को प्रमुखता दी. उनके व्यक्तित्व और भाषा में ग़ज़ब का आत्मनियंत्रण था. उनकी उपस्थिति स्टीरियोटाइप को तोड़ती थी. दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि वह दक्ष प्रशासक भी हैं.
हंस पत्रिका के संपादक संजय सहाय ने कहा, ‘मेरा निर्मला जी से परिचय 1994 में राजेन्द्र यादव की मार्फ़त हुआ था. धीरे-धीरे उनके साथ रोज़ का उठना बैठना शुरु हुआ. उनका आतिथ्य अद्भुत था. उनके जैसा प्रेमभाव और खुलापन अब किसी से भी मिलना मुश्किल है. उनके साथ बैठकी के पल मेरे जीवन का अविस्मरणीय हिस्सा है. निर्मला जी को भुला पाना असंभव है. कहने को इतना कुछ है कि उनकी यादों में जितने ग़ोते लगाएँ उतना कम है.’
प्रोफ़ेसर रामेश्वर राय ने कहा, निर्मला जैन मेरी गुरु, संरक्षिका और मेरी पहचान थीं. वे आकाशधर्मा धरती थी. वे अकेले ऐसी थी जो बग़ैर किसी संगठन की बैशाखी के न केवल खड़ी हुई बल्कि उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनायी. उन्होंने कभी किसी ढाँचे में ढलने की कोशिश नहीं की. वो पहली आलोचक और विदुषी थी, जिन्होंने स्त्री-विमर्श को सिरे से ख़ारिज किया. उनको जानना समय, विचार और विवेक को जानना है.
प्रेम सिंह ने कहा, निर्मला जी दिल्ली विश्वविद्यालय में दिल्ली की प्रतिनिधि शख़्सियत थी. वे दिल्ली में पैदा हुई, यहीं पढ़ीं और यहीं पर उन्होंने अध्यापन किया. उनकी किताब ‘शहर-दर-शहर’ दिल्ली का इतिहास भी है. उनका दायरा अत्यन्त व्यापक था. हिन्दी आलोचना हमेशा विचारधारा-उन्मुख रही है, बहस केन्द्रित भी; लेकिन निर्मला जी इस माहौल में भी अकादमिक बनीं रहीं. उन्होंने इच्छा व्यक्त करते हुए कहा, ‘एक शिक्षक, एक प्रशासक और एक लेखक के रूप में उनके योगदान को रेखांकित करते हुए यदि एक स्मृति पुस्तिका तैयार की जाए तो मेरी नज़र में यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जेएनयू में पहली बार निर्मला जैन को सुनने का प्रसंग सुनाते हुए कहा कि मैं उस समय निर्मला जी को नहीं जानता था, मुझे लगा कि महादेवी वर्मा बोल रहीं हैं. उनकी वाणी में ऐसा ओज था, जो उन्हें प्रचलित स्त्री-दायरे से इतर ‘पौरुष’ पूर्ण बनाता था. वो किसी भी मसले-विषय को हल्के में नहीं लेती थी, वे हर विषय पर गंभीरतापूर्वक सोचतीं, बोलतीं और लिखतीं थीं. असहमति का साहस और असहमति का विवेक दोनों गुण निर्मला जैन में थे. उनकी आत्मकथा में साहित्य पर केन्द्रित भाग पर मेरी कुछ आपत्तियाँ और असहमतियाँ थी. मैंने इस पर कुछ लिख दिया और वह किसी पत्रिका में छप गया. लेकिन फिर मुझे डर लगा कि कहीं वो इसे पढ़कर नाराज़ तो नहीं हो जाएँगी. लेकिन उसके बाद जब वे मुझसे मिलीं तो वैसे ही सहज, सरल और सौम्य स्वभाव के साथ. वह ममता की मूर्ति और स्नेहमयी थीं.
विभास वर्मा ने कहा कि निर्मला जी को दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की ‘प्रतापी’ विभागाध्यक्ष के रूप में जाना जाता था, और वे सचमुच प्रतापी थीं. उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वो ग़लत बात के लिए किसी को भी डाँट सकतीं थी. वे अपने लेखन में और जीवन में हमेशा स्पष्टवादी और बेबाक रहीं. मैंने कक्षा से ज़्यादा कक्षा के बाहर उनके व्यक्तित्व से सीखा.
दिविक रमेश ने कहा, निर्मला जैन ऐसी अनुशासनप्रिय विदुषी थी जो ग़लत बात से किसी भी सूरत में समझौता नहीं करतीं थीं. उन्होंने मेरे विवाह के मौक़े पर मुझे उपहारस्वरूप पुस्तक दी. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि विवाह पर पुस्तक देने का चलन तो आज भी नहीं है. उनकी दी हुई वह किताब अभी तक मेरे पास सुरक्षित है. मैं उन कुछ चुनिंदा लोगों में से हूँ जिन पर उन्होंने लेख लिखा. मेरी इच्छा है कि उनकी फ़ाइलों में जो लेख और टिप्पणियाँ हैं उन्हें संकलित करके एक पुस्तक के रूप में संग्रहित किया जाए.
प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा, निर्मला जी की अकादमिक तैयारी बहुत गहरी थी. बतौर आलोचक उनकी महत्ता इस बात में थी कि उन्होंने आलोचना को छात्रोन्मुखी बनाया. वो प्रोफ़ेसर होते हुए आलोचक थीं और आलोचक होते हुए प्रोफ़ेसर. उनसे हमने ये सीखा कि अश्लीलता के सामने दृढ़ता के साथ कैसे खड़े हों. एक प्रोफ़ेसर, एक प्रशासक, एक स्कॉलर के तौर पर वे हिन्दी के दुर्लभ आलोचकों में से थी.
वीर भारत तलवार ने कहा, निर्मला जी स्त्रीवाद वग़ैरह नहीं मानती थीं. वे दबंग थीं—उन्हें यह मंज़ूर नहीं था कि स्त्री होने के नाते उन्हें जाना जाए. वे अपनी प्रतिभा और क्षमता पर भरोसा करतीं थीं. एक शिक्षक के रुप में वे अपने विद्यार्थियों के भविष्य के लिए बहुत सोचती थीं. वे अपने विद्यार्थियों के साथ दुराव-छिपाव या दूरी जैसी नहीं रखतीं थी.
इस मौके पर संजय जैन ने कहा, साहित्य से मेरा केवल यही नाता है कि मैं निर्मला जी का बेटा हूँ. उनका बेटा होने के नाते मेरा बचपन से उनकी साहित्यिक मित्र मंडली के बीच में बीता. हमारे घर पर अक्सर बैठकी होती थी. मेरे पिता के निधन के बाद मुझे उन बैठकों के मेज़बान बनने का सौभाग्य मिला. आलोचना निर्मला जी का पैशन थी. वह सहज रूप से आलोचक थी. वे बड़े निर्भय और निष्पक्ष भाव से सबकी आलोचना करती थी.
राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा, ‘निर्मला जी का स्नेह मुझे तभी से मिलना शुरू हो गया था, जब मैं अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत कर रहा था. उस समय मेरे पास गिनाने के लिए कोई उपलब्धि नहीं थी. लेकिन आरंभ से ही उनका स्नेह मुझे भरपूर मिला. शुरुआत में उनसे खड़े-खड़े ही बात होती. बैठने में डर भी लगता था. मैं अपनी कुछ भी छोटी-सी बात कहकर जल्दी से निकल जाता था. धीरे-धीरे वे बैठने के लिए कहने लगीं. जिस दिन बैठने और बात करने का अवसर मिलता, मेरी खुशी का ठिकाना न रहता. उनका परामर्श आदेश होता था. हमेशा व्यावहारिक और सटीक. उनका स्नेह और आशीर्वाद मुझ पर हमेशा बना रहा. मुझे उन्होंने बहुत से संकटों से उबारा. जीवन में आई यह कमी कभी पूरी नहीं हो सकेगी. मैं जानता हूँ.’
(विज्ञप्ति)
कवर | डॉ. निर्मला जैन की श्रद्धांजलि सभा में प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल, अशोक महेश्वरी और वीर भारत तलवार.
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