लेखक विचारक हो गया तो दूसरों की नहीं, अपनी ही कहेगा : शिवमूर्ति
नई दिल्ली | लेखक विचारक नहीं हो सकता. अगर वह विचारक हो गया तो दूसरों की न सुनेगा, न कहेगा, वह अपनी ही कहेगा. लेखक जैसा होता है, उसका कुछ अक्स उसके पात्रों में दिख ही जाता है. मेरा मानना है कि ख़ुद को आदमी बनाने की जो गति पहले थी, वह मंद हुई है. अब वह विपरीत दिशा में जा रही है. पहले लगता था कि आदमी आदमी बन रहा है, लेकिन अब यह लगने लगा है कि आदमी को आदमी बने रहने में ही मुश्किलात बढ़ गई हैं.
समकालीन हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि कथाकार शिवमूर्ति ने यह बातें अपने रचनाकर्म पर हुई बातचीत के दौरान कही. यथार्थवादी आँचलिक कहानियों के लिए पहचाने जाने वाले शिवमूर्ति अपने जीवन के 75वें वर्ष में हैं. उनकी रचनाएँ भारतीय ग्रामीण समाज के उस हिस्से का सच बयान करती हैं, जो बदलते समय में उपेक्षित होते हुए भी देश की आत्मा को जीवित रखे हुए है.
इसी रचनात्मक विरासत का उत्सव मनाने के लिए राजकमल प्रकाशन ने 31 अक्टूबर की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (एनेक्सी) में ख़ास कार्यक्रम ‘उपलक्ष्य–75’ का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में इतिहासकार व संपादक रविकांत और कथाकार चन्दन पाण्डेय ने शिवमूर्ति से उनके रचनाकर्म पर संवाद किया, वहीं दिलीप गुप्ता के निर्देशन में साइक्लोरामा नाट्य समूह के कलाकार गौरव कुमार, अन्नुप्रिया और तुषार ने ‘अगम बहै दरियाव’ और ‘केशर कस्तूरी’ के अंशों की संगीतमय पाठ-प्रस्तुति दी. कार्यक्रम का संचालन तसनीफ़ हैदर ने किया.
बातचीत के दौरान शिवमूर्ति ने कहा, केवल कल्पना के बूते पर आप उतना चटक किरदार नहीं खड़ा कर सकते. मैं अपने आसपास जो देखता-सुनता हूँ, उन्हीं कहानियों को लिखता हूँ. मेरी रचनाओं में जितने भी पात्र आए हैं, उनसे मैं कभी न कभी मिला हूँ. उन्होंने बताया कि इन दिनों वे आत्मकथात्मक लेखन कर रहे हैं, जिसे पाठक उनकी अगली किताब के रूप में पढ़ पाएँगे.
लेखन प्रक्रिया से जुड़े सवाल पर शिवमूर्ति ने कहा, लेखन कैसे होता है यह बता पाना बहुत मुश्किल है. रचना-प्रक्रिया हर किसी की अलग होती है. अलग-अलग जगहों, घटनाओं और अनुभवों से जो कुछ भी मन में संचित होता जाता है, वही आगे चलकर रचना का रूप लेता है. जब मैं लिखने बैठता हूँ, तो दिमाग़ अपने आप ही उन देखी-सुनी चीज़ों को जोड़ने लगता है. मुझे जहाँ से जो अनुभव मिलता है, उसे मैं अपने ‘कबाड़खाने’ में डालता जाता हूँ, और जब उन्हें जोड़ता हूँ तो वह रचना बन जाती है. मेरी भूमिका बस इतना भर है कि मैं उन तत्वों को जोड़ दूँ, जो पहले से प्रकृति ने दे रखे हैं.
उन्होंने कहा कि मैं जब लिखता हूँ तो केवल कहानी और उसकी पठनीयता पर ध्यान देता हूँ, मेरी कोशिश रहती है कि उसकी व्यावहारिकता बनी रहे.
- कथाकार शिवमूर्ति का अभिनंदन करते राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी.
रविकांत ने कहा कि शिवमूर्ति की कोई भी रचना ऐसी नहीं होती जिसमें लोकरंग न आए. उनकी हर कहानी अपने समय और समाज की गंध लिए होती है. वहीं चन्दन पाण्डेय ने कहा कि शिवमूर्ति ने वास्तविक जीवन से उठाए गए पात्रों को इतना सजीव रूप दिया कि वे हमारे समाज की सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन गए. उनका साहित्य संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता के द्वंद्व को सबसे प्रभावशाली ढंग से उजागर करता है. जीवन की कठिन सचाइयों को उन्होंने जिस सहजता और करुणा के साथ रूपायित किया, वही उन्हें अपने समय के सबसे मानवीय लेखक बनाता है.
इससे पहले, स्वागत वक्तव्य में राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने कहा, शिवमूर्ति हिन्दी के उन विरले रचनाकारों में हैं, जिनकी हर रचना वास्तविक पात्रों के इर्द-गिर्द बुनी हुई होती है. ग्रामीण जीवन का इतना सटीक और सजीव चित्रण समकालीन लेखकों में कम ही दिखाई पड़ता है. कोई पाठक जब इनकी रचनाओं को पढ़ता है तो बहुत दिनों तक उस पर कहानी का असर बना रहता है.
यह आयोजन राजकमल प्रकाशन की विशेष कार्यक्रम शृंखला ‘उपलक्ष्य 75’ की दूसरी कड़ी है. यह उन प्रतिष्ठित लेखकों को समर्पित है जो इस वर्ष अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं. ऐसे अनेक लेखक जिनके साहित्यिक अवदान से हिन्दी समाज भलीभाँति परिचित है, यह आयोजन शृंखला उनकी रचनात्मक यात्रा को रेखांकित करने का प्रयास है.
(विज्ञप्ति)
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