राजकमल का स्त्री वर्ष | नौ उपन्यास एक साथ जारी

  • 10:15 pm
  • 4 December 2025

नई दिल्ली | राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से बुधवार की शाम को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘हिन्दी उपन्यास का स्त्री वर्ष: भेंट, पाठ, चर्चा’ का आयोजन किया. समकालीन हिन्दी उपन्यासों में स्त्री-स्वर, स्त्री-अनुभव और रचनात्मक विस्तार को रेखांकित करने के उद्देश्य से आयोजित इस कार्यक्रम में राजकमल प्रकाशन से छपे नौ उपन्यास लेखकों को भेंट किए गए, उनके चुनिंदा अंशों की पाठ-प्रस्तुतियाँ भी हुईं.

इस मौक़े पर अनामिका, जया जादवानी, वन्दना राग, प्रत्यक्षा, सुजाता, सविता भार्गव और शोभा लिम्बू ने अपनी कृतियों की कथावस्तु से परिचय कराया. गीतांजलि श्री और अलका सरावगी ने वीडियो संदेशों के ज़रिये अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कथाकार मृदुला गर्ग और संचालन सुदीप्ति ने किया. तृप्ति जौहरी, अन्नु प्रिया, डॉ.शुचिता, प्रियंका शर्मा और रैना तँवर आदि रंगकर्मियों ने सभी नौ उपन्यासों से चुने हुए अंशों का पाठ किया.

कार्यक्रम की प्रस्तावना रखते हुए सुदीप्ति ने कहा, यह आयोजन केवल नौ समकालीन स्त्री रचनाकारों के उपन्यासों पर केंद्रित एक सामान्य साहित्यिक बातचीत नहीं, बल्कि हिन्दी लोकवृत के एक ऐतिहासिक क्षण का उत्सव है. यह उस यात्रा का सम्मान है, जिसमें एक सदी से अधिक लंबे संघर्ष के बाद स्त्री-स्वर ने साहित्य में अपनी सम्पूर्णता और अपनी वैचारिक स्वतंत्रता स्थापित की है.

कहा, आज का समय इस बात का प्रमाण है कि स्त्री रचनाकार अब किसी एक श्रेणी, किसी एक लेबल, या किसी नारे के भीतर सीमित नहीं हैं; उनकी रचनाशीलता अपने पूरे वैचारिक और सौंदर्यात्मक विस्तार के साथ उपस्थित है. इन उपन्यासों को पढ़ते हुए साफ़ होता है कि समकालीन स्त्री रचनाकार इतिहास, समाज और अपने समय की जटिलताओं को नई दृष्टि से पुनर्परिभाषित कर रही हैं. वे केवल स्त्री के हिस्से की दुनिया नहीं लिख रहीं, बल्कि स्त्री-नज़र से इस पूरे संसार का पुन: सृजन कर रही हैं.

यह मंच एक शुरुआत भी है और एक महत्वपूर्ण संकेत भी: मृदुला गर्ग
अध्यक्षीय वक्तव्य में सभी रचनाकारों को बधाई देते हुए मृदुला गर्ग ने कहा, यह आयोजन मेरे लिए यह एक ‘नवरस आयोजन’ है क्योंकि नौ स्त्री उपन्यासकारों ने अपने-अपने रस में डूबकर जो रचनाएँ प्रस्तुत की हैं, वे मानवीय अनुभवों का अद्भुत विस्तार दिखाती हैं. मैं मानती हूँ कि उपन्यास भोगे हुए यथार्थ का नहीं, भुगते हुए यथार्थ से लिखा जाता है क्योंकि जो यथार्थ आप भुगतते हैं, ज़रूरी नहीं है वह जैविक रूप से भुगतें—आप उसे आत्मिक रूप से, मानसिक रूप से, भावात्मक रूप से भुगतते हैं, उसी को आप लिखते हैं. कोई भी यथार्थ बिना कल्पना, दृष्टि और इच्छा के पूरा नहीं होता. जैसे ही लेखक कलम उठाता है, उसका अपना सच, उसका अपना नज़रिया उसमें आ जाता है. किसी समाज के सच को केवल कुछ रचनाओं से नहीं समझा जा सकता, उसके लिए सैकड़ों उपन्यास पढ़ने पड़ते हैं. नौ स्त्री रचनाकारों का यह मंच एक शुरुआत भी है और एक महत्वपूर्ण संकेत भी.

उन्होंने कहा, मेरे लिए स्त्री होना कोई निर्मित पहचान नहीं है. हम सब जन्म से स्त्री या पुरुष होते हैं; समाज केवल हमारे ऊपर अपनी अपेक्षाएँ थोपता है. इन नौ लेखिकाओं ने जन्म से स्त्री होते हुए भी अपने को लेखक के रूप में गढ़ा है और उसी रूप में वे सबसे अधिक सम्मान की पात्र हैं. इन्होंने अपनी रचनात्मकता से हिन्दी उपन्यास का संसार समृद्ध किया है.

संवाद का कोई विकल्प नहीं होता: अनामिका
अपने उपन्यास ‘दूर देश के परिन्दे’ की कथावस्तु से परिचय कराते हुए अनामिका ने कहा, संवादहीनता ही संघर्ष का मूल कारण बनती है; विश्व युद्धों के साहित्य और अनुभवों ने मुझे यह सिखाया कि हर संस्कृति और हर व्यक्ति में कुछ ऐसा अवश्य होता है, जिससे प्रेम और समझ के सूत्र खोजे जा सकते हैं. संवाद का कोई विकल्प नहीं होता. मेरे लिए जानना ही मानना है. किसी भी चेहरे को आप एक कोण से अवश्य ही सुंदर देख सकते हैं और यही बात मनुष्यता के लिए भी लागू होती है. पहचान और संवाद जितना गहरा होगा, नफ़रत की संभावना उतनी ही कम होगी.

रोज़मर्रा के जीवन का मर्म पकड़ता है गीतांजलि श्री का नया उपन्यास—‘सह-सा’
गीतांजलि श्री ने रिकॉर्डेड वक्तव्य में अपने नए उपन्यास ‘सह-सा’ की रचना प्रक्रिया पर के बारे में बताते हुए कहा, मैंने एक रोज़मर्रा की साधारण-सी कहानी लिखनी चाही थी. वही रोज़मर्रा जिसमें हिंसा भी सामान्य हो जाती है और उसकी काट भोथरी. जीवन और मनुष्य की नियति के मर्म बड़े नाटकीय प्रसंगों में नहीं, छोटे-छोटे अकस्मात टकरावों में चमकते हैं. इस कहानी का परिवार, इसके संवाद, इसके दुख सब हमारे आज के समय को कहने लगते हैं. मैंने जीवन को लिखना चाहा, उसने खुद मौत, विछोह, पछतावा, प्रेम की तलब और हमारे सीमित होते देखने-सुनने को ला खड़ा किया. यह उपन्यास रोज़मर्रा की नींद में उतरती उन छोटी-छोटी टकराहटों का लेखा है, जो अनजाने हमारी मानसिकता और तौर-तरीकों को बदल देती हैं. धीरे-धीरे ढर्रा ही हमारा सत्य बन जाता है और हमें पता भी नहीं चलता कि कब तर्क और इरादे बदल गए. इन्हीं मामूली-सी लगने वाली दरारों से अस्तित्व, समाज, राजनीति की गूँज निकलती है और एक निजी कथा अपनी हदें लांघकर आज के सामाजिक स्वरूप का बयान बन जाती है. इस उपन्यास में जवाब नहीं, जीवन का मर्म है.

तनाव और साथ की मिश्रित दुनिया से बना है अलका सरावगी का नया उपन्यास
अलका सरावगी ने अपने रिकॉर्डेड वक्तव्य में बताया, कलकत्ता हमेशा कॉस्मोपॉलिटन शहर माना गया है—एक ऐसा महानगर जहाँ संस्कृतियाँ, भाषाएँ और धर्म एक साथ मौजूद होते हैं, पर कई बार एक-दूसरे से दूरी भी बनाए रखते हैं. इसी तनाव और साथ की मिश्रित दुनिया से यह उपन्यास जन्म लेता है. कहानी एक बंगाली हिन्दू युवक सुनील बोस और एक हिन्दी भाषी मुस्लिम लड़की दीबा के प्रेम से शुरू होती है—एक ऐसा प्रेम, जिसकी वजह से सुनील अपनी पहचान बदलने और मोहम्मद दानियाल के रूप में नई ज़िंदगी शुरू करने को मजबूर होता है. रिश्तों, विश्वास, शक और सामाजिक दबावों के बीच उनकी दुनिया जैसे टूटती और फिर बनती है, उसी दरार से उपन्यास का भाव निकलता है. इस उपन्यास में कलकत्ता अपने असल रंगों में है—सड़कों पर काम करने वाले लोग, छोटे कारोबार, इलाकों की विविध संस्कृति और वह जीवन जो इस शहर को धड़कन देता है. उन्होंने कहा, आज जब दुनिया कई तरह की बाइनरी में बँटती जा रही है, यह उपन्यास याद दिलाता है कि सबसे पहले हम इंसान हैं और शायद यही नज़र सबसे ज़रूरी है.

विस्थापन की विरासत और तीन पीढ़ियों के संघर्ष से जन्मी एक स्त्री-कथा
सुजाता ने अपने उपन्यास ‘दरयागंज वाया बाज़ार फ़त्ते खाँ’ से परिचय कराते हुए बताया कि उनका बचपन दिल्ली के भोगल-जंगपुरा के रिफ्यूजी मोहल्लों में बीता, जहाँ उनका परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान से आकर बसा था. उन्होंने कहा, बचपन में मैं बार-बार पूछती थीं कि हमारा गांव कहाँ है लेकिन माता-पिता इस प्रश्न से बचते रहे. पिता ने विभाजन के बाद पाकिस्तान से आने की बात तो बताई, पर इसे छिपाने की हिदायत भी दी. मुझे अपने सारे सवालों के जवाब नानी से मिले और उनके साथ में मिली आंखों-देखी त्रासदी, किस्से, तहज़ीब, भाषा और विरासत ने मेरे भीतर उपन्यास का बीज बोया. 2018 में पिता के निधन के समय ‘पाकिस्तान से आए लोगों’ के अलग क्रियाकर्म का ज़िक्र मेरे लिए बड़ा झटका था और उसी ने तीन पीढ़ियों की इस कहानी को लिखने की दिशा दी. बहावलपुर से दिल्ली, मुंबई और कश्मीर तक की वह यात्रा, जिसमें नीनू जैसी स्त्रियों का संघर्ष, मेहनत और नए घर-परिवार बसाने की कोशिशें दर्ज हैं. उन्होंने कहा कि यह सिर्फ उनके परिवार की नहीं, बल्कि उन बहुत-सी औरतों और लोगों की कहानी है जिन्होंने टूटते-बिखरते हुए भी इस देश को बनाया.

पुराने मूल्यों और नए दौर की सोच के बीच जूझते परिवार की कहानी है—‘सरकफंदा’
वन्दना राग ने अपने उपन्यास ‘सरकफंदा’ की कहानी से परिचय कराते हुए कहा, आज का समय हम सबको अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है—किसी को खुशी, किसी को दुख, और किसी को बहुत गुस्सा. उसी गुस्से और बेचैनी के बीच यह उपन्यास जन्मा. साथियों ने मुझे समकालीन समय पर लिखने की सलाह दी और जब लिखना शुरु किया तो एक मां, पिता और बेटी की छोटी-सी कहानी मन में थी. लाजवंती नाम की मां, जो आज़ादी के समय पैदा हुई, अपने सपने पूरे करना चाहती है, लेकिन उसका परिवार उसे राजनीति की ओर धकेलना चाहता है; दूसरी ओर उसका पति गांधीवादी होते हुए भी युद्ध में शामिल हो जाता है, जिससे उनके रिश्ते में लगातार टकराव रहता है. उनकी बेटी नए समय की आवाज़ है, जो अपने माता-पिता के मूल्य आज की दुनिया—मीडिया, व्हाट्सऐप और नए माहौल में अप्रासंगिक पाती है. यह कहानी मूल्यों की टकराहट, हमारे आज के असंतोष और बदलाव की चाहत को सामने लाती है.

विस्थापन, स्मृतियों और बिछड़े प्रेम की तलाश की कहानी
जया जादवानी ने अपने उपन्यास ‘इस शहर में इक शहर था’ की कहानी के बारे में बताते हुए कहा, एक किताब छपने से पहले कई साल तक हमारे भीतर आकार लेती रहती है. हम इसे लिखने की जद्दोजहद से गुजरते हैं, कई बार सेल्फ डाउट का सामना करते हैं. कभी लगता है हम लिख पाएंगे, कई बार लगता है नहीं. इसी तरह जूझते हुए ही मुझे यह कहानी मिली. यह एक ऐसे नायक की कहानी है जो 10 साल की उम्र में विभाजन के समय सिंध से हिंदुस्तान आया था. कई वर्षों की मेहनत और संघर्ष के बाद वह बड़ा आदमी बनता है और 32 साल बाद अपने बचपन के शहर और यादों की तलाश में वापस लौटता है. वह पुराने दोस्तों और अपने पहले प्रेम को ढूंढने की कोशिश करता है. यह कहानी विस्थापन, खोई हुई पहचान, बदलते समय और पुराने प्रेम की खोज की भावुक यात्रा को उजागर करती है. साथ ही उन्होंने बताया कि हिन्दी में आने से पहले यह उपन्यास सिंधी और उर्दू में प्रकाशित हो चुका है.

घर वही होता है जहाँ से आपको निकलने का मन न करे: प्रत्यक्षा
प्रत्यक्षा ने अपने वक्तव्य में कहा, आज नौ स्त्री कथाकारों की किताबें हमारे सामने हैं. ये केवल स्त्री या पुरुष दृष्टि तक सीमित नहीं हैं, बल्कि एक संपूर्ण मानव दृष्टि को दर्शाती हैं. मुझे खुशी है कि मेरी किताब भी इस शृंखला में शामिल है. मेरे उपन्यास ‘शीशाघर’ की शुरुआत कश्मीर की बर्फ़बारी में हुई. उसी समय मेरे किरदार मेरे पास आए और अपनी कहानी बताने लगे. कहानी का हीरो इक़बाल कुरैशी है जो 1971 के युद्ध का एयरफोर्स पायलट था. इसके साथ लिली बार्टन, हीरा मंडी की तवायफ बिलकिस बानो, लौरी बेगम, हेनरी भवन और अलकनंदा जैसे पात्र जुड़े. यह कहानी मुसलमान, हिंदू और आयरिश एंग्लो-इंडियन तीन परिवारों और लगभग 200 सालों के समय को समेटती है. उपन्यास आजादी, विभाजन, विस्थापन और पीढ़ियों पर पड़े प्रभाव की पड़ताल करता है. मुझे यह उपन्यास लिखते हुए महसूस हुआ कि घर वही होता है जहाँ से आपको निकलने का मन न करें और यही लालसा इस कहानी का मूल है.

यह स्त्रियों की आवाज़ों का निर्भीक होकर सामने आने का समय है: शोभा लिम्बू
शोभा लिम्बू ने अपने उपन्यास ‘शुकमाया हांङमा’ पर वक्तव्य में कहा, इतने साहित्यप्रेमी साथियों के बीच होना मेरे लिए अत्यंत हर्ष का विषय है. मैं उत्तर-पूर्व के कालीतलाई से आई हूँ, जहाँ हिन्दी हमारे संवाद की भाषा नहीं है और हिन्दी में रचनाकार भी बहुत कम हैं; ऐसे में मेरे उपन्यास को हिन्दी साहित्य-जगत में स्थान देना केवल मेरा नहीं, मेरे पूरे क्षेत्र का सम्मान है. स्त्री-वर्ष के रूप में यह पहल सचमुच प्रशंसनीय है, क्योंकि अब समय आ गया है कि सदियों से दबाई गई स्त्रियों की आवाजें निर्भीक होकर सामने आएँ. मेरी नानी मेरे उपन्यास की नायिका है जो उन अदम्य स्त्रियों में से थीं, जिन्होंने बर्मा युद्ध, विस्थापन, संताप, खोए हुए संबंधों और अनकहे दुखों के बीच भी अपने कर्म, मेहनत और आत्मनिर्भरता से जीवन को नए सिरे से खड़ा किया. यह उपन्यास किसी कल्पना पर नहीं, बल्कि एक स्वाभिमानी, संघर्षशील महिला की सच्ची कथा पर आधारित है. मेरा मानना है कि स्त्री को अपनी पहचान निर्मित करने के लिए मेहनत और आत्मनिर्भरता अनिवार्य है. मेरा उपन्यास भी यही संदेश देता है.

आने वाले वर्षों में नई कथा-प्रतिभाएँ स्वतंत्रता के नए आकाश रचेंगी: सविता भार्गव
सविता भार्गव ने अपने उपन्यास का परिचय देते हुए कहा, यह उपन्यास पिछड़े परिवेश की उन स्त्रियों का जीवन उभारता है, जो महान हस्तियाँ नहीं, पर नए सरोकारों की ओर बढ़ने की तीव्र छटपटाहट से भरी हैं. मेरे लेखन की प्रेरणा महाभारत की वे स्त्रियाँ रही हैं, जो आदर्श नहीं, वास्तविक चेतना की स्त्रियाँ हैं; कालिदास की नहीं, बल्कि महाभारत के उपाख्यानों वाली शकुंतला मेरे भीतर अधिक सक्रिय रही—जो अपने शब्दों से चेतना को झकझोर देती है और आधुनिक स्त्रियों को स्मृतियों, दबावों और कुहासों से मुक्त होने का साहस देती है. 21वीं सदी एक ओर संवैधानिक दरवाज़े खोलती है तो दूसरी ओर सनातन व्यवस्था की जटिल छायाएँ चुनौती देती हैं. हमारी नागरिकता, हमारी तर्कसम्मत भूमिका, हमारे रिश्ते और हमारी संभावनाएँ लगातार हमें उन चौराहों पर लाती हैं जहाँ निर्णय हमें ही लेने होते हैं. अपने लेखन में मैं इन्हीं प्रश्नों से जूझती रही हूँ. मेरे लिए महत्त्वपूर्ण वह सार्थकता है जिसे मैंने अपने भीतर अनुभव किया. मुझे विश्वास है कि आने वाले वर्षों में नई कथा-प्रतिभाएँ अपनी-अपनी स्वतंत्रता के नए आकाश रचेंगी—जहाँ स्त्री अपनी पूर्ण सत्ता और आत्मविश्वास के साथ खड़ी होगी और इस शताब्दी को अपनी पहचान देगी.

स्त्री-लेखन के बहुरंगी विस्तार को रेखांकित करने का प्रयास
इससे पहले, राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने स्वागत वक्तव्य दिया और उपस्थित लेखकों को उनके उपन्यास भेंट किए. उन्होंने कहा, यह आयोजन समकालीन हिन्दी साहित्य में स्त्री-लेखन के बहुरंगी विस्तार और उसकी विविधतापूर्ण व्यापकता की उपलब्धि को रेखांकित करने का प्रयास है. हिन्दी में शायद यह पहला अवसर होगा, जब एक ही वर्ष में इतने स्त्री कथाकारों के उपन्यास एक साथ आए हों. यह हम सबकी साझा ख़ुशी का अवसर है.

श्री महेश्वरी ने कहा, यह बात पहले भी कही गई है कि हिन्दी में इस समय जितनी स्त्री रचनाकार सक्रिय हैं, उतनी पहले कभी नहीं थीं. युवतम से लेकर वरिष्ठतम तक. वे समय के सीने पर जो कुछ दर्ज कर रही हैं, वह ‘स्व’ तक सीमित नहीं है, वह सर्वस्व को समेट रहा है. इस रचनात्मक उत्कर्ष का, इस विस्तार का और इस व्यापकता का स्वागत करने के उद्देश्य से ही हमने मौजूदा बनती हुई सदी को ‘स्त्री सदी’ कहा. इसी क्रम में, हमने 2025-2026 को हिन्दी उपन्यास के ‘स्त्री वर्ष’ के रूप में मनाने का निर्णय किया.

राजकमल प्रकाशन के कार्यकारी निदेशक आमोद महेश्वरी ने सभी लेखकों, उपस्थित साहित्यप्रेमियों और साझीदार संस्थानों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया.

(विज्ञप्ति)


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