सभा | पाठक की मंशा लेखक के लिखे पर भरोसे की
नई दिल्ली | पढ़ना भी एक कला है. लिखे हुए को समझने के लिए एक नज़र होना ज़रूरी है. अगर आप ज़िंदगी की नब्ज़ को अपने लेखन में ला पा रहे हैं तो आपका लिखा हुआ बहुत पढ़ा जाएगा. लेकिन हिन्दी का लेखक समाज पाठक की चाहना से बहुत डरा हुआ है. वर्तमान हालात को देखते हुए लेखक के लिए उसका उद्देश्य स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है कि वह अपने लेखन के ज़रिए समाज को क्या देना चाहता है. इसलिए हमारी प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने लेखन की तरफ़ होनी चाहिए. एक लेखक को इस बात से नहीं डरना चाहिए कि वह जो लिख रहा है, पाठक समाज उसे किस तरह से देखेगा या स्वीकार करेगा या नहीं. ये बातें शुक्रवार को राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक श्रृंखला ‘सभा’ की पांचवी कड़ी में ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ विषय पर हुई परिचर्चा का सार हैं.
इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर सभागार में हुई इस परिचर्चा में कथाकार-नाटककार हृषीकेश सुलभ, लेखक-पत्रकार गीताश्री, इतिहासविद् अशोक कुमार पांडेय और सम्पादक-आलोचक अविनाश मिश्र वक्ता रहे. विषय-प्रवर्तन नवीन चौधरी ने किया.
सभा की शुरुआत में राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने विषय का परिचय देते हुए पिछले दस सालों में सर्वाधिक पसन्द की गई किताबों के बारे में बताया. इसके बाद विश्व पुस्तक मेला के दौरान पाठकों की पसन्द को समझने के लिए राजकमल प्रकाशन की ओर से किए गए सर्वेक्षण के आँकड़े प्रस्तुत किए गए.
छपी हुई किताबें 74 फ़ीसदी पाठकों की पहली पसन्द
इस सर्वेक्षण में कुल 4528 पाठक शामिल हुए, जिसमें ज्यादातर युवा थे. महिला पाठकों की संख्या 40 फ़ीसदी से अधिक रही. 74 फ़ीसदी पाठकों ने छपी हुई किताबों को अपनी पहली पसन्द बताया. 39 फ़ीसदी पाठकों ने कथेतर विधा और 37 फ़ीसदी पाठकों ने कथा-साहित्य को पहली पसन्द बताया. किताबों के चयन से जुड़े सवाल पर 36 फ़ीसदी पाठकों ने विषय के आधार पर और 28 फ़ीसदी पाठकों ने लेखक के नाम के आधार पर किताब चुनने को अपनी प्राथमिकता बताया.
इसी तरह किताबें खरीदने के लिए 34 फ़ीसदी पाठकों ने सबसे सुविधाजनक माध्यम पुस्तक मेलों को, 31 फ़ीसदी पाठकों ने बुक स्टोर और 29 फ़ीसदी पाठकों ने ऑनलाइन माध्यमों को बताया. इससे पता चलता है कि ऑनलाइन माध्यमों के प्रचार-प्रसार के बावजूद ज्यादातर पाठक किताबों को सामने से देखकर, उन्हें छूकर ही ख़रीदना पसन्द करते हैं. सर्वे में शामिल पाठकों में से 42 फ़ीसदी ने नई किताबों की जानकारी मिलने का माध्यम सोशल मीडिया को बताया है.
लेखक समाज से नाराज़ हैं बहुतेरे पाठक
‘सभा’ के सूत्रधार नवीन चौधरी ने किताबों को लेकर वैश्विक स्तर पर वर्तमान के रुझान बताते हुए कहा कि इस समय दुनिया भर में कथेतर विधा की किताबें सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही हैं. उसके बाद धर्म और अध्यात्म, साइंस फ़िक्शन, रोमांटिक फ़िक्शन और सच्ची घटनाओं पर आधारित किताबों की मांग सबसे ज्यादा है.
विषय प्रवेश करते हुए उन्होंने कहा, “जब मैंने इस विषय पर चर्चा के लिए पाठकों से उनकी पसन्द के बारे में पूछा कि तो कई रोचक बातें मालूम हुईं. मुझे यह भी महसूस हुआ कि बहुत से पाठक लेखक समाज से नाराज़ है. ऐसा क्यों है यह हमें समझने की ज़रूरत है.”
पाठक की चाहना से डरे हुए हैं लेखक
पहले वक्ता अशोक कुमार पांडेय ने कहा, “हिन्दी का लेखक समाज पाठक की चाहना से बहुत डरा हुआ है. कोई भी लेखक यह नहीं जानता कि उसका पाठक वास्तव में उससे क्या चाहता है! लेखन एक यात्रा है, जो लेखक और पाठक दोनों को मिलाकर पूरी होती है. मुझे लगता है कि शायद पाठक लेखक से सिर्फ़ इतना चाहता है कि लेखक जो लिखे उस पर वह भरोसा कर सके. यह हर तरह के पाठक की बुनियादी ज़रूरत होती है.”
उन्होंने कहा, “हिन्दी का लेखक अपने आप को ज़रूरत से ज्यादा अभिजात समझने लगा है लेकिन वास्तव में वह ज़रूरत से ज्यादा पिछड़ा हुआ है. उसे लगता है कि मैं ही महान हूँ और मैं जो लिखता हूँ उसे केवल महान लोग ही समझ सकते हैं. इस तरह से वह ख़ुद को सीमित कर रहा होता है. ऐसे में उसका लिखा हुआ भी समाज के किसी काम का नहीं होता.”
बक़ौल अशोक कुमार पांडेय, “पुस्तक मेलों में हम देखते हैं कि कई लोग केवल तभी किताबें ख़रीदते हैं, जब लेखक वहाँ मौजूद होता है और उसे लेखक के साथ सेल्फ़ी लेनी होती है, उसे लेखक से ऑटोग्राफ़ लेना होता है. ऐसे लोग पाठक नहीं होते. पाठक वह होता है, जिसे लेखक की मौजूदगी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. उसे जो पढ़ना होता है, वही ख़रीदता है और आगे बढ़ जाता है.”
बदल गई है पाठक की परिभाषा
अविनाश मिश्र ने कहा, “पिछले कुछ वर्षों में ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया और ई-बुक्स के आने से पाठक की परिभाषा बहुत बदली है. अब उसे रीडर नहीं बल्कि एक यूज़र की तरह देखा जाता है क्योंकि इन प्लेटफ़ॉर्म्स पर जो लोग आते हैं, वे सब पाठक नहीं होते. इसी तरह किताब ख़रीदने वाले सारे लोग भी पाठक नहीं होते. बहुत से लोग अब किताबें इसलिए भी ख़रीदते हैं ताकि वह दिखा सकें कि उनके घरों में किताबें हैं. लेकिन मैं इसे उम्मीद भरी नज़र से देखता हूँ कि वह यूज़र कभी रीडर में भी बदलेगा.”
लेखक के लिए स्पष्ट उद्देश्य ज़रूरी
गीताश्री ने कहा, “कोई लेखक क्या लिख रहा है, यह पाठक तय नहीं कर सकता. जब लेखक कुछ लिख रहा होता है तो उसके सामने कोई नहीं होता, उस समय कोई दबाव उस पर नहीं होना चाहिए. उन्होंने मन्नू भंडारी को उद्धरित करते हुए कहा कि एक पाठक की भूमिका तब शुरू होती है, जब किताब उसके हाथ में आ जाती है.”
कहा, “एक लेखकीय स्वायत्तता होती है, जिसकी मैं हिमायती हूँ. हमारी प्रतिबद्धता सबसे पहले अपने लेखन की तरफ़ है और उसी तरफ़ होनी चाहिए. हम देखते हैं कि आजकल राजनीति हर चीज पर हावी है. बच्चे भी राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय हैं. वह बड़े होने का इंतज़ार ही नहीं करना चाहते. ऐसे में लेखक के लिए उसका उद्देश्य स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है कि वह अपने लेखन के ज़रिए समाज को क्या देना चाहता है?”
साहित्यिक मूल्य बाज़ार तय नहीं कर सकता
पाठक की पसन्द पर बात करते हुए हृषीकेश सुलभ ने कहा, “दुनिया में पाठक इतनी तरह के हैं कि पाठक की पसन्द को सही-सही जान पाना और जानकर लिख लेना सम्भव नहीं है. लेकिन यह बातचीत बहुत ज़रूरी है क्योंकि इसके ज़रिए हम अपना मूल्यांकन कर सकते हैं. लेकिन मेरा संकट यह है कि पाठक क्या नहीं चाहता है? पाठक नहीं चाहता है कि लेखक बहुत ज्यादा बोलें. पाठक चाहता है कि वह आपके लेखन में कुछ देखे तो उसे लगे कि वह ऐसा पहली बार देख रहा है. आपके लिखे में अगर चन्द्रमा का ज़िक्र आता है तो पाठक को लगे कि जैसे वह चन्द्रमा को पहली बार देख रहा है. वह यह सोचे कि इसे ऐसे भी देखा जा सकता है. अगर यह विश्वसनीयता लेखक अपने पाठक के साथ अर्जित करता है तो वह पाठक की चाहना को पूरा करता है और वही पढ़ा जाता है.”
उन्होंने कहा कि जिस तरह लेखन, वैसे ही पढ़ना भी एक कला है. कोई लेखक कितना पढ़ा जाता है या उसकी किताबें कितनी बिकती हैं, यह सब साहित्य की गुणवत्ता पर निर्भर नहीं करता. बाज़ार के आँकड़े साहित्यिक मूल्यों को तय नहीं कर सकते. अगर आप ज़िंदगी की नब्ज़ को अपने लेखन में ला पा रहे हैं तो आपका लिखा हुआ बहुत पढ़ा जाएगा.
(विज्ञप्ति)
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