युद्ध के विरुद्ध | एक कार्यशाला का खरा क़िस्सा

  • 10:20 pm
  • 7 April 2022

जबलपुर | क़रीब दस दिनों की थिएटर वर्कशॉप के दौरान तैयार हुए नाटक ‘युद्ध के विरुद्ध’ का मंचन नौ अप्रैल की शाम को शहीद स्मारक पर होगा. नृत्यांजलि कथक केंद्र और महाकौशल शहीद स्मारक ट्रस्ट की ओर से आयोजित इस नाटक में बर्तोल्त ब्रेख़्त, साहिर लुधियानवी, वीरेन डंगवाल, दिनकर कुमार, अच्युतानंद मिश्र, हनुमंत किशोर, ऊषा दशोरा, विवेक चतुर्वेदी और विहाग वैभव की कविताएं और धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ का एक अंश भी शामिल है.

भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ पर आधारित नाटक ‘खारू का खरा किस्सा’ देखने के बाद इसके निर्देशक प्रवीण शेखर को कुछ क़रीब से जानने की इच्छा हर दर्शक में स्वभावतः उठती है. ज़रूरी नहीं कि उनसे व्यक्तिगत परिचय या निकटता हो. यह नाटक जबलपुर में और भी कई दर्शकों को ख़ूब पसंद आया था. सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञानरंजन जी को भी. वे इस नाटक को नागपुर में मंचित होते हुए देखना चाह रहे थे. बहरहाल, प्रवीण जी को कुछ निकट से जानने और उनके हुनर को इस्तेमाल कर लेने की इच्छा तभी से थी.

डॉ.शैली धोपे जबलपुर में कथक नृत्य केंद्र का संचालन करती हैं. उन बच्चों को ख़ास तौर पर बड़े मन से सिखाती हैं, जो किन्हीं कारणों से अन्य बच्चों को हासिल सहूलियत से वंचित रह जाते हैं. थिएटर भी करती हैं. हाल ही में उन्होंने भानु भारती लिखित नाटक ‘नाचनी’ का मंचन भी किया था. डॉ. शैली से जब घरेलू कामकाजी महिलाओं और ऐसी बच्चियों के साथ थिएटर वर्कशॉप की बात चली, जो थिएटर से लगभग अनजान हैं; तो जेहन में सबसे पहले प्रवीण शेखर का ही नाम उभरा. वह दबी इच्छा भी जागृत हो गई, जो उन्हें नज़दीक से जानना चाह रही थी.

क़ायदे से इस तरह की कार्यशाला में ‘प्रोडक्शन’ का दबाव नहीं होना चाहिए. बहुत सारी चीज़ें जो जाननी-सीखनी चाहिए, प्रस्तुति के तनाव में छूट जाती हैं. हालाँकि कार्यशाला के प्रतिभागी ही नैसर्गिक रूप से यह चाहते हैं कि वे ‘ज़माने’ को दिखा दें कि ‘हाँ! हम भी कुछ कर सकते हैं!’ यह जज़्बा होना भी चाहिए यह बात मायने नहीं रखती कि प्रस्तुति की गुणवत्ता क्या है? इतने कम समय में किसी तरह तैयार की गई प्रस्तुति को इस कसौटी पर आँकना भी नहीं चाहिए. महत्वपूर्ण यह है कि इस काम के लिए बिल्कुल घरेलू कामकाजी महिलाएँ सामने आईं, जिनमें से कुछ ने इससे पहले नाटक खेलना तो दूर, नाटक देखा भी नहीं. एक प्रतिभागी को तो सिर्फ़ अपनी बच्ची को छोड़ने आना था, पर वे पूर्वाभ्यास से इतनी प्रभावित हुईं कि ख़ुद भी कार्यशाला में शामिल हो गईं.

कथाकार ज्ञानरंजन और चित्रकार अवधेश वाजपेई.

बात सिर्फ इतनी-सी नहीं है कि किसी कार्यशाला का आयोजन हो रहा है या कोई नाटक खेला जाना है. यह जबलपुर और इलाहाबाद; दो शहरों के कलाकारों का संगम भी है. एक अनौपचारिक मुलाक़ात में ज्ञान जी देर तक प्रवीण शेखर से बतियाते रहे. आयोजन का आमंत्रण चित्रकार अवधेश बाजपेई ने अपने हाथों से तैयार किया है, जो कलाओं के हलके में मशीनी दख़ल के विरुद्ध हैं और ‘जैविक पेंटिंग’ की अवधारणा पर काम करते हैं. किताबों पर चर्चा भी है.

हास्य-व्यंग्य के अपने क़िस्म के अनूठे और मौलिक कलाकार के.के.नायकर भी इस आयोजन में जुड़ रहे हैं. थोड़ी देर के लिए ‘त्रिलोक सिंह पुस्तकालय’ के भाई अजय यादव भी आ जुड़ते हैं जो आज के ज़माने में लोगों को किताबों के लिए घर-पहुँच सेवा दे रहे हैं. भाई विवेक पांडेय “विवेचना” के बेहद संजीदा निर्देशक हैं और यहाँ रोशनी की व्यवस्था देख रहे हैं. आवाज़ों का ज़िम्मा शुभम अर्पित ने लिया है, जिन्होंने ‘नाचनी’ का निर्देशन किया था. इतनी तरह की कलाओं और कलाकारों का आपस में जुड़ने का कोई बहाना ही अपने-आप में बेहद सुखद है.

कार्यशाला के सहयोगी निर्देशक वही भास्कर हैं जो ‘खारू का खरा किस्सा’ में खारू की भूमिका में अपना जलवा दिखा चुके हैं. शहर में चर्चा उनके अनूठे केश-विन्यास की भी है.

फ़ोटो | प्रवीण शेखर

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