अमरीक सिंह | जुझारू पत्रकार और ज़िंदादिल इंसान
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जनपक्षधर, जुझारू पत्रकार और हिंदी-उर्दू-पंजाबी अदब के शैदाई अमरीक सिंह नहीं रहे. पिछले शनिवार को देर रात पटियाला के राजिंदरा अस्पताल में उन्होंने आख़िरी सांस ली. उनके दोस्तों को भी यह ख़बर देर से ही मिल पाई. बड़ी ही ख़ामोशी से उन्होंने इस दुनिया से अपनी रुख़्सती ले ली. उन सभी के लिए, जो उनके लेखन को पढ़ते-पसंद करते थे और जिन्होंने कभी उनके साथ काम किया था, यह बेहद दिल दुखाने वाली ख़बर है.
पिछले चार सालों से कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे थे. कई मर्तबा उन्हें लगता कि वह अपनी याददाश्त भी खो बैठेंगे. बड़े-बड़े डॉक्टरों ने भी जब उम्मीद छोड़ दी तब भी अपनी जिजीविषा और जीवट के बूते वह तकलीफ़ों से जूझते रहे. उन्हें अपनी बीमारी की गंभीरता का अहसास ज़रूर था मगर उन्होंने कभी इस बात का अहसास होने नहीं दिया. उनकी ज़िंदादिली उनके दोस्तों को क़ायल कर देती. जब कभी बात होती तो अपने काम के बारे में तो बताते ही, क्या पढ़ रहे हैं, इस पर भी ज़रूर बात करते.
हमारे कई साझा दोस्त थे, तो हमारी बातचीत में उनका ज़िक्र आता ही, मकरोनिया के आरपी सिंह साहब और अमेठी के मेज़र साहब उनमें शामिल हैं. अमरीक भाई के फ़ोन आने का मतलब ही कम से कम घंटे भर की बतकही होता. वह हमेशा लंबी बात किया करते. मुझे ख़ान भाई कहते थे. दरअसल, हमारी दोस्ती की इब्तिदा ही लंबी बातचीत से हुई थी. साल 2016 में जब मेरी किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ आई तो उसे पढ़कर पहली बार उन्होंने मुझे फ़ोन किया था. तक़रीबन पौन घंटे बात की और आख़िर में ताक़ीद की, ”जब भी पंजाब आएं, तो मुझसे ज़रूर मिलें और मेरे लायक़ कोई भी काम हो, तो बेझिझक बतलाएं.”
इस बातचीत के तक़रीबन तीन-साढ़े तीन साल बाद उनसे दोबारा राब्ता क़ायम हुआ. एक बार फिर उनसे बातचीत शुरू हुई, उनमें पुराना जोश-ओ-ख़रोश औैर ज़िंदादिली सलामत मिली. उन दिनों वे एक साथ कई वेबसाइट और न्यूज़ पोर्टल मसलन ‘नेशनल हेराल्ड, ‘नवजीवन’, ‘सत्य हिंदी’, ‘जनचौक’ और ‘संवाद’ आदि से जुड़े हुए थे, बाद में ‘न्यूजक्लिक’ से भी. उस वक़्त उनकी सक्रियता का हाल यह था कि इन वेबसाइट्स पर एक दिन में उनकी दो या तीन रिपोर्ट्स छपतीं. सियासत की गहरी समझ, भाषा की रवानी और लिखने की ग़ज़ब की फ़ुर्ती उनकी ख़ूबी थी. अपने काम से वह अक्सर हैरान करते. दिल्ली से लेकर हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर तक जहाँ भी कोई बड़ी सियासी-समाजी घटना होती, वह विशेष टिप्पणी लिखते. लॉकडाउन के दिनों में उन्होंने तमाम न्यूज़ स्टोरी, रिपोर्ट और मज़दूरों के पलायन पर दिल दहला देनेवाले रिपोर्ताज लिखे. वह देश के उन थोड़े से पत्रकारों में शामिल रहे, जिन्होंने किसान आंदोलन पर सबसे पहले क़लम चलाई. किसानों का आंदोलन जब चरम पर था, तब वह बेहद बीमार थे. बीमारी के हाल में वे छटपटाते रहते और अक्सर बेबसी के साथ यह कहते, ”आज जब काम करने की बेहद ज़रूरत है, तब बीमार हूँ और कुछ कर नहीं पा रहा हूँ!”
वह बेहद बेख़ौफ़, हिम्मती और अपने विचारों से किसी तरह का समझौता न करने वाले पत्रकार थे. साम्प्रदायिकता, धार्मिक संकीर्णता और कट्टरता के दुश्मन. यहाँ तक कि पंजाब में जब भी साम्प्रदायिक ताक़तें सर उठातीं, अमरीक उनके ख़िलाफ़ दमदारी से लिखते. अमरीक ने कोई साढ़े तीन दशक तक पत्रकारिता की. आग़ाज़ फ्रीलांस जर्नलिस्ट के तौर पर हुआ. बीच-बीच में उन्होंने ‘अमर उजाला’ और ‘दैनिक जागरण’ के जालंधर संस्करण में नौकरी की, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के लिए भी काम किया. ‘द संडे मेल’ के वह विशेष प्रतिनिधि रहे. ‘जनसत्ता’ के लिए भी उन्होंने लिखा. लेकिन आज़ाद ख़यालात और आज़ाद तबीयत हमेशा उनके काम के आड़े आयी, लिहाज़ा किसी बंधन में नहीं बंधे. और वापस फ्रीलांस जर्नलिज़्म की ओर आ जाते. यहीं उन्हें सुकून मिलता.
बाद में तो वह पूरी तरह से न्यूज़ वेबसाइट्स के लिए ही काम करने लगे थे. बीते एक दशक में प्रिंट पत्रकारिता की सूरत जिस तरह बदली है, उसमें यों भी अमरीक जैसे पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं रही थी. मुझसे दोस्ती हुई, तो एक बार फिर वह अख़बारों में भी लेख भेजने लगे. और मैं उन वेबसाइट में लिखने लगा, जिसमें वह लिखते थे.
अमरीक को हिंदी, उर्दू और पंजाबी अदब से एक जैसी मुहब्बत और उनके जानिब जुनून की हद तक दीवानगी थी. पिछले चार साल उन्होंने गंभीर बीमारियों को झेलते हुए गुज़ारे, लेकिन जब भी बात होती, किताबों और पत्रिकाओं का ज़िक्र ज़रूर आता. बीमारी में कुछ अरसा लिखना छूटा, पर पढ़ना उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. हिंदी, पंजाबी और अंग्रेज़ी ज़बान के आधा दर्जन से ज़्यादा अख़बार अमरीक के घर आते थे. जिन्हें वह नियमित पढ़ते. बीमारी के दिनों में भी उनके सिरहाने किताबें होतीं. एक मर्तबा उन्होंने मुझे अपने घर की तस्वीर भेजी, उसमें चारों तरफ़ अलमारियों में किताबें सजी हुई थीं. और उनसे घिरे वह इत्मीनान से कोई किताब पढ़ रहे थे.
अमरीक जितने संवेदनशील और संजीदा पत्रकार थे, ज़ाती ज़िंदगी में उतने ही मज़ाक़िया और हँसमुख इंसान थे. कभी-कभी वे बच्चों जैसी शरारतें करते और ये बातें साझा करके वह ख़ूब मज़ा लेते. ऊपर जिन साझा दोस्तों का ज़िक्र आया है, उनकी शख़्सियत की अलग-अलग ख़ूबियाँ हैं. आरपी सिंह साहब नई-नई किताबें पढ़ने के शौक़ीन और उन पर चर्चा करने वाले हैं, तो मेजर साहब को लतीफ़े सुनाने का शौक़ है. मेजर साहब ‘जनसंदेश टाइम्स’ सिर्फ़ इसलिए ख़रीदते हैं कि उसमें लेख के साथ-साथ लेखकों के मोबाइल नंबर भी होते हैं. मेज़र साहब लेख पढ़ते हैं, नहीं मालूम! मगर लेखकों को फ़ोन ज़रूर करते हैं. मुख़्तसर-सी बातचीत के बाद, सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं.
और उनका असल मुद्दा, अपने लतीफ़े सुनाना होता है. लतीफ़े सुनाकर, उनकी रैकिंग क्या है, वह इसका इसरार भी करते है. बहरहाल, अख़बार में अमरीक का लेख छपा, तो आये दिन उन्हें मेज़र साहब के चुटकुले सुनने होते. अपना दुखड़ा अमरीक ने मुझे सुनाया. मैंने उन्हें बताया, ”मैं ख़ुद भुक्तभोगी हूँ, लेकिन अब इसकी आदत पड़ गई है.” अमरीक को शरारत सूझी और उन्होंने मेज़र साहब को आरपी सिंह साहब का फ़ोन नंबर यह कहकर दे दिया कि ”यह मेरे चाचाजी हैं और इनको लतीफ़े सुनने का बेहद शौक़ है.” यह जानने के बाद मेज़र साहब अपने काम पर लग गए. आरपी सिंह साहब ने एक-दो रोज़ तो बड़े धैर्य से उनके चुटकुले सुने, फिर बदले में उन्होंने जो चुटकुले सुनाने शुरू तो मेज़र साहब बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा सके. यह बात अमरीक ने जब मुझे बताई, तो हम दोनों हॅंस-हॅंसकर लोटपोट हो गए.
पिछले दो-तीन महीने से अमरीक से कोई बातचीत नहीं हुई, न ही कोई व्हाट्सएप मैसेज़ आया. तबीयत के बारे में कहीं से कोई ख़बर नहीं मिल रही थी. यहाँ तक कि आरपी सिंह साहब को भी मालूम नहीं था क्योंकि अमरीक ने फ़ोन उठाना बंद कर दिया था. मेरी अमरीक से जो आख़िरी लंबी बातचीत हुई, वह लोकसभा चुनाव से पहले की है. उस बातचीत में अमरीक एकदम जज़्बाती हो गया. इतना कि वह फूट-फूटकर रोने लगा. और रोते हुए उसके अल्फ़ाज़ थे, ”ख़ान भाई! यह देश अब रहने लायक़ नहीं बचा. चुनाव के बाद अगर मुल्क का निज़ाम नहीं बदला, तो यह मुल्क छोड़ दूँगा!” मैंने दिलासा देते हुए समझाया, ”नाउम्मीद होने की कोई ज़रूरत नहीं. हालात ज़रूर बदलेंगे.” मगर वह उस वक़्त बेहद नाउम्मीद था. पहली मर्तबा मैंने उसे इतना ग़मगीन और परेशान देखा था. चुनाव के नतीजे आए, अमरीक से मेरी बात नहीं हुई.
आठ अक्टूबर को सिंह साहब से बात हुई, तो दस मिनट बाद यकायक बोले, ”अमरीक चला गया!” मैं जैसे नींद से जागा और कहा, ”क्या?” वह फिर बोले, ”मुझे कल ख़बर मिली कि उसकी मौत हो गई.” ज़ाहिर है कि इसके बाद, उनसे बात करने में मेरा दिल नहीं लगा. और मैंने फ़ोन काट दिया. दूसरे दिन देश निर्मोही साहब ने जब पोस्ट लगाई, तो इस ख़बर की तस्दीक़ हो गई. अविश्वास की कोई वजह नहीं बची थी. अब जब अमरीक के बारे में लिखने बैठा हूँ तो मेरे ज़ेहन में उसके वही आख़िरी अल्फ़ाज़ गूँज रहे हैं, “ख़ान भाई ! मैं यह देश छोड़ दूँगा.” और मेरा दिल रोते हुए कह रहा है, ”तुम देश छोड़ने का कह रहे थे, दोस्त! ये क्या किया, तुमने तो दुनिया ही छोड़ दी….”
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