मिल्खा सिंह | अधूरे ख़्वाब और एक चूक से बनी महान शख़्सियत

मिल्खा सिंह प्रेरणा देने वाले नायक की तरह जिये, पर उनकी ज़िंदगी विंडबनाओं और विरोधाभासों की मिसाल भी है. रोम ओलंपिक में वह सेकेंड के सौवें हिस्से से इतिहास बनाने से चूक गए. हालांकि बाद में वह इस चूक के लिए याद किए गए और मिथक सरीखे हो गए.

एथलेटिक्स में तीन तरह की स्पर्धाएं होती हैं – दौड़, फेंक और कूद. फेंक और कूद में एक-एक स्पर्धी अपना परफ़ॉर्मेंस करता है. लेकिन दौड़ में प्रतिभागी एक साथ परफ़ॉर्म करते हैं और इसीलिए दौड़ एथलेटिक्स की सबसे रोमांचकारी प्रतिस्पर्धा होती है.

यूं तो 100 मीटर दौड़ को ‘दौड़ों की रानी’ कहा जाता है पर सबसे ख़ूबसूरत दौड़ 400 मीटर की ही होती है. दरअसल इसमें स्प्रिंट रेसों की गति और लंबी रेसों की लय दोनों एक साथ होती हैं. एथलेटिक्स की इस सबसे ख़ूबसूरत रेस के भारत का सबसे बड़े साधक मिल्खा सिंह जीवन की रेस पूरी करके अनंत यात्रा पर निकल गए.

हर शख़्स का जीवन विडंबनाओं से भरा होता है. तो मिल्खा सिंह इसका अपवाद कैसे हो सकते है. भारतीय एथलेटिक्स के दो सबसे बड़े सितारे – पुरुषों में मिल्खा सिंह और महिलाओं में पी.टी. उषा हैं. और ये दोनों ही अपनी उपलब्धि के लिए नहीं बल्कि उस उपलब्धि को पाने से चूक जाने के लिए जाने जाते हैं.

सन् 1960 के रोम ओलंपिक से पहले वे प्रसिद्ध हो चुके थे और 1958 में कार्डिफ़ राष्ट्रमंडल खेलों में उस समय के विश्व रिकॉर्ड धारक दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेंस को हराकर स्वर्ण पदक जीत चुके थे. वे संभावित पदक विजेता थे. पर होनी को जो मंज़ूर हो.

रोम ओलंपिक में उस रेस में पहले चार धावकों लेविस, कॉफ़मैन, स्पेन्स और मिल्खा सिंह ने 45.9 सेकंड का ओलंपिक रिकॉर्ड तोड़ दिया. लेविस और कॉफ़मैन ने 44.9 सेकंड का समय लिया. पर फ़ोटो फ़िनिश में कॉफ़मैन को दूसरा स्थान मिला, स्पेन्स को 45.5 के साथ कांस्य पदक मिला. मिल्खा सिंह 45.73 के समय के साथ चौथे स्थान पर रह गए.

यह राष्ट्रीय रिकॉर्ड था, जिसे अगले 40 वर्षों तक बने रहना था. सन् 1998 में परमजीत सिंह ने इसे तोड़ा. मिल्खा सिंह सेकेंड के सौवें हिस्से से इतिहास बनाने से चूक गए. शायद यह नियति थी. वे आगे इस चूक के लिए याद किए गए और मिथक सरीखे हो गए.

ठीक वैसे ही जैसे पी.टी.उषा सन् 1984 के लॉस एंजिलिस ओलंपिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में राष्ट्रमंडल रिकॉर्ड तोड़ कर भी सेकेंड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक चूक गई थीं और इस चूक से ही आगे जानी गईं और प्रसिद्धी पाई.

विडम्बनाएं और भी थीं. मिल्खा सिंह का जीवन विडंबनाओं और विरोधाभासों भरा था. सन् 1929 में वह शहर मुज़्ज़फरगढ़ (अब पाकिस्तान में) के गोविंदपुरा में जन्मे थे. सन् 1947 में विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान छोड़ना पड़ा. बंटवारे के दौरान हिंसा में उनके परिवार के सदस्यों को मार दिया गया.

जीवन की एक दौड़ ने उनसे उनका घर परिवार और देस छीना और फिर एक दौड़ ने उन्हें प्रसिद्धि की बुलन्दी पर पहुंचाया. कमाल यह कि जीवन से निराश होकर वह डकैत बनना चाहते थे, पर सेना में भर्ती हो गए.

वे पाकिस्तान से भागे थे. बहुतेरी कटु स्मृतियां उनके ज़ेहन में थीं. सन् 1960 में रोम ओलंपिक से पहले उन्हें पाकिस्तान में दौड़ने का निमंत्रण मिला. वहां के लोग चाहते थे कि उनका मुक़ाबला उस समय एशिया के सबसे मशहूर स्प्रिंट धावक पाकिस्तान के अब्दुल ख़ालिक़ से पाकिस्तान में हो. ख़ालिक़ को वे टोक्यो एशियाई खेलों में हरा चुके थे. वह जाना नहीं चाहते थे. पर नेहरू के कहने पर गए.

एक बार फिर पाकिस्तान की धरती पर उन्होंने अब्दुल ख़ालिक़ को हराया. इस रेस में मिल्खा ने अब्दुल ख़ालिक़ को दस क़दमों से पीछे छोड़ा. वह रेस देख रहे पाकिस्तान के जनरल अयूब ख़ान ने उनसे कहा था, ‘तुम दौड़ते नहीं, उड़ते हो.’

मिल्खा को मिली ‘उड़न सिख’ की यह उपाधि ज़िंदगी भर उनके नाम के साथ जुड़ी रही. और यह उपाधि उन्हें उसी धरती पर मिली, जहां वह अपना सब कुछ खोकर आए थे.

सन् 1958 के टोक्यो एशियाई खेलों में उन्होंने दो स्वर्ण पदक जीते. उसके बाद उसी साल कार्डिफ़ राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर के तत्कालीन विश्व रिकॉर्ड होल्डर को हराकर स्वर्ण पदक जीता. इन खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले वह पहले भारतीय एथलीट थे.

रोम ओलंपिक में पदक चूक जाने का मलाल उनको ताउम्र रहा. दरअसल केवल एक पदक चूक जाना भर नहीं था, बल्कि आने वाले समय में भारत के एथलीटों के लिए एक ‘रोल मॉडल’ बनने से चूक जाना था, वो चूक सैकड़ों पदकों का चूक जाना था. उनकी उम्मीद अधूरी रही कि कोई भारतीय एथलीट ओलंपिक में पदक जीत सके.

ज़िंदगी ऐसी ही होती है. वे विरोधाभासों और विडंबनाओं से बनी ज़िन्दगी थे. वह एक अधूरे ख़्वाब और एक चूक से बनी अमरत्व प्राप्त शोहरत थे और अदम्य इच्छा शक्ति, कड़ी मेहनत और एक सैनिक के अनुशासन से बने महान एथलीट थे.

उनकी नेकदिली और मदद के लिए हमेशा आगे-आगे रहने वाले जज़्बे के कितने ही क़िस्से हैं, जिनको कहते-सुनते हम उन्हें हमेशा याद करते रहेंगे. अश्रुपूरित अंतिम सलाम.


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