क्रॉस-कल्चरल फ़िल्मों का ज़माना

  • 12:23 pm
  • 19 April 2022

आरआरआर और केजीएफ-2 जैसे संक्षिप्त अंग्रेज़ी नामों वाली डब्ड दक्षिण भारतीय फ़िल्मों का अखिल भारतीय पैमाने पर हिट होना एक बड़ी परिघटना का हिस्सा है. कोविड के लॉकडॉउन और ओटीटी प्लेटफ़ार्मों के मेल ने दर्शकों के मन के स्तर पर इस परिघटना को जन्म दिया है. इस उभरते हुए क्रॉस-कल्चरलिज्म को ज़रा ब्यौरे में जाकर देखते हैं.

नाइजीरिया और भारत के फ़िल्म उद्योगों के आपसी सहयोग से बनी फ़िल्म ‘नमस्ते वहाला’ में काफ़ी सियापों के बाद नाइजीरियाई हीरोइन की हिंदुस्तानी (पंजाबी) हीरो के साथ शादी का संयोग बनता है. अमेरिका की अंतर्नस्लीय शादियों से बहुत अलग दिखने वाले इस रोमैंटिक ड्रामा के आख़िरी सीन में हीरो की मां हीरोइन के बाप को किनारे ले जाकर दहेज की बातचीत पक्की करने में जुट जाती है.

दहेज लड़के वालों को शादी के एवज में लड़की वालों की तरफ़ से दी जाने वाली धनराशि है, यह जानकारी मिलते ही हीरोइन का बाप भड़क उठता है कि यह तो बिल्कुल उलटी बात हुई. दस्तूर तो यह है कि लड़के वाले एक निश्चित रकम शादी के बदले में लड़की वालों को दें. आख़िरकार लड़की को ही लड़के वालों के घर जाकर रहना है. नुकसान उनका है तो भरपाई भी उन्हीं की होनी चाहिए!

कोविड केमिस्ट्री
कभी आधे तो कभी पूरे लॉकडाउन ने पिछले दो साल में हर किसी की दुनिया को पॉकेट साइज़ बना डाला है, लेकिन थोड़ी सचेत कोशिश से कम से कम दिमागी तौर पर हम इसका आकार बढ़ा सकते हैं. ख़बरों के नाम पर बकवास सुनने और फूहड़ टीवी सीरियल देखने का मोह छोड़ा जा सके तो दुनिया को क़रीब से महसूस करने के लिए ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर क्रॉस-कल्चरल फ़िल्में और वेब सीरीज देखने का इससे अच्छा मौक़ा और कोई हो नहीं सकता. पिछले कुछ महीनों में बिना किसी ठोस जानकारी के मैं ऐसे कई अनुभवों से गुजरा और हर बार ख़ुद को पहले से अधिक समृद्ध महसूस किया.

बड़े पर्दे का दबाव हटते ही ऐसी कितनी चीज़ें निखर आई हैं, जो अन्यथा हमें नज़र ही नहीं आतीं. सबसे पहले तो हमें इस भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए कि हॉलिवुड मूवीज़ में या अपनी मुंबइया फ़िल्मों में दिखने वाली दुनिया के किसी भी कोने की तस्वीरें उस इलाक़े से हमारा रत्ती भर का भी परिचय करा सकती हैं. ये मोनो-कल्चरलिज्म, एक-संस्कृतिवाद का नमूना भर हैं. जब तक सिनेमा दो संस्कृतियों के बीच गहरे संपर्क पर केंद्रित नहीं होता तब तक दर्शक की सोच का ढांचा बड़ा करने में उसकी कोई भूमिका नहीं हो सकती.

‘बीचम हाउस’ वेब सीरीज मैंने बिना यह जाने देखनी शुरू कर दी थी कि यह ‘बेंड इट लाइक बेखम’ वाली गुरिंदर चड्ढा की बनाई हुई है. मेरे आकर्षण की वजह सिर्फ इसका प्रोमो था, जिसमें एक अंग्रेज़ योद्धा राजकुमारी-सी लगती एक भारतीय स्त्री को डकैतों से बचा रहा है. सन 1795 में केंद्रित इस सीरीज़ का अभी सिर्फ़ एक सीज़न आया है, दूसरे का इंतज़ार है और कुछ समीक्षकों को इसमें अंग्रेज़ी राज के प्रति एक नॉस्टैल्जिया के भी दर्शन हुए हैं.

लेकिन व्यक्तियों के जरिये परस्पर संपर्क में आई दो संस्कृतियों की अच्छाई और बुराई, दोनों को अंतरंग ढंग से समझने और समझाने के लिए जिस धीरज की ज़रूरत है वह गुरिंदर चड्ढा के पास है, लिहाजा इसे देखते हुए न सिर्फ एक अच्छी कहानी से गुजरने का आनंद आता है, बल्कि अपने सामाजिक अतीत को लेकर बनी हुई हमारी इकहरी दृष्टि भी कई स्तरों पर टूटती है. ध्यान रहे, इस सीरीज़ का समय वह रखा गया है, जब अंग्रेज़ों की पकड़ भारत पर अभी बन ही रही थी और फ़्रांसीसी भी इसमें बराबर के दावेदार थे.

पाकिस्तान और नॉर्वे
टीनेजर्स के अंतर्द्वंद्वों पर केंद्रित एक सुंदर फिल्म ‘वॉट विल पीपल से’ नॉर्वे और पाकिस्तान की पृष्ठभूमि पर बनी हुई है, हालांकि इसके सारे पाकिस्तानी चरित्र भारतीय अभिनेताओं द्वारा ही निभाए गए हैं. नॉर्वे में रह रहे एक पाकिस्तानी परिवार की प्री-यूनिवर्सिटी क्लास में पढ़ रही लड़की का दिल साथ में बास्केटबॉल की प्रैक्टिस करने वाले नॉर्वेजियन लड़के पर आ जाता है. बाप एक रात दोनों को एक कमरे में साथ ही देख लेता है और भड़क उठता है.

वहां रह रहे पाकिस्तानी समुदाय का सीधा दबाव इस बात पर कि लड़की को या तो अभी के अभी ब्याह दो, या फिर पाकिस्तान भेज दो. लड़की पाकिस्तान के क्वेटा शहर रवाना की जाती है और भयानक अनुभवों से गुजरती है. उर्दू और नॉर्वेजियन के बीच झूलती फ़िल्म की भाषा बिल्कुल नहीं चुभती. कुछ चुभता है तो लड़कियों को लेकर हमारी सभ्यता-संस्कृति का पिछड़ापन.

भारत और पाकिस्तान दो संस्कृतियां नहीं, एक ही संस्कृति के दो संस्करण हैं. लेकिन भारतीय फ़िल्मों में पाकिस्तानी किरदार अब आतंकवादी या कैरिकेचर नुमा अधपगले फौजी बनकर ही आते हैं. इसके उलट पाकिस्तानी पॉपुलर फ़िल्मों में हिंदुस्तानी चरित्रों को लेकर काफ़ी ज्यादा कल्पनाशीलता नज़र आती है. हालांकि उन्हें हद दर्जे का बुरा इंसान दिखाने में वहां भी कोई कोताही नहीं बरती जाती.

हल्की-फुल्की पाकिस्तानी कॉमेडी ‘7 दिन मोहब्बत इन’ में सारे खेल बिगाड़ने वाले काम द्वारिका प्रसाद नाम के एक ‘हैंडसम हंक हिंदुस्तानी जिन्न’ द्वारा ही संपन्न किए जाते हैं. हालांकि फ़िल्म के अंत में इस ख़ुराफ़ाती जिन्न पर हीरो की मां का दिल आ जाता है, जो खुद भी किसी टॉप क्लास चुड़ैल से किसी भी मायने में रत्ती भर कम नहीं है.

वापस वहाला
बहरहाल, क्रॉस-कल्चरल फ़िल्मों पर थोड़ी और बात करने से पहले हम ‘नमस्ते वहाला’ पर वापस लौटते हैं जो अपने ढांचे में एक आम मुंबइया फिल्म जैसी ही लगने के बावजूद कुछ मायनों में एक बिल्कुल नई ज़मीन तोड़ती है. वहाला यानी मुसीबत (ट्रबल). नाइजीरिया अफ़्रीका का ठेठ पश्चिमी देश है. एशिया की तुलना में यूरोप के ज्यादा क़रीब और सांस्कृतिक वैविध्य से लेकर जीवन-स्तर तक में कमोबेश भारत जैसा ही.

वहीं के अटलांटिक तटीय महानगर लागोस में सुबह-सुबह समुद्र किनारे जॉगिंग कर रहा एक जवान हिंदुस्तानी कमर्शियल बैंकर एक समाजसेवी नाइजीरियन लड़की से जा टकराता है और पहली नज़र में ही नस्लों के पार चले गए प्यार के साथ कहानी चल निकलती है. लड़की डीडी नाइजीरिया की एक टॉप नॉच लॉ फ़र्म के मालिक की बेटी है और ख़ुद भी एक धाकड़ वकील है. वकालत की हृदयहीनता डीडी को अपने पिता के रास्ते पर जाने के बजाय औरतों की मदद करने वाले एक एनजीओ से जुड़ने की तरफ़ ले गई है.

वहां एक लड़की को मार-मारकर बुरी तरह घायल कर देने वाले अमीरज़ादे को सजा दिलाने की कोशिश डीडी को अपने बाप के सामने ला खड़ा करती है. लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ी मुसीबत उसके आतुर बैंकर प्रेमी की मां के रूप में डीडी के सिर पर खड़ी है, जिसने अपने बेटे के लिए पैसे वाले एक हिंदुस्तानी ख़ानदान की सुंदर कन्या खोज रखी है और जिसकी नज़र में सारी अफ़्रीकी लड़कियों और खासकर डीडी का स्थान किसी वेश्या जैसा ही है.

एक दिलचस्प घटनाक्रम में दो दूरस्थ सभ्यताओं के सक्षम, समर्थ, उद्दंड और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से एक-दूसरे के प्रति हद दर्जे की असभ्यता बरतने वाले परिवारों की राय कैसे एक-दूसरे को लेकर पलटती है, यही इस फ़िल्म की कथावस्तु है. साथ में इसका सुंदर फ़िल्मांकन और ‘हम दोनों एक ही कपड़े से काटे गए हैं लेकिन एक-दूसरे से बहुत अलग हैं’ जैसे बढ़िया डायलॉग भी मन पर देर तक छपे रहते हैं.

सभ्यता क्या है
याद दिलाना जरूरी है कि भारत में अफ्रीका को लेकर नस्ली पूर्वाग्रह बहुत ज्यादा हैं. ‘हबश’ अबीसीनिया यानी इथियोपिया का पुराना नाम है और उसके निवासी अरबी ज़ुबान में हबशी कहलाते रहे हैं. लेकिन भारत में हब्शी शब्द का इस्तेमाल गाली की तरह ही होता आया है. इस पुराने पूर्वाग्रह को पीछे छोड़ने में सिनेमा अगर कुछ मदद कर सके तो इससे केवल भारत-अफ़्रीका संबंध का ही नहीं, दोनों सभ्यताओं के मनोजगत का भी भला होगा.

हमारी अपनी क्रॉस कल्चरल फ़िल्मों पर बात होती है तो लोगों को मनोज कुमार की ‘पूरब और पश्चिम’ या अक्षय कुमार की ‘नमस्ते लंदन’ याद आती है. लेकिन ‘हम अच्छे हैं और दूसरे बुरे’, इस धारणा की पुष्टि के लिए किसी कलात्मक उपादान की ज़रूरत नहीं होती. मानवजाति विविध रूपों में ऐसे पूर्वाग्रहों को अपने जन्मकाल से ही ढोती आ रही है.

याद करना ही हो तो इसके लिए बहुभाषी फ़िल्म अभिनेत्री रेवती की बनाई शानदार अंग्रेज़ी फ़िल्म ‘मित्र, माई फ्रेंड’ और पिछले ही दशक में आई श्रीदेवी की ‘इंग्लिश विंग्लिश’ याद की जानी चाहिए. आप दूसरी सभ्यताओं के अच्छे पहलू देखने की कोशिश करते हैं तो इस क्रम में आपकी अपनी सभ्यता के भी अच्छे पहलू निखरकर सामने आते हैं. इस क्रम में थोड़ी देर के लिए ही सही, लेकिन सभ्यता के नाम पर हर तरह की असभ्यता की दुकानदारी करने वाले चमकीले सरकारी चर्खे का सुर भी तनिक मद्धिम पड़ने लगता है.

[फ़ेसबुक वॉल से साभार]

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