पलायन की ख़ामोश कहानी कहते हैं घरों पर पड़े ताले
आमतौर पर गांवों में घर पर ताले डालने का रिवाज़ नहीं है. कुंडी लगाने भर से काम चल जाता है ताकि जानवर घर में घुसकर नुकसान न करने पाएं. दरवाज़े पर ताले का एक ही मतलब होता है- लंबी यात्रा. बुंदेलखंड के गांवों में तमाम वर्षों से ताले वाले घर आम हो गए हैं.
ये ताले मीडिया की गढ़ी हुई बुंदेलखंड की उस प्रचलित तस्वीर से आगे का सच हैं, जिसमें दरारों वाली ज़मीन पर उकड़ूं बैठे आसमान निहारते हुए किसान का ज़र्द चेहरा दिखाई देता है.
इलाक़े के रेलवे स्टेशनों से होकर मुम्बई या दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ियों में जगह पाने के लिए मारामारी का मंज़र दरअसल ताले वाले इन घरों की असली कहानी कहता है. मुम्बई जाने वाली तुलसी एक्सप्रेस हफ़्ते में दो रोज़ चलती है – सोमवार और बुधवार को. इलाहाबाद से चलने वाली यह ट्रेन बांदा से रात को दस बजे मिलती है मगर लोग अपनी पूरी गृहस्थी के साथ सरे शाम से ही प्लेटफॉर्म पर जमे हुए मिल जाते हैं. मानिकपुर से निज़ामुद्दीन जाने वाली यू.पी. संपर्क क्रांति शाम को पौने सात बजे तक बाँदा पहुंचती है और तब तक इसके जनरल डिब्बों, यहां तक कि पार्सल वैन और विकलांग मुसाफ़िरों के लिए आरक्षित ख़ास डिब्बे, में भी खचाखच भीड़ होती है. इन पहले से भरे हुए डिब्बों में यहां से भी तमाम लोग सवार होते हैं. जनरल डिब्बों के बाहर खड़े आरपीएफ के जवानों की कोशिश रहती है कि बाहर की तरफ़ लटकते हुए लोग किसी तरह अंदर समा जाएं. बाक़ी का सफ़र उनकी अपनी ज़िम्मेदारी.
इसी ट्रेन में सवार हुई ददरिया गांव की सीता की दम घुटने से मौत की ख़बर बहुत पुरानी नहीं है. निज़ामुद्दीन जाने के लिए रामप्रकाश अपने परिवार के साथ 31 जून की रात को संपर्क क्रांति की जनरल बोगी में किसी तरह दाख़िल तो हो गए मगर बेटी सीता ने जब घबराहट और दम घुटने की शिकायत की तो उसे रास्ते के किसी स्टेशन पर उतार नहीं सके. झांसी में किसी तरह उतरना सम्भव हुआ मगर तब तक सीता की मौत हो चुकी थी. रामप्रकाश दिल्ली में मजदूरी करते हैं. सीता की मौत रेलवे के आम मुसाफ़िरों की बदहाली की कहानी तो है ही मगर इससे कहीं ज्यादा इलाक़े में रोज़गार की क़िल्लत के मारे लोगों के पलायन की ऐसी सच्चाई भी है, जो हारे हुए तो हैं मगर जिन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है.
बुंदेलखंड के सात जिलों, बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और ललितपुर, से बीस फ़ीसदी आबादी के पलायन के आंकड़े से भी हालात की भयावहता समझी जा सकती है. नियोजन विभाग का यह आंकड़ा 2001 का है. पिछले दो दशकों की स्थिति समझने के लिए 2011 की जनगणना का संदर्भ ले सकते हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश से सर्वाधिक 26.9 लाख लोगों का पलायन दर्ज़ किया गया. बुंदेलखंड का इसमें बड़ा योगदान है. दूसरे स्रोतों के हवाले से भी बेहतर अंदाज़ लगाया जा सकता है. पल्स पोलियो अभियान में लगी स्वास्थ्य विभाग की टीम ने मार्च में अपनी जो रिपोर्ट दी है, उसके मुताबिक़ बांदा में 21819 घरों पर ताले पड़े मिले. इसी तरह चित्रकूट में 8944, महोबा में 5690 और हमीरपुर में 3912 घर लगातार बन्द पाए गए. इलाक़े के किसानों-मजदूरों की बेहतरी के लिए काम करने वाली विद्याधाम समिति के कार्यकर्ताओं ने बांदा के नरैनी ब्लॉक की नौ ग्राम पंचायतों के सर्वेक्षण में पाया कि 23167 लोगों की आबादी में 5600 लोग अभी घर नहीं लौटे हैं.
झंडू का पुरवा इसी ब्लॉक में पड़ता है. 535 लोगों वाले इस मजरे से 195 लोगों के पलायन की तस्दीक़ हुई. इनमें से बहुत से लोग किसी न किसी जमादार की टोली का हिस्सा बनकर हरियाणा, पंजाब या राजस्थान में पथेरे का काम करने जाते हैं. पथेरे यानी भट्टों पर ईंट पाथने वाले मजदूर. बारिश का मौसम शुरू होने का मतलब है, ईंट भट्ठों पर काम बंद. यह उनके घर लौट आने का समय है. पिछले साल दीवाली के आसपास जमादार के भेजे ट्रक में अपनी गृहस्थी और कुनबे के साथ अनजान से सफ़र पर निकले लोगों में से कई लौट भी आए हैं. ओमप्रकाश इन्हीं में हैं. पिछले क़रीब 17 वर्षों से वह इसी तरह गांव लौटते रहे हैं. मेहनत उनकी कुल पूंजी है, कहां और क्या काम मिलेगा यह जमादार जाने. इस बार भिवाणी से लौटे हैं और इतने पस्त हैं कि गांव में रोपाई की मजदूरी करने की भी ताब नहीं.
विद्याधाम समिति के संचालक राजा भैया कहते हैं कि उनसे बंधुआ मजदूर की तरह काम लिया जाता है. जब तक शरीर में ताक़त रहती है और ये लोग खटने लायक़ रहते हैं, काम मिलता रहता है. ताक़त ख़त्म हुई नहीं कि वे उन्हें भगा देते हैं. बीमार और काफी हद तक अशक्त ओमप्रकाश और उनकी पत्नी मीरा की वापसी को वह इसी श्रेणी में रखते हैं. अपने अनुभव के आधार पर वह यह भी बताते हैं कि अस्थायी पलायन के अलावा ऐसे मामले भी पता चलते हैं, जिनमें मजदूरी के निकले लोग फिर कभी नहीं लौटे. किसी को, यहां तक कि उनके रिश्तेदारों को भी पता नहीं होता कि वे कहां हैं, और हैं भी या नहीं? यहां काम मिलता नहीं है तो लोग मकान या गहने रेहन पर रखकर बड़े काश्तकारों या साहूकारों से कर्ज़ लेते हैं. ब्याज़ इतना होता है कि दो हज़ार रुपये का कर्ज़ साल भर में पांच हज़ार रुपये हो जाता है. अगर यह नहीं चुका सके तो फिर पांच हज़ार पर ब्याज़. कई बार यह रक़म बढ़कर इतनी हो जाती है कि या तो उसका मकान बिकेगा, नहीं तो उनके पास दो ही विकल्प रह जाते हैं – पलायन या फिर ख़ुदकुशी. और पलायन से इतना पूरा नहीं पड़ता कि वे कर्ज़ के जाल से बाहर निकल आएं. हां, कुछ बरस और जी लेते हैं.
कुछ अध्ययनकर्ता मानते हैं कि जिनके पास थोड़ी-बहुत खेती है, उनके पलायन की संभावना ज्यादा होती है. ऐसे लोग इतने साधन संपन्न होते हैं कि घर पर रहकर खेती संभाल सकें ताकि दूसरे बाहर जाकर कमा सकें. यानी लघु और सीमांत किसान परिवारों के मुकाबले भूमिहीनों के पलायन की संभावना अपेक्षाकृत कम है. हालांकि गांवों में महीनों बंद रहने वाले घर और उन घरों के मालिक के माली हालात ऐसी किसी भी थ्योरी को ख़ारिज़ करते हैं. व्यवहारिकता की कसौटी पर तो वह थ्योरी भी खरी नहीं उतरती, जिसके मुताबिक़ पलायन करने वालीं में मर्दों की तादाद ज्यादा होती है. इसके उलट पलायन करने वाले परिवारों में महिलाओं की संख्या ज्यादा होती है. सरकारी आंकड़ों से भी इसकी तस्दीक़ होती है.
झंडू पुरवा के संजय के साथ जब उनकी पत्नी माया जाती हैं तो बूढ़ी माँ सुकलिया को किसके भरोसे गांव में छोड़ें, इसलिए उन्हें साथ ले जाते हैं. सुराज पुरवा के बाशिंदे और कभी जनता जनार्दन पार्टी के नेता रहे मरहूम रामलाल वर्मा को पुरवा के बाहर शायद ही कोई जानता हो. उनकी विधवा पत्नी कलमतिया अपनी उम्र की वजह से मेहनत का कोई काम नहीं कर पातीं मगर बेटे-बहू काम के लिए जहां भी जाते हैं, वह भी साथ चली जाती हैं. वे दोनों जब मजदूरी पर जाते हैं, कलमतिया घर पर रुककर पोते-पोतियों की देखभाल करती हैं. गुड्डू के कुनबे में पत्नी-बच्चों और मां के साथ ही उनकी बहनें भी हैं. और वे सभी एक साथ गांव छोड़ते हैं.
पलायन पर पुरानी सरकारी रिपोर्ट के आंकड़े देखने से स्थिति और साफ़ हो जाती है. बाँदा से पलायन करने वाले 3.25 लाख लोगों में मर्दों की संख्या 28544 ही थी. इसी तरह चित्रकूट से गए 1.75 लाख लोगों में 1.56 लाख महिलाएं थीं. बाक़ी ज़िलों के आंकड़े भी ऐसी ही तस्वीर पेश करते हैं.
और बाहर गई ये महिलाएं सिर्फ़ घर के काम या बच्चों की परवरिश में नहीं लगी रहतीं, मर्दों के साथ बराबर खटती भी हैं. ऐसी भी हैं जो बाहर घरों में काम करती हैं, खाना बनाती हैं ताकि जब गांव लौटें तो थोड़े समय के लिए ही सही, बेहतर महसूस कर सकें. इतने पर भी उनके श्रम का अलग मुआवज़ा नहीं मिल पाता. ईंट भट्ठों पर काम करने वालों का हाल तो कम से कम यही है. बक़ौल ओमप्रकाश हज़ार ईंट बनाने पर पांच रुपये मिलते हैं, जिसमें मिट्टी छानना, गूंथना और सांचे में भरकर पाथना शामिल है. इस काम में कुनबे की औरतें में शामिल रहती हैं मगर उनकी अलग से कोई मजदूरी नहीं होती. साथ ले जाने से पहले जमादार जो चार-छह हजार रुपये देता है, उसकी भरपाई के बाद पंद्रह दिन में वह ख़र्चा दे जाता है. इस पैसे से राशन-पानी जुटाकर रख लेते हैं. लौटने से पहले वह हिसाब कर देता है. गांव लौटने पर धान की रोपाई या खेतों में दूसरे काम मिलने की उम्मीद होती है, मिल गया तो क़िस्मत वरना फिर जमादार का इंतज़ार. एक कोठरी का अपना कच्चा घर दिखाते हुए वह छत दिखाना नहीं भूलते. बरसात की रातों में कई जगहों से छीज गई खपरैल के नीचे सोना आसान नहीं होता. और यही चक्र बरसों से चला आ रहा है. उन्हें ज़िंदगी में बेहतरी की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती.
सरकारी सहूलियतों के बारे में यह जानना काफी होगा कि ऐसे कुनबों के पास वोटर कार्ड तो है मगर राशन कार्ड नहीं है. चुनाव चाहे प्रधानी का हो या कोई और, उन दिनों में इन सब की अहमियत बढ़ जाती है. ‘पर्ची काट देता है फिर बता देता है कि जाओ फलाने को वोट दे आओ, बस’, ओमप्रकाश ने बताया.
गुड्डू या ओमप्रकाश जैसे लोगों को खेती-किसानी के सिवाय कुछ और नहीं आता इसलिए दूसरे शहरों में जाकर मजदूरी ही कर सकते हैं मगर पुश्तैनी धंधे से जुड़े रहे हुनरमंदों की हालत और बदतर है. इलाहाबाद के माघ मेले या कुम्भ में सफ़ाई करने वालों की फ़ौज इन्हीं इलाकों से जाती है. कुंभ में मिल गए श्यामलाल चित्रकूट इलाके के गांव के हैं. बांस की डलिया-टोकरी बनाने का हुनर आता है मगर अब इन चीज़ों की उपयोगिता नहीं होने के चलते झाड़ू हाथ में आ गई है. राजा भैया मानते हैं कि ऐसे लोगों का बड़ा वर्ग है, जिसे गांव में रहकर मनरेगा जैसी योजनाओं में भी काम नहीं मिल पाता क्योंकि बाक़ी के लोग उन्हें अछूत मानकर उनके साथ काम करने को राजी नही होते.
सूखा और रोज़गार के कम अवसर पलायन की कुल वजह नहीं, ये पलायन की गति को बढ़ाते ज़रूर हैं. मगर सरकारी योजनाओं की असफलता और सामाजिक असंवेदनशीलता पलायन के मूल में ऐसी वजहें हैं, जिन पर ग़ौर किए बग़ैर कुछ सार्थक होना संभव नहीं लगता.
(साभारः यह रिपोर्ताज पहले सत्याग्रह में छप चुका है.)
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