व्यंग्य | स्मॉल छायावाद आना चाहिए

तो हुआ यूँ कि कुछ दिन पहले सोशल मीडिया के एक अत्यंत लोकप्रिय मित्र ने एक पोस्ट शेयर की, और प्रोफ़ाइल में भूकम्प आ गया. उसके बाद तो पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई? मित्रता निवेदनों का सैलाब आ गया. हालत यूँ हुई जैसे ट्रॉय के भीतर ग्रीक सेना घुस आई हो. स्थिति – तुझ से पूछूँ एक सवाल…. क्या मेरी तरह तू भी तड़पता है – वाली हो गई.

अभी आँखों में नींदें, दिल में क़रार लौट ही रहा था कि मित्र ने फिर एक पोस्ट शेयर कर दी. भूकम्प की दूसरी लहर आ गई. हालत फिर वही – अब है नींद किसे, अब है चैन कहाँ. लग रहा था जैसे मित्रता निवेदन किसी मशीनगन से तड़ा-तड़ दागे जा रहे हैं. करवटें बदलते रहे सारी रात हम, आपकी क़सम. और जो मित्रता निवेदन आए, वे भी मामूली नहीं थे.

कुछ के प्रोफ़ाइल चित्र में भगवान राम एक हाथ से धनुष पकड़े हैं, और दूसरे से या तो प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाए हैं, या तैयारी में हैं. साथ में लिखा है – जय श्री राम. ये जय श्री राम भी साधारण नहीं है; अनेक में चाकू-तलवारों से लिखा गया है.

मैं अपने वामपंथी मित्रों की इस बात से सहमत हूँ कि ऐसा चित्र देख कर डर तो लगता है, भय का माहौल तो बनता है. लोडेड धनुष देख कर किसको डर नहीं लगेगा भला? धनुष तो राम दरबार में भी रामचन्द्र जी कंधे पर है, पर भयभीत नहीं करता. वहाँ प्रभु पत्नी के साथ खड़े हैं. फैमिली के सामने व्यक्ति सौम्य तरीके से व्यवहार करता है. हनुमान जी भी विनय भाव से हाथ जोड़े बैठे हैं. मैं सोचता हूँ यदि इस चित्र से सीता जी हट जाएँ तो ये लोग अभी मार-धाड़ प्रारम्भ कर देंगे. किसी राक्षस को पकड़ लाएँगे और उसकी कुटाई करेंगे.

देश में व्याप्त इस भय को दूर करने के लिए हमें प्रयास करने होंगे. दक्षिणपंथियों से मुकाबले के लिए एक प्रभावशाली उपाय, जो मुझे समझ आता है, वह यह है कि वामपंथी मित्रों को इस चित्र के मुक़ाबले में सम्पूर्ण राम दरबार का चित्र अपने प्रोफ़ाइल पर लगाना चाहिये. इसी प्रकार जय श्री राम के आक्रामक नारे के मुक़ाबले में सीताराम का नारा अपनाना चाहिए. जैसे ही कोई दक्षिणपंथी जय श्री राम कहे, वामपंथी तत्काल वहाँ सीताराम-सीताराम कहने लगें. चाहें तो राधे-कृष्ण, हरे-कृष्ण भी कह सकते हैं. और भय के इस माहौल में सबसे बड़ी चुनौती व्यंग्य लिखना है.

व्यंग्य लिखना, कविता लिखने से अलग है. एक कवि लिख सकता है – ये शाम बहुत उदास है, कोई नहीं मेरे पास है. और जब माहौल बदल जाए, ‘सेफ़’ हो जाए, और लोग पूछें कि तब आप कहाँ थे? तो वह कवि कह सकता है कि ये पँक्तियाँ मैंने तत्कालीन सरकार के बजट के विरोध में लिखी थीं. उसी दिन सुबह बजट आया था. आप न मानें, तो तारीख़ देख लीजिये. वह कह सकता है कि तीन वर्ष पहले जो मैंने लिखा था- ज़रा आँख तो मिला साकी, अभी मय है बहुत बाक़ी – वह सत्ता को सीधी चुनौती थी. और लोगों को मानना पड़ेगा.

वास्तव में दो हज़ार चौदह के बाद से कविता में छायावाद की वापसी हुई है. यह छायावाद का द्वितीय चरण है. इसको ट्रोल जन्य छायावाद या ट्रोलिंग छायावाद कहना उचित होगा. मैं ट्रोलिंग के डर से बड़े-बड़े कवियों को छायावादी होते देख रहा हूँ. उनके प्रतीक, उनके बिम्ब, बिम्ब का नहीं, आड़ का निर्माण कर रहे हैं. वैसे जिसने भी साहित्य में प्रतीकों, बिम्बों की खोज की थी, हमें उसका ऋणी होना चाहिए. उसने कवियों की ट्रोलर्स से रक्षा करके, महान उपकार किया है. परन्तु व्यंग्य को यह छायावादी लग्ज़री उपलब्ध नहीं है. छायावाद की शीतल छाया व्यंग्य को छू कर भी नहीं निकलती. व्यंग्य को धूप में ही खड़ा होना होता है. पाठकों के नेत्र से निकलती रश्मियाँ उसके सिर पर चमकती रहती हैं.

समय-समय पर अनेक व्यंग्यकार ऑन-ऑफ लाइन रेले-पेले जाते रहे हैं. पेले जाने के ख़तरे का उल्लेख जब मैंने एक वरिष्ठ आलोचक के सामने किया तो उन्होंने कहा – किसी साहित्यकार को अपनी पिटाई आभूषण की तरह धारण करनी चाहिये. मैं इससे असहमत हूँ. मुझे जानकारी नहीं है कि हरिशंकर परसाई ने ‛आवारा भीड़ के खतरे’ पेलोपरांत लिखा था, अथवा पेलोपूर्व. हाँ, यह अवश्य याद है कि उन्होंने ‛पिटने-पिटने में फ़र्क’ ऑफ़लाइन पिलाई के बाद लिखा था. पिलाई के उपरांत, उस पिलाई पर भी व्यंग्य लिख कर, परसाई सभी व्यंग्यकारों के लिए बहुत उच्च आदर्श स्थापित कर गए हैं. अपनी ओर फेंके गए पत्थर का उन्होंने नेकलेस बना लिया. तो यह नौबत कभी भी आ सकती है कि लेखक की नौबत बजने लगे. हमें भी परसाई की तरह व्यंग्य लिखने के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे. (पर भीतर दिल कह रहा है – ये कहाँ आ गए हम, आ अब लौट चलें)

शब्दभेदी बाण के विपरीत, व्यंग्य सर्वभेदी बाण है. अर्थात यह कहाँ लगेगा, किसी को पता नहीं है. और यह लक्ष्य पर लगे, न लगे, अन्यत्र अवश्य लगेगा. सम्भावना इस बात की भी है कि व्यंग्यकार द्वारा चलाया गया तीर, तीनों लोकों में घूम कर स्वयं लेखक के ही पृष्ठभाग को उपकृत कर दे. हो सकता है व्यंग्य का तीर उत्तर दिशा की ओर चलाया जाए, और दक्षिण दिशा से – मारो साले को!- की आवाज़ें आने लगें.

एक लेखक के तौर पर मैं – प्रबिसि नगर कीजे सब काजा, हृदयँ राखि कोसलपुर राजा- का जाप करते हुए, अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने को तैयार हूँ. परन्तु फिर भी, व्यंग्य में भी छोटा-मोटा, स्मॉल छायावाद आना चाहिये. जहाँ माहौल सेफ़ होने पर हम कह सकें कि जो हमने श्रीमतीजी के लिए पांच साल पहले लिखा था कि वे हमें समझती नहीं है, हमारी उनकी बनती नहीं है – वहाँ श्रीमतीजी को सरकार माना जाए. और लेखन ही क्या सभी जगह छायावाद छा जाए तो कितना बेहतर हो.

मुझे किसी से कहना हो – साले मैं तेरा मुँह तोड़ दूँगा, तो मैं कहूँ – पक गया है शज़र पर एक कटहल, जो गिरना चाहता है. और उसे यदि प्रत्युत्तर में कहना हो – चल निकल साले, तो वह कहे – मार्ग प्रशस्त था, वायु भी निकल रही थी. सोचिये, कितनी सुंदर दुनिया हो जाएगी. तब तक कोसलपुर के राजा का स्मरण ही सहाय है.

श्रीमती जी ने पूछा – “अगर तुम्हारे साथ कुछ ऐसा (वैसा) हुआ तो अपने लेख का क्या शीर्षक रखोगे?” मैंने उत्तर दिया कि परसाई की तर्ज पर ही कुछ रख लूँगा – ट्रोल होने- ट्रोल होने में फ़र्क़ जैसा कुछ. “अरे ऑफ़ लाइन के हिसाब से भी तो सोचो. तुम घसीटने-घसीटने में फ़र्क़ शीर्षक रखना. या सुनो, दौड़ाने-दौड़ाने में फ़र्क टाइटल रखना. क्या मोहक दृश्य होगा वह, जब व्यंग्य लिखने के लिए भीड़ तुम्हें दौड़ाएगी. आहा! कल्पना मात्र से हृदय आनन्दित है.”

मैंने होली के उपलक्ष्य में एक कविता लिखी थी, जिसमें ये कल्पना थी कि एक व्यक्ति रंग से बचने के लिए घर के भीतर छुप गया है, और उसके साथी उसे बाहर लाने का प्रयास कर रहे हैं. एक मित्र ने सोशल मीडिया पर वह कविता शेयर की. वहाँ किसी ने कमेंट किया- ‛पेट्रोल तो सीरिया में बहुत सस्ता है पर वहां खरीदने वाला कोई नहीं बचा, इसलिए राष्ट्र प्रथम!’ सोचिये, कितने ख़तरनाक लोगों से साबका पड़ा है.

श्रीमतीजी की कामनाएँ और ऐसे धुरंधर पाठक; अब समझ आ रहा है कि क्यों पुराने लेखक अपनी रचनाओं का प्रारम्भ भगवान की आराधना से करते थे; कि हे प्रभु, जो लिख पाए, सो लिख दिया, कोई ऊँच-नीच हो तो सम्भालना!

मैं भी जप रहा हूँ- प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

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