नृत्यांगना बनते-बनते क्रिकेटर बन गईं मिताली राज

दस हज़ार रन पूरे करने वाली पहली भारतीय बल्लेबाज़ मिताली राज नृत्यांगना बनना चाहती थीं, भरतनाट्यन में प्रशिक्षित भी हैं. नृत्यांगना बनते-बनते वह क्रिकेटर बन गईं. मगर उनके खेल में जो लय और गति है, नियमों की बंदिश और सबसे ऊपर खेल में जो कमाल का ग्रेस है, वह कम शास्त्रीय नहीं.

दुनिया के सबसे अमीर और प्रोफ़ेशनल क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई ने भारतीय महिला क्रिकेट की बागडोर 2006 में अपने हाथ में थामी और ‘विमेन्स क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ का बीसीसीआई में विलय कर दिया गया. इस उम्मीद के साथ कि जिस तरह भारतीय पुरुषों ने क्रिकेट के महासागर में महारत और शोहरत की अनंत गहराई नापी है, ठीक उसी तरह भारतीय युवतियाँ क्रिकेट के आसमान में प्रसिद्धि की बुलन्दी छू पाएंगी. यह उम्मीद कितनी पूरी हुई और बीसीसीआई का इसमें कितना योगदान रहा, यह बहसतलब सवाल है. मगर यह ज़रूर हुआ है कि भारतीय बालाओं ने ख़ुद पर भरोसा करना सीख लिया है और उन्होंने अपने भरोसे, अपनी योग्यता के बूते अपने पंखों को इतना मज़बूत बना लिया है कि स्वच्छंद उड़ सकें और नित नए मुकाम हासिल कर सकें.

12 मार्च को दक्षिण अफ्रीका के साथ लखनऊ के इकाना स्टेडियम में खेली जा रही वर्तमान सीरीज़ के तीसरे एक दिवसीय मैच में मिताली दुराई राज एक ऐसा मील का पत्थर स्थापित कर रही थीं, जिस पर महिला खिलाड़ी तो क्या पुरुष खिलाड़ी भी रश्क कर उठें. भारतीय इनिंग का 28वां ओवर चल रहा था. ऐनी बॉश के सामने मिताली राज थीं. वे अपने 32 रन के व्यक्तिगत स्कोर पर थीं. उनके 10 हज़ार अंतरराष्ट्रीय रन पूरे होने में सिर्फ़ 03 रनों की कमी थी. उन्होंने एक चौका लगाया और 10 हज़ार रन पूरे किए. अब वे 10 हज़ार रन बनाने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी और इंग्लैंड की चार्लोट एडवर्ड्स के बाद विश्व की दूसरी खिलाड़ी बन गई हैं. 10 हज़ार अंतरराष्ट्रीय रन बनाना निसन्देह एक असाधारण उपलब्धि है.

वे एक गेंद पर चौका लगाकर एक असाधारण उपलब्धि हासिल करती हैं और ठीक अगली गेंद पर आउट होकर पवेलियन लौट जाती हैं. ये दो गेंदें ज़िन्दगी का और विशेष रूप से महिलाओं की ज़िन्दगी का रूपक गढ़ती हैं. ज़िन्दगी पल में तोला पल में माशा. ज़िन्दगी चाहे जैसी हो लेकिन मिताली राज की क्रिकेट यात्रा तो कम से कम ऐसी नहीं है. उन्होंने 1999 में एक बार अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में क़दम रखा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. क़दम दर क़दम प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़ती गई और अब तक शिखर पर पहुंच कर ठहर गई हैं. और वे अब उस ऊंचाई पर हैं, जिस पर पहुंच पाना किसी और के लिए नामुमकिन तो नहीं मगर थोड़ा मुश्किल ज़रूर है.

सोलह साल की उम्र में मिताली ने पहला अन्तर्राष्ट्रीय मैच आयरलैंड के विरुद्ध खेला था. इस एकदिवसीय मैच में उन्होंने नॉट आउट 114 रन बनाए. पहला टेस्ट मैच 2002 में इंग्लैंड के विरुद्ध और पहला टी-20 मैच 2006 में इंग्लैंड के विरुद्ध खेला था. उन्होंने कुल 10 टेस्ट मैच खेले, जिसमें एक शतक और चार अर्धशतकों की सहायता से 51 की औसत से 663 रन बनाए. उन्होंने 89 टी-20 मैचों में 17 अर्धशतकों की सहायता से 37.52 के औसत से 2364 रन और 211 टेस्ट मैच में 6974 रन बनाए हैं. एकदिवसीय मैचों में सात हज़ार रन बनाने से वह केवल 26 रन दूर हैं और जब आप ये पढ़ रहे होंगे तो सकता है इस माइलस्टोन पर भी उन्होंने अपना नाम लिख दिया हो. ऐसा करने वाली महिला क्रिकेट इतिहास की वह एकमात्र खिलाड़ी होंगी. साथ ही दो एकदिवसीय विश्व कप के फ़ाइनल में टीम को पहुंचाने वाली एकमात्र भारतीय कप्तान.

अपनी उपलब्धियों के लिए वह ‘लेडी सचिन’ के नाम से जानी जाती हैं. पर वे भारतीय महिला क्रिकेट की गावस्कर ठहरती हैं. गावस्कर की तरह अपने असाधारण खेल और उपलब्धियों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होने वाली और प्रसिद्धि पाने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी. हरमनप्रीत कौर उनके बाद आईं. अपनी कॉपी बुक स्टाइल, शानदार स्ट्रोक्स और एक छोर से पारी को थामे रखने में गावस्कर सरीखी ही लगती हैं. इतना भर ही नहीं. जिस तरह का पुराने के जाने और नए के आने के दो कालों का, दो महान व्यक्तित्वों की टकराहट का और खेल की दो शैलियों के बीच का द्वंद्व और संघर्ष पुरुष क्रिकेट में गावस्कर और कपिल रचते हैं, उसका प्रतिरूप महिला क्रिकेट में मिताली और हरमनप्रीत कौर रचती हैं.

वह एक वायुसैनिक की पुत्री हैं. बचपन से उन्होंने आसमान में उड़ते वायुयानों को देखा होगा. बहुत क़रीब से देखा होगा. निःसन्देह वे उससे प्रभावित होती होंगी. उससे एक आत्मीयता बनी होगी. अवचेतन में ऊंचाइयों को छूने की चाह जन्मी होगी. इस चाह को पूरा करने के लिए नीला आसमां न भी हो तो क्या फ़र्क पड़ता है. क्रिकेट का हरा मैदान तो था! रनवे न सही, 22 ग़ज़ की पिच तो थी न! और कोई यान न भी हो तो क्या फ़र्क पड़ता है, एक अदद बल्ला तो था ना! उड़ने के लिए चाहत और हौसले के पंखों की ज़रूरत होती है. और वे मिताली के पास थे.

हां, कोई उन पंखों को खोलने वाला, उड़ान का सलीका-सलाहियत देने वाला चाहिए था. संपत कुमार ऐसे ही शख़्स थे, जिन्होंने मिताली को असीमित उड़ान भरने की क़ाबिलियत दी. संपत कुमार कमाल के पारखी थे. पहली नज़र में उन्होंने हीरे को पहचान लिया था. फिर मेहनत से उसे तराश दिया. आज वह हीरा भारतीय महिला क्रिकेट के माथे सजा है.

पर जीवन में कुछ दुर्योग भी आते हैं. बात 1997 की है. 14 साल की उम्र में ही मिताली को विश्व कप के संभावितों में चुना लिया गया था. उस के कुछ समय बाद ही संपत कुमार की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई. नियति को शायद यही मंज़ूर था. शायद उनका काम पूरा हो गया था. तो क्या ईश्वर को लगा कि एक नायाब हीरा तराशा जा चुका है. और ऐसा कोई दूसरा हीरा नहीं होना चाहिए. शायद हां. शायद न. पर संपत चले गए.

इसे एक संयोग ही मानना चाहिए कि नृत्यांगना बनते-बनते वह क्रिकेटर बन गईं. दरअसल मिताली भरतनाट्यम में प्रशिक्षित हैं. पहले वह डांसर बनना चाहती थीं. मगर वह क्रिकेटर बन गईं. उनके खेल में लय है, गति है, नियमों की बंदिश है और सबसे ऊपर खेल में कमाल का ग्रेस है. वे शास्त्रीय नृत्य की-सी गति, लय, शास्त्रीयता और ग्रेस को खेल में समाविष्ट कर देतीं हैं और खेल को नृत्य की तरह दर्शनीय और मोहक बना देती हैं.

दरअसल वह क्रिकेट की रुक्मणि देवी हैं.

एक असाधारण उपलब्धि के लिए उनको बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं.

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